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डॉ० कृष्णकुमार नाज़ की ग़ज़लों में समाज- डॉ० सीमा विजयवर्गीय

डॉ० कृष्णकुमार नाज़ की ग़ज़लों में समाज- डॉ० सीमा विजयवर्गीय

सामाजिक स्थितियों पर तो नाज़ साहब की नज़र बहुत पैनी है। दशा के साथ-साथ दिशाबोध कराना ही नाज़ साहब की ग़ज़लों का प्रमुख लक्ष्य है। आपका ये व्यक्तित्व ही आपको कबीर की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है। साहित्यकार का सबसे बड़ा दायित्व यही है कि वह समाज की समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ समस्या के समाधान की बात भी सोचे।

साहित्य समाज का दर्पण है। सजग साहित्यकार समाज से जितना लेता है, उससे कहीं अधिक लौटा भी देता है इसलिए साहित्यकार का प्रदेय अमूल्य है।
देश के लोकप्रिय उस्ताद शायर डॉ० कृष्णकुमार नाज़ के शेर अपने समय की सामाजिक स्थितियों के दस्तावेज़ हैं, जिन्हें नाज़ साहब ने बहुत ईमानदारी के साथ उकेरा है। आपने न केवल समाज की दशा का चित्रण किया है अपितु समाज को दिशा भी दिखाई है। इस तरह आपके शेरों में समाज का प्रतिबिंब दिखाई देता है। आपने पूरे समय को बाँधा है अपने शेरों में। यही तो एक सजग साहित्यकार की निशानी है। जैसा कि नाज़ साहब कहते हैं कि-

इस दुनिया को ठीक तरह से देखो, समझो, पहचानो
ये मेरे अल्फ़ाज़ नहीं हैं, ये इतिहास बताता है

साहित्यकार का कृतित्व ही नहीं अपितु व्यक्तित्व भी बहुत अनुकरणीय होता है क्योंकि साहित्यकार जीवन के कुछ अविस्मरणीय पन्नों को कितनी ख़ूबसूरती से यादों में सहेजकर, उन पर लेखनी चलाकर उन्हें कालजयी बना लेते हैं, जो सम्पूर्ण समाज के प्रेरक बन जाते हैं। देखिएगा ये उजला शेर-

किताबे-ज़िंदगी पढ़ता हूँ मैं कुछ इस सलीक़े से
जहाँ कुछ याद रखना हो, वो पन्ना मोड़ देता हूँ

सम्पूर्ण समाज के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले एक ज़िम्मेदार व्यक्ति की सोच नाज़ साहब के शब्दों में देखिएगा-

सबको साथ में लेकर चलना, जीवन का उद्देश्य है 'नाज़'
आँसू पोंछो, ख़ुशियाँ बाँटो, लोगों का उपकार करो

समाज का अवलोकन इतनी सूक्ष्म दृष्टि से किया है नाज़ साहब ने कि उनके शेर आज के समय के दस्तावेज़ बन गए हैं। ये शेर-

खींच लाता है समय उस मोड़ पर इंसान को
दाँव पर यूँ ही नहीं रखता कोई ईमान को

देखिएगा वक़्त की फाइल में दर्ज़ ये एक और सच्चा शेर-

ये सच है सीढ़ियाँ शोहरत की चढ़ जाने के बाद इंसाँ
सहारा देने वाले ही को अक्सर भूल जाता है

घर में आए वो नन्हें मेहमान, जो दीवारों पर पेंसिल चलाकर बाद तक भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहते हैं। उन्हीं की कलाकारी को सुपुर्द ये शेर देखिए-

घर आए कुछ मेहमानों का कुछ ऐसा भी बरताव रहा
दीवारों पर आड़ी-तिरछी चंद लकीरें छोड़ गए

परिवार का मुखिया कितनी ज़िम्मेदारी से अपने परिवार को सींचता है। एक भावात्मक लगाव महसूस करता है। देखिएगा ये शेर-

इस बग़ीचे का मैं रखवाला हूँ मालिक तो नहीं
ये बग़ीचा मेरी मेहनत से मगर गुलज़ार है

इंसानी मूल्यों से लबरेज़ ये शेर कितना कुछ सोचने को विवश कर देता है। देखिएगा-

कोई जलता हुआ दिया बुझाना मत
अनगिनत साये साथ चलते हैं

आज के भौतिकतावादी समाज में एक संवेदनशील मन ये सोचने को विवश हो जाता है कि-

ज़ेहन में उलझा हुआ है मुद्दतों से ये सवाल
आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है

