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जयराम जय के गीत

जयराम जय के गीत

हों स्वप्न सभी साकार आपके 
नये साल में!
 
घर बाहर सूरज समृद्धि की 
किरणें बरसायें  
सन्ध्यायें सुख-सुविधाओं के
मंगल दीप जगायें
 
स्वागत के सामान लिये हों 
सभी थाल में!

गीत- एक 
 
नये साल में
 
हों स्वप्न सभी साकार आपके 
नये साल में!
 
घर बाहर सूरज समृद्धि की 
किरणें बरसायें  
सन्ध्यायें सुख-सुविधाओं के
मंगल दीप जगायें
 
स्वागत के सामान लिये हों 
सभी थाल में!
हों स्वप्न सभी साकार आपके 
नये साल में!
 
मन तरुवर में उगें कोपलें 
नई निरन्तर
वाद- विवाद सभी मिट जाएँ 
दिखे कहीं न अन्तर
 
नेह सुगन्धित पुष्प खिलें फिर 
डाल-डाल में !
हों स्वप्न सभी साकार आपके 
नये साल में!
 
अधर अधर पर मुस्कानें ही 
मुस्कानें हों
और क्षितिज छूने के खातिर 
नई उडा़ने हों
 
भूले से भी भटक न जाना
चपल-चाल में !
हों स्वप्न सभी साकार आपके 
नये साल में!
 
आतंकों से मुक्त धरा का 
हो कोना -कोना
विश्व बन्धुता बढे़, किसी को 
पडे़ न कुछ खोना
 
कसम तुम्हें है फँस मत जाना 
नये जाल में !
हों स्वप्न सभी साकार आपके 
नये साल में!
 
******************       
 
 
गीत- दो 
 
दर्द सबका  कौंन बाँटे
 
सब ने अपनी राह में हैं
बो दिए  काँटे 
बो दिए काँटे
दर्द सबका कौन अब बाँटे 
 
अमराई मंहकी आँगन में 
तरसे मन सूखे सावन में 
साथी मेरा 'इंटरनेट' से 
टुकुर-टुकुर ताके 
टुकुर-टुकुर ताके
दर्द सबका कौन अब बाँटे
 
लगते उजले दिन हैं काले 
यादें सँग महुआ के प्याले 
वह नहीं हमारे पास तो फिर 
कौन अब डाँटे 
कौन अब डाँटे
दर्द सबका कौन अब बाँटे
 
रात चाँदनी बेला  महके 
टेसू मन पलाश बन दहके 
स्मृतियों की  पुरवाई ने 
लगा दिए चाँटे 
लगा दिए चाँटे
दर्द सबका कौन अब बाँटे
 
गंध हो गई टुकड़े-टुकड़े 
गीत हो गए मुखड़े-मुखड़े 
स्वार्थ तराजू चुंबक वाले 
लगा रहे घाटे 
लगा रहे घाटे
दर्द सबका कौन अब बाँटे
 
