Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
डॉ० कृष्णकुमार नाज़ की ग़ज़लों में समाज- डॉ० सीमा विजयवर्गीय

सामाजिक स्थितियों पर तो नाज़ साहब की नज़र बहुत पैनी है। दशा के साथ-साथ दिशाबोध कराना ही नाज़ साहब की ग़ज़लों का प्रमुख लक्ष्य है। आपका ये व्यक्तित्व ही आपको कबीर की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है। साहित्यकार का सबसे बड़ा दायित्व यही है कि वह समाज की समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ समस्या के समाधान की बात भी सोचे।

बच्चों का साहित्य बच्चों तक पहुँचे- चक्रधर शुक्ल 

सिर्फ बातें करने से बच्चों का भला नहीं हो सकता। इधर कई बाल साहित्य के आयोजनों में मुझे जाने का सुअवसर मिला। परिचर्चा,गोष्ठियों में तथाकथित बाल साहित्यकारों ने लच्छेदार वक्तव्य से सभी का मनमोहा पर बात किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँची कि बच्चों का साहित्य (पुस्तकें) बच्चों तक कैसे पहुँचे।

ऋषिपाल धीमान की ग़ज़लों में स्मृतियों की अनुगूँज- के० पी० अनमोल

स्मृतियाँ जल से लकदक बादलों की तरह होती हैं, जो अक्सर मन के मरुथल पर बरस कर उसे तरबतर कर दिया करती हैं। जब ये स्मृतियों के बादल घिरकर छाते हैं तो बारिश से पहले की सुहानी पवन की भांति यादों की फ़िल्म-सी चल पड़ती है ज़ेहन में। इस फ़िल्म में वे तमाम ख़ूबसूरत दृश्य होते हैं, जो समय के प्रवाह में कहीं पीछे छूट गये हैं। धीमान जी की ग़ज़लों में भी ऐसे ही अनेक दृश्य देखे जा सकते हैं।

शिक्षा बनाम परीक्षा- संदीप तोमर

अभी हाल ही में एक अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर ने “दि हिन्दू” अखबार में एक लेख लिखा जिसे मेरे सहित जितने भी शिक्षाविदों, चिंतकों ने पढ़ा होगा उनकी नींद उड़ गयी होगी, ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएँ पहले आँखों के सामने से नहीं गुज़रीं लेकिन चूँकि उक्त घटना एक प्रोफेसर के साथ घटी, चुनांचे ध्यान जाना ज़्यादा अहम् है।