आज के भौतिकतावादी युग ने कविता को भी व्यापार बना दिया है। कवियों की मंचों के प्रति बढ़ती लालसा उन्हें क़ीमत तो दिला सकती है पर इज़्ज़त नहीं क्योकि आज के मंच शब्दों की उपासना नहीं, सुरा, सुंदरी की उपासना करते हैं-

बाज़ार में बैठे हो तो इतना समझ लो
क़ीमत तो मिलेगी, कभी इज़्ज़त न मिलेगी

सकारात्मक सोच वाले इंसान किस तरह सबकी ख़ैरियत की कामना करते हैं। देखिएगा ये शेर-

पराए हों कि अपने हों मगर सब ख़ैरियत से हों
दुआ करते हैं हम हर रोज़ जब अख़बार लेते हैं

सम्बन्धों के प्रति ज़िम्मेदार संवेदनशील मन की व्यथा को अभिव्यक्त करता ये शेर देखिए-

तुझी पे उँगली उठाएँगे देखना एक दिन
ज़्यादा इतनी भी रिश्तों की देखभाल न कर

मध्यमवर्गीय परिवार में तनख़्वाह के मूल्य को अभिव्यक्त करता हुआ ये शेर, देखिए-

घर की सबकी अपनी ख़्वाहिश, सबकी अपनी फ़रमाइश
आज हमें तनख़्वाह मिली है हम भी इज़्ज़तदार हुए

शहरी परिवेश से बेहतर ग्रामीण परिवेश है। जहाँ संवेदनाएँ आज भी ज़िंदा हैं। देखिएगा ये शेर-

हमारे गाँव में झगड़े तो छिटपुट होते रहते हैं
मगर हर फ़ैसला चौपाल या दालान करता है

सच ग्रामीण समाज ने किस तरह अपने परिवेश को सुरक्षित रखा। कष्ट पाकर भी भाईचारा सुरक्षित रखा-

कितने भोले थे मेरे गाँव के लोग
धूप में ही पसीना सुखाते रहे

वक़्त, हालात के साथ आज का परिवेश भी बदल रहा है। आज के समाज की यथार्थ स्थिति को बयाँ करता ये शेर देखिएगा-

झूठ है, छल है, कपट है, जंग है, तकरार है
सोचता रहता हूँ अक्सर क्या यही संसार है

मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करता हुआ इंसान आज कहाँ तक आ पहुँचा है। युद्ध, हिंसा, ख़ून ही क्या मनुष्य की मंज़िल है? क्या कभी हम एक-दूसरे पर विश्वास करके मिलजुल कर रह पाएँगे? चिंतनीय बिंदु है। जैसा कि नाज़ साहब कहते हैं-

ढेर पर बारूद के बैठा हुआ इंसान है
अब उसे अपने पराए की कहाँ पहचान है

जब मानवीय मूल्य ही खो जाएँ तो फिर झूठ को सच, सच को झूठ करने में कितना वक़्त लगता है। देखिएगा ये शेर-

आंकड़े दुख-दर्द के जिसमें हों, उस फ़ाइल को देख
झूठ को सच में बदलना किस क़दर आसान है

समाज ही नहीं आज परिवारों में भी इतना बिखराव कि भाई-भाई के दिलों में भी नफ़रत की दीवार खड़ी हो गई है। ऐसे में साथ-साथ रहने का क्या औचित्य? देखिएगा ये शेर-

आपस का टकराव किसी दिन विस्फोटक हो सकता है
साथ नहीं रह सकते हो तो आँगन में दीवार करो

जिस परिवार को पावन मंदिर कहा जाता था, वहाँ भावनाओं का किस क़दर ख़ून हो रहा है। देखिएगा ये शेर-

बेटों ने तो हथिया लिए घर के सभी कमरे
माँ-बाप को टूटा हुआ दालान मिला है

जिस समाज में माँ-बाप, बड़े-बुज़ुर्गों को भगवान की तरह पूजा जाता था, उस समाज में उनकी इस क़दर बेक़दरी, अत्यंत शोचनीय है। देखिएगा ये शेर-

भूल मत तेरी भी औलाद बड़ी होगी कभी
तू बुज़ुर्गों को खरी-खोटी सुनाता क्यों है

जीवन को बेचैन करने के लिए लालसाओं का भी बहुत बड़ा हाथ है। इसलिए उतने ही ख़्वाब पालें जाएँ, जितने पूरे कर सकें। देखिएगा ये शेर-

देखना चैन से सोना न कभी होगा नसीब
ख़्वाब की तू कोई तस्वीर बनाता क्यों है

आज के परिवेश में इंसान करे भी तो क्या करे! वो बुराई से बचे भी तो कैसे? ऐसे में नाज़ साहब दिशाबोध कराते हुए कहते हैं-

जहाँ बुराई की दीमक लगी हुई हो 'नाज़'
तू अहतियात से उन बस्तियों में जाया कर

पता नहीं नई पीढ़ी को क्या हो गया है! बड़ों का सम्मान करना जानती ही नहीं। माता-पिता को भी कुछ नहीं गिनती। एक पिता के दर्द की अभिव्यक्ति करता ये शेर देखें-

सबकी नज़रों में तो अपने घर के मुखिया हैं अब भी
लेकिन बच्चों की नज़रों में हम बासी अख़बार हुए

समर्पण के अभाव में जहाँ अहम, ज़िद जैसी नकारात्मकता हावी हो जाती हैं, वहाँ फिर रिश्ते तो प्रभावित होते ही हैं। कितना जीवन्त चित्रण करता ये शेर-

बिखरते-टूटते रिश्तों के बारे में ज़रा सोचो
तुम्हारी ज़िद न जाने कैसे-कैसे गुल खिलाती है

अपने ख़ून से सींचे रिश्तों में भी जब तक़रार आ जाए तो ऐसा लगता है कि सबकुछ लुट गया हो। जैसा कि नाज़ साहब कहतें हैं-

जिन रिश्तों को दुलराने में हमने उम्र चुका दी 'नाज़'
आज उन्हीं रिश्तों के आगे हम बेबस-लाचार हुए

ये हम कौनसी सदी में जी रहे हैं! विकास के नाम पर, जिस समाज के लोग अगर मुस्कुराना ही भूल जाएँ तो उस समाज को विकसित समाज कहेंगे या आदिम जंगली समाज! समाज की यथार्थ स्थिति का चित्रण करता ये शेर, देखिएगा-

सर पे मंँडराता है जाने कैसा संकट इन दिनों
छीन ली जिसने लबों से मुस्कुराहट इन दिनों

जब बच्चे कमाने शहर की ओर जाते हैं और शहर के ही होकर रह जाते हैं तब गाँव में रहने वाले बूढ़े माँ-बाप की कौन सुने। देखिएगा ये शेर-

शहर से अब गाँव की आबो-हवा में लौट आ
बूढ़ी माँ ने बस लगा रक्खी है ये रट इन दिनों

आज के सामाजिक परिवेश में कृतघ्नता इतनी हावी हो चुकी है कि कृतज्ञता का मूल्य हम समझ ही नहीं पाते। नाज़ साहब सामाजिक परिस्थितियों का अवलोकन कितनी बारीक़ी से करते हैं। देखिएगा ये शेर-

बहुत मुश्किल है 'नाज़' अहसान का बदला चुका पाना
दिये को ख़ुद धुआँ उसका अकेला छोड़ जाता है

और मानव-मन को पढ़ता हुआ कितना जीवन्त गढ़ दिया है नाज़ साहब ने, जिसे देखकर लगता है कि किसी मनोवैज्ञानिक ने भावों का कितना सटीक चित्रण किया है। देखिएगा ये शेर-

गुनाहगार का चेहरा पढ़ा है जब भी 'नाज़'
गुनाह देखा है अक्सर लिखा हुआ मैंने

आज के समाज में क्या इंसानी मूल्य सुरक्षित हैं? क्या इंसान सुरक्षित है? इसका ज़वाब सुबह हमें ख़ून से सने हज़ारों कत्ल की घटनाओं से भरे अख़बार दे देते हैं। यही सच्चाई है, देखिएगा ये शेर-

कल गिनी थीं हमने घटनाएँ हज़ारों क़त्ल की
हो रहा है सुर्ख़ पन्ना आज भी अख़बार का

क्या कोई अख़बार ऐसा होगा जिसमें लिखा हो कि सभी लोग सलामत हैं। सम्भव ही नहीं। ऐसे में नाज़ साहब कहते हैं-

जिसमें ये लिखा हो कि सलामत हैं सभी लोग
अख़बार में हम ऐसी ख़बर ढूँढ रहे हैं

और कोरोना काल ने तो सबको हिलाकर रख दिया। एक साथ हज़ारों-हज़ारों लाशें जल रही थी। मौत कब किसके सामने आकर खड़ी हो जाए कुछ पता नहीं, इतना डर भरा माहौल था। इस सदी का सबसे मनहूस वक़्त, जिसे शायर ने कितना जीवन्त कर दिया है। देखिएगा आज भी मन को कम्पायमान करता ये शेर देखिएगा-

इतना धुआँ कि साँस भी लेना हुआ मुहाल
ऐसे सुलग रही हैं कुछ इस बार लकड़ियाँ

और कभी जब संकीर्ण धार्मिकता सामने आती है तो समाज का माहौल कितना डरावना बन जाता है, देखिएगा ये शेर-

बस गया हो ज़हन में जैसे कोई डर आजकल
सब इकट्ठा कर रहे हैं छत पे पत्थर आजकल

ऐसी घटनाएँ समाज को क्या सन्देश देती हैं। नफ़रतों के बीच क्या भाईचारा पैदा हो सकता है, कदापि नहीं। समाज की सच्चाई को बयां करता ये शेर देखिएगा-

उग रही हैं सिर्फ़ नफ़रत की कटीली झाड़ियाँ
भाईचारे की ज़मीं कितनी है बंजर आजकल

पहले समाज में भाईचारा था, प्यार था, अपनापन था पर आज बस एक-दूसरे को नीचा दिखाकर ख़ुश होने की प्रवृत्ति हमें कहाँ ले जाएगी, समझ ही नहीं आता। नाज़ साहब ने समाज की वस्तुस्थिति को कितनी सच्चाई के साथ उकेर कर रख दिया है। देखिएगा ये शेर-

आज़माते रहते हैं सब अपनी-अपनी ताक़तें
चाहे वो इंसाँ हो कोई, चाहे कोई ज़लज़ला

जिस समाज में इतनी नकारात्मकता हो तो उस समाज में ख़ुश कैसे रहा जा सकता है! देखिए समाज की स्थिति को उजागर करता हुआ ये सच्चा शेर-

होठों पे है हँसी की लिपिस्टिक सजी हुई
आँखों से फिर भी झाँक रही हैं उदासियाँ

आज के समाज में दोहरापन इतना हावी है कि पता ही नहीं चलता कि कौन कैसा आदमी है। चेहरा कुछ बोलता है व्यवहार कुछ। फिर कैसे जान पाए आख़िर इंसानी फ़ितरत को? समाज को बारीक़ी से देखने वाले नाज़ साहब के जहन में इस तरह के प्रश्न आना स्वाभाविक है। देखिएगा ये शेर-

चेहरों पे जिनके 'नाज़' लिखा है मोहब्बतें
ज़ेहनों पे हैं निशान उन्हीं के सवालिया

ऐसे में सम्बन्ध कितने निभें, कितने सधें कुछ नहीं कहा जा सकता। देखिएगा ये शेर-

रोज़ चिताएँ जलती हैं सम्बन्धों की
रोज़ पुराना ज़ख्म हरा हो जाता है

समाज के हर बिंदु पर नज़र रखते हैं नाज़ साहब। चौराहे पर खड़े वो मज़दूर, जिन्हें जब पूरे दिन काम नहीं मिलता है तब शाम को वो किस तरह मुँह लटकाए उदास मन से, घर की और प्रस्थान करते हैं। सुंदर गतिबिम्ब के माद्यम से नाज़ साहब विषय को इस तरह रखते हैं कि पाठक के मन में वह ज्यों का त्यों चित्र उभर आता है। देखिएगा ये शेर-

शाम ढले घर लौट रहे हैं ख़ुद से ही उकताए लोग
अपनी नाकामी की गठरी कंधों पर लटकाए लोग

इसी तरह मनुष्य के जीवन में सुख और दुख दोनों आते हैं पर मनुष्य दुख को सीने से चिपकाए, सदा याद करके दुखी होते रहते हैं-

यादों के गुलशन में यूँ तो रंग-बिरंगे फूल भी हैं
लेकिन फिरते हैं काँटों को सीने से चिपकाए लोग