सब ने अपनी राह में हैं 
बो दिए  काँटे 
बो दिए काँटे
दर्द सबका कौन अब बाँटे 
 
******************
 
 
गीत- तीन 
 
औपचारिक हो गये
 
औपचारिक हो गये हैं
आज कल रिश्ते
ढूँढने जाना कहँ है 
सब यहीं दिखते
 
स्वार्थ की दीवार 
ऊँची हो गयी है 
प्यार की 'स्कर्ट'
छोटी हो गई है
 
जिधर देखो हर तरफ 
ईमान हैं बिकते
 
हो गई अनुबन्ध 
वाली ज़िन्दगी है
इसलिये करनी
हमेशा बन्दगी है
 
चाटुकारी हैं ज़बाँ से 
कुछ नहीं कहते
 
अर्थ के तन्दूर 
दहके सेंकते रोटी 
निकल जाता काम 
तो फिर काटते बोटी
 
हैं चली पछुआ हवायें 
पद नहीं टिकते
 
भावना के शहर में
ठहरी नदी है 
कुटिल कोलाहल 
बहुत बहरी सदी है
 
हो गई रसधार कुंठित 
रस नहीं बहते
 
औपचारिक हो गये हैं 
आजकल रिश्ते
ढूँढने जाना कहँ है 
सब यहीं दिखते
 
******************
 

गीत- चार 
 
सब हैं पागल
 
सब हैं पागल हुये 
आज कल खूब कमाने में 
कहते कोई नहीं 
दूसरा और ज़माने में
 
छाती चौड़ी करके बोले
यह सब अपना है 
इसे दोगुना करने का 
अब मेरा सपना है
 
कब मानें एहसान किसी का 
यह सब पाने में
 
रिश्ते नाते -नाते रिश्ते
हैं कहने भर के 
कहीं ज़रूरत पड़ जाये 
तो ज़्यादातर टरके
 
सम्बन्धों को लिये साथ हैं 
सिर्फ भुनाने में
 
मौसम बदला ऋतुयें बदलीं  
बदल गये हैं मन 
इसीलिये तो रहती है अब 
आपस में अनबन
 
रहते मिलकर साथ साथ हैं
सिर्फ दिखाने में
 
छन्द हुये स्वछन्द 
गीत को बन्द नहीं मिलते
सूखे पोखर जैसे मन 
जलजात कहाँ खिलते
 
इसीलिये तो मज़ा न आता 
इनको गाने में
 
सब हैं पागल हुये 
आज कल खूब कमानें में
कहते कोई नहीं 
दूसरा और ज़माने में 
 
******************          
 
 
गीत- पाँच
 
मौसम को बेहाल देखकर
 
आँखें खुली खुली रह जातीं  
संबंधों का हाल देखकर 
 
पतझड़ के पीले पातों सा 
अरमानों का हश्र हो गया 
पाल पोस कर जिसे बढ़ाया 
ताड़ बना और वक्र हो गया 
 
भीतर बाहर आग लगी है 
मौसम को बेहाल देखकर 
 
शकुनी ही शकुनी दिखते हैं 
चौसर चारो ओर बिछाए 
ताक रहे कब नज़र हटे और 
बगुला फिर से काम लगाए 
 
तोता असमंजस में बैठा 
बंद आँख की चाल देखकर 
 
चेहरों पर हैं लगे मुखौटे 
करते सदा  दोमुही बातें 
दिखने में  गौरैया जैसे 
चीलों वाली  करते घातें  
 
अब तो बया उदास हो गया 
कपि के फूले गाल देखकर
 
बाबा बैठे हैं चौखट पर 
दो रोटी की आस लगाए 
अपने में हैं व्यस्त सभी जन
उन पे  कोई नज़र न जाए 
 
मन ही मन में दुखी बहुत हैं 
अपनी सेयी पाल देखकर 
 
आँखें खुली खुली रह जातीं 
संबंधों का हाल देख कर
 
******************
 
 
गीत-छः 
 
लगाता मस्ती के गोते
 
बीत रही है उम्र बोझ 
घर का ढोते-ढोते
फिर भी गाता गीत
लगाता मस्ती के गोते
 
आँख खुली तो 
आवश्यकतायें मुँह बाए हैं
उनसे निपटा नई 
समस्यायें दहलाए हैं
 
देख-देख मन घबराये,फिर 
आशा में जीते
 
किसी की भरनी फीस 
किसी के बेमतलब खर्चे
अनाहूत  बीमारी  के 
हैं  घर -बाहर  चर्चे
 
कभी-कभी तो आँख बचाकर 
हम भी हैं रोते
 
भीतर ही भीतर घुटते 
पर बाहर हँसते हैं
सीने पर पत्थर रख करके 
सब कुछ सहते हैं
 
अब तो वह भी नज़र चुराते 
जो अपने होते
 
चिन्ता चिता समर्पित कर  
जय संबल है संग में
कट जायेंगे ये भी दिन 
सुख गायेंगे नग़में
 
सोच न ज़्यादा मत उदास हो 
क्यों अपनी जोते
 
बीत रही है उम्र  बोझ 
घर का ढोत -ढोते
फिर फी गाता गीत लगाता 
मस्ती के गोते
 
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वसंत जमशेदपुरी

13 February 2025

मधुर गीत

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रचनाकार परिचय

जयराम जय

ईमेल : jairamjay2011@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि-05 जनवरी, 1959
जन्मस्थान- ग्राम/पोस्ट सुल्तानगढ़,जिला-फतेहपुर उ.प्र. 
शिक्षा- परास्नातक हिन्दी,साहित्यरत्न,पत्रकारिता,वास्तुविद इंजीनियरिंग 
सम्प्रति- उ.प्र. आवास विकास परिषद से निवृत्त वास्तुविद अभियंता,।वास्तुविदीय कार्य के साथ साहित्य सेवा को समर्पित
प्राकाशन- स्तरीय पत्र पत्रिकाओ में वर्ष 1980 से कहानी,कविता आलेख निरंतर प्रकाशित।
पुरस्कार/ सम्मान- अनेक साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
प्रसारण- अकाशवाणी तथा दूरदर्शन के अतिरिक्त विभिन्न चैनलो से रचनाएं निरंतर प्रसारित
विशेष- सह संपादक, हमारा शहर मासिक,कानपुर,
शेषामृत त्रैमासिक,सिरौठ तथा  शब्दाक्षर इ-मासिक पत्रिका,नोयडा 
संपर्क- 'पर्णिका' बी-11/1,कृष्ण विहार,आवास विकास,कल्याणपुर कानपुर 208017(उ प्र)
मोबाइल- 9415429104& 9369848238