Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
ताबिश सुल्तानपुरी की ग़ज़लों में ‘प्रेम’ की अभिव्यक्ति- डॉ० अरुण कुमार निषाद

ताबिश अपनी प्रेमिका को ईश्वर से भी उच्च स्थान प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि-ठीक है हम मानते हैं की खुदा की पूजा अर्चना आवश्यक है, परन्तु क्या उस खुदा के आगे अपने प्रेम को ठुकरा देना चाहिए? वह स्वयं ही उत्तर भी देते हैं कि- ठीक है मैं मानता हूँ की खुदा की बन्दगी करना जरूरी है, लेकिन मेरी प्रेयसी भी किसी खुदा से कम नहीं है।  वह भी सम्मान लायक है। वह आगे लिखते हैं कि-वे दुनिया वालों जिस प्रेम को तुम क्षणिक मानते हो, तुम जिसका मजाक उड़ाते हो, जिस पर तुम हँसते हो, उसके विषय में मुझसे पूछो कि-प्यार क्या होता है। यह जिस पर बीतती है वही जान सकता है। बाकी सबको यह मजाक लगता है। मैं इस अपने प्यार को प्राप्त करने के लिए जितना रोता हूँ या तो मैं जानता हूँ या मेरा भगवान। 

इक्कीसवीं सदी की संस्कृत कथाओं में चित्रित समाज- शिखारानी

माता पुनरपि विचारेषु निमग्ना भवति यत्‍ कदा मम नेत्रे पिहिते भवेताम् अपि च निमिषा कदा नववधूवेषं धारयेदिति ।[10]

समकालीन हिंदी काव्य में बेरोज़गारी का चित्रण- डाॅ० अलका शुक्ला

समकालीन कवियों ने बेरोज़गारी के कारण अभावग्रस्त जीवन का भी मार्मिक वर्णन किया है। आधी रोटी के लिए लड़ते बच्चे, ख़ाली कनस्तर, उदास चूल्हा, दोस्त की कमर, जो वक्त के पहले ही झुक गई है, रोजगार कार्यालय में युवाओं की लम्बी लाइन, एक वेकेन्सी के लिए अर्जियाँ लिये एक हज़ार नौजवान, एक सवारी को ले जाने के लिए बीस रिक्शे वाले गिड़गिड़ाते हुए, छँटनी के बाद, 'इंकलाब ज़िंदाबाद' के नारे लगाते फैक्ट्री के बाहर एकत्र लोग, नौकरी की आस में चालीस वर्षीय कुंवारे और कुंवारियों आदि संवेदनाओं को समकालीन रचनाकारों ने बड़ी गम्भीरता से उठाया है।