महानगरीय जीवन की बोझिल परिवेश का वर्णन नाज़ साहब अपने कितने विशिष्ट अंदाज़ में करते हैं-

महानगर है ये, सब कुछ यहाँ पे मुमकिन है
यहाँ बुढ़ापे-सी लगती है नौजवानी भी

बंदिश से युक्त परिवेश में व्यक्ति कितना भी विवशता से रहे पर एक दिन वह वहाँ से निकलने की ही सोचेगा। ये शेर-

जिनके चारों तरफ दीवारें हैं
उन मकानों में कौन रह पाया है

शहरी जीवन आज कितना असुरक्षित हो गया है, लोग खिड़की दरवाजों को भी किस क़दर बंद करके घर के अंदर घुटे-घुटे से रहने लगे हैं, देखिएगा ये शेर-

अब किसी घर में न खिड़की है, न रोशनदान है
देखिए कितना डरा-सहमा हुआ इंसान है

ख़ुद में झाँककर ही हम दूसरों को बेहतर समझ पाएँगे। नाज़ साहब कहते हैं-

दरपन जब अपने चेहरे ही साफ़ नही ख़ुद कर सकते
तो कैसे औरों के चेहरे ज्यों के त्यों दिखलाएँगे

इस तरह आज के समाज में कौन अच्छा, कौन बुरा है कहना मुश्किल है। देखिएगा ये शेर-

कौन अच्छा या बुरा है, कौन छोटा या बड़ा
छोड़िए ये बहस, सबकी शख़्सियत अपनी जगह

इस तरह आज के समाज में लोग अपने में इस क़दर डूबे हैं कि किसी को किसी की परवाह नहीं, न ही कोई किसी की मदद ही करता है। देखिएगा ये शेर-

अपनी ख़ुदग़र्ज़ियों में हैं मशरूफ़ सब
राह कोई किसी को सुझाता नहीं

आज के हालात का कितना सच्चा चित्रण, पता ही नहीं चलता अपनों की शक्ल में कौन अपना है कौन पराया। ये शेर देखिएगा-

कितना मुश्किल है चेहरों से पहचानना
राहज़न कौन है, रहनुमा कौन है

इसी तरह ये शेर देखिए-

चेहरे छुपा के लोग मुखौटों में आजकल
कैसे बदल रहे हैं मुक़द्दर, तुम्हीं बताओ

आज की हक़ीक़त पर तंज कसता हुआ ये शेर देखिएगा-

एक-दूसरे पे करने लगेंगे यक़ीन हम
आएगा क्या वो वक़्त पलटकर, तुम्हीं बताओ

आज की तो स्थिति है ये, जहाँ व्यक्ति भीड़ में भी तनहा खड़ा है-

ख़ुद में सिमट के रह गई है सारी क़ायनात
रखता है कौन किसकी ख़बर बात कीजिए

अपना कहने वाले कब धोखा दे जाएँ कुछ पता नहीं-

जो फूलों से मुहब्बत कर रहे हैं
वो ख़ुशबू से तिजारत कर रहे हैं

पर अगर ये ही हालात चलते रहे तो इसका परिणाम क्या होगा! क्या हमारी सहिष्णुता से परिपूर्ण संस्कृति सुरक्षित रह पाएगी? कदापि नहीं। देखिएगा ये शेर-

न समझी हैं, न समझेंगी कभी भटकी हुई लपटें
लगेगी आग बस्ती में तो फिर अंजाम क्या होगा

ये कौनसी दुनिया में आ गए हैं हम, जहाँ इंसान इतना ज़हरीला, धोखेबाज़ हो गया है। जैसा कि नाज़ साहब कहते हैं-

इन आस्तीन के साँपों से बच के रहिएगा
है इनका काम ही डसना किसी को अपनाकर

सत्य, अहिंसा, प्रेम हमारी संस्कृति के मूल रहे हैं पर आज इनका कुछ मूल्य रह गया है? संशयमय स्थिति है। देखिएगा ये शेर-

दो और दो को पाँच बताने लगे हैं लोग
सच बोलने का जैसे ज़माना नहीं रहा

सारे ऐब मनुष्य अपनाकर आज के वक़्त को धन्य कर रहा है। देखिएगा ये शेर-

कहीं तबाह न कर दे नशे की लत उसको
वो मैंने देखा है दिन में भी लड़खड़ाते हुए

भावनाशून्य आचरण क्या संबंधों को सुरक्षित रख सकता है? चिंतनीय विषय है। देखिएगा ये शेर-

