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सीमा अग्रवाल के गीत

सीमा अग्रवाल के गीत

यहाँ कोई किसे
समझा सकेगा
सभी हैं शून्य
सब ही सैकड़े हैं।

गीत- एक

गीतों में दुनिया को गाना
मानो इकतारा हो जाना

ख़ुद को परे बिठा कर
सब हो जाना सहल नहीं
अब से तब या तब से अब
हो जाना सहल नहीं

रहना विरत और रह कर भी
ड्योढ़ी- ड्योढ़ी धोक लगाना

पथरीले रास्तों से रोज़
गुज़रना होता है
बारिश में बादल को छतरी
करना होता है

हर दिन चोटिल होना हर दिन
गिरना फिर गिरकर उठ जाना

कुआँ इस तरफ़ और
उस तरफ़ खाई जैसे पल
और मज़े की बात साथ ही
काई जैसे पल

यानी जान हथेली पर रख
तुनक तुनक तुन धुन हो जाना

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गीत- दो 

गिलहरियों सी दौड़ रही है
आँगन आँगन
सर्दी वाली धूप

अभी दिखी, लो दिखी अभी
लो अभी हुई
छूमंतर
छड़ी घूमाता है जैसे
छुप कर कोई
जादूगर

पूरे दिन करती है यों ही
आवन जावन
सर्दी वाली धूप

कड़क ठंड को कुतर रही
नन्हें हाथों
में थाम
कभी इधर से कभी उधर से
किए बिना
आराम

मेहनत करती लगती कितनी
है मनभावन
सर्दी वाली धूप

खिड़की खुली तनिक
कमरे में, कूदी
आँख मिचकती
मेले में खोई बच्ची सी
सहमी सहमी
तकती

ढूँढ रही है जाने किसको
अनमन अनमन
सर्दी वाली धूप

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गीत- तीन

वही बस सूर्य बन कर
जगमगाता है
समय के भाल पर

कि जिसने पत्थरों को
रूह बख्शी
मुस्कुराहट दी
निविड़ निस्तब्धता
के द्वार को
श्रुति मधुर आहट दी

कथायें बस उसी की
गूँजती हैं
काल के खड़ताल पर

समय की चाल को जिसने
मुनासिब
ढंग में ढाला
लगन ने जिसकी
हर इक रंग को
खुशरंग में ढाला

वही अलमस्त हो
जीवन सजाता है
किसी भी हाल पर

कि जिसने उत्सवों
खुशहालियों के
बीज बोए हैं
स्वयं बढ़ कर
बिरानी वेदना के
शैल ढोये हैं

वही तो दीप बन कर
दीपता है
अर्चना के थाल पर

उसी का नाम
होता है लिखा
हर जीत की जयमाल पर

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गीत- चार

मौन महँगा पड़ रहा है
सृष्टि के आवेश जागो

कुओं, तालाबों, नदी
झरनों, प्रपातों 
भर उठो प्रतिरोध से सब
डुबा दो अविलंब
कुत्सित हर उपक्रम
तमतमाकर क्रोध से अब

शठे शाठ्यम आचरित हो
गुँजा दो संदेश जागो

पर्वतों मुँह तोड़ उत्तर
दो, सभी उन
भ्रांतियों को,बिन रियायत
दंभ की मदिरा चढ़ाये,
जो समझती हैं,
तुम्हें अपनी रियासत

क्षमा तज अब दण्ड थामो
दयामय दरवेश जागो

हवाओं कितना सहोगी
बोझ तन पर
गर्जना कर शपथ खाओ
प्रभंजन बन खत्म करना है
निमित्तों को
समर का रथ बढ़ाओ
प्राणदा! दो स्वयं को ही
स्वयं हित आदेश, जागो

जंगलों,आकाश,माटी
एक हो जाओ
समय है ठान लो अब
स्वयं लो निर्णय
कि इन मक्कारियों का
तनिक मत अहसान लो अब

संगठित प्रतिरोध हो अब
समूचे परिवेश जागो

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गीत- पाँच

क़दों को नापने
बौने खड़े हैं

सभी की गर्दनें
कस कर तनी हैं
सभी सर को उठाए
हैं खड़े
सभी को है
ग़लतफ़हमी यही बस
सभी में हैं
वही सबसे बड़े

यहाँ कोई किसे
समझा सकेगा
सभी हैं शून्य
सब ही सैकड़े हैं।

उचकते दिख रहे
पंजे कहीं पर
कहीं कंधे चढ़े
बैठे हुए कुछ
कहीं आवाज़ की
सीढ़ी बना कर
उसी पर बैठ कर
ऐंठे हुए कुछ

अजब ज़िद है
ग़ज़ब की कोशिशें भी
मगर वो हैं,
अड़े हैं तो अड़े हैं

झुकें या फिर
गिरें इनके क़दों तक
कि चढ़ने दें सरों पर,
क्या करें?
मुसीबत है यही
क़द्दावरों की
तने इन पर कि
इनसे ही डरें

विकल्पों में यही बस
श्रेष्ठतम है
कि कह दें
‘आप ही सबसे बड़े हैं ‘

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2 Total Review

वसंत जमशेदपुरी

01 April 2025

भावपूर्ण सृजन

अलका मिश्रा

20 March 2025

ख़ुद को परे बिठा कर सब हो जाना सहल नहीं अब से तब या तब से अब हो जाना सहल नहीं बहुत सुंदर गीत हैं आपके हार्दिक बधाई

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रचनाकार परिचय

सीमा अग्रवाल

ईमेल : thinkpositive811@gmail.com

निवास : मुंबई (महाराष्ट्र)

जन्मतिथि- 8 अक्टूबर 1962 
जन्मस्थान- कानपुर(उत्तर प्रदेश)
लेखन विधा- नवगीत,ग़ज़ल,कहानी,आलेख 
शिक्षा- संगीत से स्नातक, मनोविज्ञान से परास्नातक, पुस्तकालय विज्ञान में डिप्लोमा
संप्रति-आकाशवाणी कानपुर में कई वर्ष तक आकस्मिक उद्घोषिका, स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- खुशबू सीली गलियों की, नदी ने बतकही की पत्थरों से, आहटों के अर्थ ( एकल गीत संग्रह)
अनेक साझा संकलन, प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन, मॉरिशस गाँधी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वसंत एवं रिमझिम पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन, “साहित्य रागिनी, अनुभूति, शब्दाक्षर, कविता कोश आदि इ-पत्रिकाओं और साहित्यिक कोशों में उपस्थिति।
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
संपर्क- मुंबई (महाराष्ट्र)
मोबाईल- 9810290517