गीता गुप्ता 'मन' के गीत
कुछ अनबुझे कुछ अनजाने, कुछ लगते जाने पहचाने,
मन को मंदिर कर देते है, कुछ गीतों के बोल सुहाने।
कुछ अनबुझे कुछ अनजाने, कुछ लगते जाने पहचाने,
मन को मंदिर कर देते है, कुछ गीतों के बोल सुहाने।
धर्म-धर्म का खेल खेलते, भरते सबके हृद में रोष।
लूट-पाट दंगे फैलाकर, भरते जाते अपना कोष।
अपना उल्लू सीधा करते, कैसी कैसी चलते चाल।
लड़ते हैं आडंबर खातिर, इसे बनाते अपनी ढाल।
झूठी शान हेतु करते हैं, एक दूसरे पर ही वार।
जीत रही पशुता पग पग पर, आज रही मानवता हार।
शिव मंदिर के चारों कोने
चारों धाम हुआ करते थे
छोटी-छोटी इच्छाओं के
चक-मक पंख उड़ा करते थे
हर कोई पूँजी के पाँव-तले,
श्रमिकों की छाती पर मूँग दले,
वक़्त नहीं यह चुप रह जाने का,
सौंह तुम्हें, जो तुमने होंठ सिले,