स्वयं है जिसका गणित जैसा आचरण मित्रो
वो कर रहा है मुहब्बत का अनुसरण मित्रो

ऐसे हालात में एक सच्चा इंसान कितना पिसकर रह जाता है। ये शेर-

ख़ुदा करे कि उन्हें मुझपे ऐतबार आए
बिखरते-टूटते रिश्तों में कुछ निखार आए

स्वार्थ की दुनिया में आज दोस्ती के मायने भी बदल गए हैं। यथा-

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है

आज के इस संवेदनहीन परिवेश में तो दोस्त बनाना भी गुनाह है। आज के परिवेश का आईना दिखाता हुआ ये शेर देखिएगा-

फिर एक दोस्त बनाया है आपने
फिर एक और आपने दुश्मन बना लिया

पर ये भी सच है हम जैसा करेंगे फल वैसा ही पाएँगे। यथा ये शेर-

जो जैसा करता है, फल भोगता है
बुज़ुर्गों को यही कहते सुना है

अपनेपन के रिश्ते में भी इतना परायापन। आख़िर इंसान भरोसा करे तो किस पर-

भरोसा तुझपे करूँ भी तो किस तरह ऐ दोस्त
तू बात-बात पे अहसान जो गिनाता है

पर सच तो यही है सकारात्मकता-नकारात्मकता का स्तर हर व्यक्ति में अलग-अलग होता है। कोई सकारात्मकता में भी नकारात्मक ता ढूँढता है तो कोई नकारात्मकता में भी सकारात्मकता। देखिएगा कितनी ख़ूबसूरती से नाज़ साहब अपनी बात रखते हैं-

कोई नक्शे के टुकड़े-टुकड़े कर देता है और कोई
उन्हीं टुकड़ों को फिर से जोड़कर नक़्शा बनाता है

पर जो इतनी विषम परिस्थितियों से भी हिम्मत नहीं हारता, वो अवश्य अपने जीवन में आगे बढ़ता है। देखिएगा ये शेर-

वो जिसका ताज काँटों से जड़ा है
ज़माना उसके क़दमों में पड़ा है

इस स्वार्थमयी दुनिया का लहज़ा कब कैसे बदलता है, देखिएगा ये शेर-

बताती है तेरे लहजे की नरमी
तुझे कुछ काम मुझसे आ पड़ा है

पर ये भी सच है कि कोमल और संवेदनशील व्यक्तित्व ही जीवन का आनंद ले पाते हैं। कठोर व्यक्त्वि नहीं। कितने अनुपम अंदाज़ से नाज़ साहब अपनी बात रखते हैं। देखिएगा ये शेर-

खाइयाँ लेती हैं बरसात के पानी का मज़ा
ये हुनर ख़ुश्क पहाड़ों को कहाँ आता है

कैसा युग है, जिसमें जीने का लक्ष्य ही समझ नहीं आ रहा तो फिर हमारी मंज़िल क्या होगी? ये शेर देखिएगा-

ढूँढता फिरता है इंसाँ आज ख़ुद अपना वजूद
आरज़ूओं की कुछ इतनी तेज़तर रफ़्तार है

बंद कमरे में घुटी, अनुभवहीन सँस्कृति क्या मौसमों का हाल बता पाएगी? सोचने का विषय है। देखिएगा ये शेर-

वो बंद कमरे का फूल है यारों
वो मौसमों का भला हाल क्या बताएगा

ऐसे में नाज़ साहब यही कहते हैं-

जान ले लेगी किसी दिन बंद कमरे की घुटन
खोल दो खिड़की को, दरवाज़े को, रोशनदान को

आज की स्वार्थमयी संस्कृति देखिए, जो संरक्षक का भी भक्षण करने से नहीं चूकती। ऐसे में किसका विश्वास किया जाए! अन्योक्ति के माध्यम से नाज़ साहब अपनी बात रखते हैं-

जो पेड़ सबको कड़ी धूप से बचाता है
वो सर्दियों में अलावों के काम आता है

शहरी संस्कृति के प्रभाव में आज गाँव कैसे उजड़ते जा रहे हैं, देखिगा ये शेर-

उजड़ते जा रहे हैं खेत और खलिहान गाँवों में
मगर शहरों की क़िस्मत आज भी वैसी की वैसी है

