Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
शकुन अग्रवाल 'सहज' के गीत

धर्म-धर्म का खेल खेलते, भरते सबके हृद में रोष।
लूट-पाट दंगे फैलाकर, भरते जाते अपना कोष।
अपना उल्लू सीधा करते, कैसी कैसी चलते चाल।
लड़ते हैं आडंबर खातिर, इसे बनाते अपनी ढाल।
झूठी शान हेतु करते हैं, एक दूसरे पर ही वार।
जीत रही पशुता पग पग पर, आज रही मानवता हार।

मंजू लता श्रीवास्तव के गीत

शिव मंदिर के चारों कोने
चारों धाम हुआ करते थे
छोटी-छोटी इच्छाओं के
चक-मक पंख उड़ा करते थे

राजेन्द्र वर्मा के गीत

हर कोई पूँजी के पाँव-तले,
श्रमिकों की छाती पर मूँग दले,
वक़्त नहीं यह चुप रह जाने का,
सौंह तुम्हें, जो तुमने होंठ सिले,

देवेन्द्र पाठक 'महरूम' के गीत

अस्ताचल पर बुझा अंगारा,
धुँधला हर परिदृश्य हो रहा,
बोध नहीं पथ, दिशा, समय का
गहन तिमिर में लक्ष्य खो रहा;