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नेहा वैद्य के गीत

नेहा वैद्य के गीत

फिर पुराने पृष्ठ पलटे
समय ने चुपचाप उलटे
ले वही पुस्तक वही शब्दावली।
ज़िन्दगी आगे बढ़ी, आगे चली।।

गीत- एक

मत इतना घबराया कर तू,
दुख से आँख मिलाया कर ।
तू इतना व्याकुल पगले!
मुश्किल से टकराया कर ।।

देख जरा जलधारों को
जीवन के हरकारों को
टेढ़े-मेढ़े रस्ते हैं
इनमें ही सुख बसते हैं
जीत रहे बाधाओं को
बच्चों जैसे हँसते हैं

मंजिल गले मिलेगी तुझसे,
शर्त यही, मुस्काया कर ।
दुख से आँख मिलाया कर॥

माना चन्दा दूर अभी
क्यूँ तू थक कर चूर अभी
मुट्ठी-भर जगमग तारे
नभ में डटे हुए सारे अभी,
बना इनको साथी
धीरज धर ओ, मतवारे

छोटी-बड़ी सभी खुशियों का,
परचम बन लहराया कर ।
दुख से आँख मिलाया कर।

सपने कच्चे मोती हैं
आँखें जिन्हें सँजोती हैं
तू भी कुछ सपनों को रख
इन आँखों का तेज परख
आग और पानी जिनमें
ऐसे कुछ आँसू भी चख

चौमासा हो जब आँखों में,
सूरज-सा उग आया कर ।
दुख से आँख मिलाया कर ॥

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गीत- दो

बरखा ही जिसको नहलाती,
जिसके तन को धूप सुखाती।
सुघर, साँवले उस पर्वत पर,
धवल चाँदनी बलि-बलि जाती॥

दूर-दूर चिन्दी से चिपके
सीने में ज्यों माँ के छुपके
कुछ कच्चे, कुछ पक्के-से घर
बतियाते हैं चुपके-चुपके

उनकी भोली-भाली सूरत,
प्रिय गिरिवर का मन बहलाती।
सुघर, साँवले उस पर्वत पर,
धवल चाँदनी बलि-बलि जाती ॥

तल में तरुवर, खेत सुहाने
ढूँढ रहे उत्सवी - बहाने
धानी चूनर ओढ़ मही भी
गाती सुखद मांगलिक गाने

देख-देख यह छटा मनोहर,
स्वयं रीझती, उसे रिझाती ।
सुघर, साँवले उस पर्वत पर,
धवल चाँदनी बलि-बलि जाती॥

नदियाँ उसके पाँव पखारें
युग बीते पर कभी न हारें
गति-मति पा हो रहीं मंगला
जग के सारे काज सँवारें

पग छूकर जिसके हर नदिया,
हर्षित हो-होकर इठलाती ।
सुघर, साँवले उस पर्वत पर,
धवल चाँदनी बलि-बलि जाती॥

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गीत- तीन

फिर पुराने पृष्ठ पलटे
समय ने चुपचाप उलटे
ले वही पुस्तक वही शब्दावली।
ज़िन्दगी आगे बढ़ी, आगे चली।।

पाँव कितने जल रहे थे
किन्तु फिर भी चल रहे थे
और तलवों में फफोले
युग-युगों से पल रहे थे

ज़िन्दगी को तब कहीं ठंडक मिली
नयन जब बनने लगे गंगाजली।
जिन्दगी आगे बढ़ी, आगे चली ॥

बुझ चला था दीप मन का
विलगता - सा द्वीप तन का
आँख मूँदे सो रहा था
सूर्य भी नीले गगन का

प्रेम की नव ज्योति पाकर ज़िन्दगी
जगमगा उट्ठी कि हो दीपावली।
ज़िन्दगी आगे बढ़ी, आगे चली॥

हो अगर बाएँ विधाता
यत्न भी बेकार जाता
किन्तु क्या टूटा कभी यों
आस से सम्बन्ध-नाता

प्रश्न आए सामने जब भी कभी
हल स्वयं होती रही प्रश्नावली।
ज़िन्दगी आगे बढ़ी, आगे चली ॥

मैं कहीं थी, वे कहीं थे
दूर लेकिन हम नहीं थे
और मन में तनिक झाँका
तो लगा दोनों यहीं थे

बन गई हर साँस ही फिर राधिका
और पूरी ज़िन्दगी ब्रज की गली।
ज़िन्दगी आगे बढ़ी, आगे चली ॥

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गीत- चार

साथ दीखता है मेरे ये
पास तुम्हारे रहता है।
चाहे मैं कितना ही रोकूँ
दिल दरिया-सा बहता है।।

कभी-कभी मनमौजी-सा हो,
पुरवा के झोंके जैसा
फूलों के तन-मन को चूमे,
पहले कब ये था ऐसा

खुशबू की बातें करता है,
मुस्कानों की कहता है।
चाहे मैं कितना ही रोकूँ
दिल दरिया-सा बहता है।

खट्टी-मीठी सारी बातें,
प्यार-भरे अफ़सानों को
अपने संग लिए फिरता है,
इन अनमोल खजानों को

कभी याद के तूफ़ानों को
सागर जैसा सहता है।
चाहे मैं कितना ही रोकूँ
दिल दरिया-सा बहता है।

हों कितनी पथरीली राहें,
हो चाहे जैसा मंज़र
दिल की अपनी एक डगर है,
दिल का अपना एक सफर

कभी नहाता है आँसू में,
कभी दर्द में दहता है
चाहे मैं कितना ही रोकूँ
दिल दरिया-सा बहता है।।


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गीत- पाँच

पहले तो आँगन में ठहरा
लिए सखा का भाव रे।
घर-भर में घुसकर अब पानी
देने लगा तनाव रे॥

आँगन, कोठे में यह पानी
लिखकर फिसलन भरी कहानी
कुछ दिन और ठहर जाता तो
हो जाती हर बात बिरानी

फिसलन-भरे फर्श पाँवों को
देते कब ठहराव रे।
घर-भर में घुसकर अब पानी
देने लगा तनाव रे॥

प्रीत अल्पनाएँ भीतों की
मधुर पंक्तियाँ थी गीतों की
बन जातीं वे स्वयं एक दिन
कार्य- शैलियाँ मनमीतों की

अच्छा था, बाहर से ही
लौटातीं सभी घुमाव रे ।
घर-भर में घुसकर अब पानी
देने लगा तनाव रे॥

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रचनाकार परिचय

नेहा वैद्य

ईमेल :

निवास : गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 1 अप्रेल, 1962
जन्म स्थान- गाजियाबाद 
शिक्षा- स्नातकोत्तर  हिंदी एवं अंग्रेजी 
गीत- संग्रह 'चांद अगर तुम रोटी होते' 'एक फूल तब खिला' एवं 'रे मना! चल भोर  हो जाएँ' प्रकाशित 
लेखन विधा- गीत, गजल, दोहे, मुक्तक और कहानी आदि का पत्रिकाओं में  एवं कविसम्मेलनों  में भागीदारी.