अब तो एक-दूसरे की उन्नति देखकर भी लोग ख़ुश नहीं हो पाते हैं। ये शेर-

जब भी कोई नन्हा पौधा सूरज से बतियाता है
जाने क्यों बूढ़े बरगद की आँखों में चुभ जाता है

इस समाज में कोई किसी का नहीं, कोई भरोसे के लायक नहीं। देखिएगा ये शेर-

गिरा देंगी तुझे ये ही किसी दिन
तू जिन बैसाखियों पर चल रहा है

आज अधकचरे लोग थोड़ा-सा भी आगे बढ़ जाएँ तो सबके सिर पर फिर नाचने लगते हैं। बस अपने अलावा किसी को गिनते ही नहीं। देखिएगा ये शेर-

सिरफिरी आँधी का थोड़ा-सा सहारा क्या मिला
धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया

ऐसे हालात में एक सच्चे इंसान की क्या स्थिति होगी यही न! देखिएगा ये शेर-

अपनी आँख गवाँ चुका हूँ मैं
रोशनी से डरा हुआ हूँ मैं

ऐसे हालात को संँभालना फिर कैसे संभव हो पाएगा! देखिएगा ये शेर-

सबको साथ में लेकर चलना कितना मुश्किल है ऐ 'नाज़'
एक क़दम आगे रखता हूँ, इक पीछे रह जाता है

सच तो यही है आज समर्पित व्यक्तित्व का किस क़दर हश्र होता नज़र आ रहा है, देखिएगा ये शेर-

जिसने मंज़िल पर पहुँचकर खो दिया अपना वजूद
पढ़ रहा हूँ आजकल मैं उस नदी की ज़िंदगी

परोपकारी व्यक्ति को कष्ट के अलावा कुछ भी नहीं मिलता। ये शेर कैसे सच्चाई बयाँ कर रहा है देखिएगा-

जिस शख़्स ने लुटाए थे कल रोशनी के फूल
उसको चिराग़ आज मयस्सर कोई नहीं

एक और नाज़ साहब समाज के सभी पक्षों पर गहरी नज़र रखते हैं। समाज की कोई भी समस्या उनसे अछूती नहीं रहती। वो समस्याओं पर गहन चिंतन करते हैं, साथ ही समाधान की और भी सबका ध्यान आकर्षित करते हैं, जैसा कि नाज़ साहब कहते हैं-

हिंसा, लूट, डकैती, चोरी, बेईमानी और कपट
ये सामाजिक रोग हैं इनका हरसंभव उपचार करो

इस तरह सामाजिक स्थितियों पर तो नाज़ साहब की नज़र बहुत पैनी है। दशा के साथ-साथ दिशाबोध कराना ही नाज़ साहब की ग़ज़लों का प्रमुख लक्ष्य है। आपका ये व्यक्तित्व ही आपको कबीर की श्रेणी में ला खड़ा कर देता है। साहित्यकार का सबसे बड़ा दायित्व यही है कि वह समाज की समस्या पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ समस्या के समाधान की बात भी सोचे। यही विशेषता नाज़ साहब को शायरी को अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देती है तथा पूरा देश उनके समक्ष नतमस्तक हो जाता है। इसतरह समाज को दिशाबोध कराता हुआ आपके इस स्वर्णिम शेर से इस बिंदु को विराम देना चाहूँगी-

जो ज़रूरी हैं उन्हें कल पे न टाला जाए
हल सवालों का कुछ इस तरह निकाला जाए

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रचनाकार परिचय

सीमा विजयवर्गीय

ईमेल : seemavijay000@gimail.com

निवास : अलवर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 3 नवम्बर
जन्मस्थान- अलवर( राजस्थान)
लेखन विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, दोहा, गद्य आदि
शिक्षा- एम० ए०, बी० एड एवं पी-एच डी
सम्प्रति- हिंदी व्याख्याता
प्रकाशन- चार ग़ज़ल संग्रह 'ले चल अब उस पर कबीरा', 'रज़ा भी उसी की', 'तेरी ख़ुशबू मेरे अंदर' एवं 'बुद्ध होना चाहती हूँ' प्रकाशित
प्रसारण- दूरदर्शन एवं रेडियो पर ग़ज़लों का प्रसारण
पता- 2/84, स्कीम- 10 बी, अलवर (राजस्थान)
मोबाइल- 7073713013