Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
हिंदी कथा साहित्य : पारंपरिक पीठ आधुनिक ‘गुल गपाड़ा’- डॉ॰ सुनीता

साहित्य में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं अस्तित्वगत नैरेशन में मोहन राकेश और कमलेश्वर सहज याद आते हैं। रचनात्मक पात्रों के द्वारा आंतरिक- वाह्य जीवन के नैतिक दुविधाएँ प्रत्यक्ष हैं। समकालीन हिंदी साहित्य में राजनीतिक, सामाजिक भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक गतिविधियों की आलोचना हुई है। हरिशंकर परसाई और मनोहर श्याम जोशी प्रमाण हैं। अगर ये दोनों वर्तमान में होते तो समाज और मशीनी राजनीति को बेखौफ़ बखूबी दर्ज करते।

कहानी के बाहर नहीं होता शिल्प- प्रियदर्शन

तो ध्यान रखने की बातें यही दो हैं। कहानी ऐसी कसी हुई हो, ऐसी निर्विकल्पता, निरुपायता की ओर ले जाती हो कि लगे कि इसके अलावा नायक या लेखक के पास कोई चारा ही नहीं था। फिर उसमें दुख-सुख से ज्यादा वह विडंबना बोध हो, जिसमें हमारा आधुनिक समय सबसे ज़्यादा परिलक्षित-प्रतिबिंबित होता है।

जीवन के विविध पहलुओं पर गंभीरता से बात करती हैं ओमप्रकाश यती की ग़ज़लें- के० पी० अनमोल

वर्तमान परिदृश्य का अंकन अथवा अपने समकाल की यथार्थपरक अभिव्यक्ति हिंदी कविता की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति रही है। हिंदी कविता के हर दौर में तत्कालीन परिस्थितियाँ एवं सन्दर्भ लगातार दर्ज किये जाते रहे हैं। समाज, उसका परिवेश, उसकी समस्याएँ, उसकी चिंताएँ, उसकी चुनौतियाँ आदि निरंतर कविता ने अपने केंद्र में रखे हैं। यही स्वभाव हिंदी ग़ज़ल का भी है।

राम सुकृपा बिलोकहिं जेही- गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू'

'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥'