Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

विकलांग विमर्श को नए आयाम देता उपन्यास : एक अपाहिज की डायरी- सरिता खोवाला

विकलांग विमर्श को नए आयाम देता उपन्यास : एक अपाहिज की डायरी- सरिता खोवाला

कथा-नायक सुदीप पोलियो ग्रस्त है। पोलियो ग्रस्त बच्चे का जीवन बहुत ही कष्टकारी होता है। बच्चा क्या, किसी भी अपाहिज व्यक्ति के लिए जीवन जीना आसान नहीं होता। कहानी के नायक सुदीप ने परिवार के सहयोग और अपने आत्मबल पर ख़ुद को काबिल बनाया।

लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है- "इस गाथा में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन की वो कड़वी दास्तान है, जिसे लिखते हुए मैंने उस साहसिक व्यक्ति का पूरा जीवन ख़ुद जीने जैसा अहसास पाया। यह सब लिखना एक जोखिम के मानिंद था मेरे लिए। इस सम्पूर्ण गाथा को लिखते हुए मैंने बहुत ईमानदारी बरतने की कोशिश की है।"

वास्तव में ऐसा ही जोखिम उठाया है कथाकार संदीप तोमर ने अपने उपन्यास एक अपाहिज की डायरी में। इस तरह की दस्तावेजी कृतियों को लिखने में जहाँ अधिक साहस से काम लेना होता है, वहीं इसमें जोखिम भी बहुत हैं। ख़ुद को उघाड़ना कहाँ इतना आसान है! ख़ुद को गांधी (सत्य के प्रयोग) बन पाठकों के सम्मुख खड़ा होना निश्चित ही एक बड़ा कार्य है। कहना न होगा कि विकलांग विमर्श पर लिखा यह उपन्यास 'विटामिन ज़िंदगी' और 'व्हीलचेयर' से आगे और उनसे कहीं अधिक संवेदना का उपन्यास है।

लेखक जब जिंदगी के पन्ने हुबहू लिख रहा होता है, चाहे वह आत्मकथा हो या फिर डायरी, उतना आसान नहीं है उन्हें शब्दों में समेटना, जितना आसान समझ लिया जाता है। यह बहुत ही साहस और जोखिम भरा रास्ता है, जहाँ लेखक को यह भी तय करना मुश्किल होता है कि जीवन के किन पलों को लिखा जाए और किन पलों को ढँका जाए। ऐसे समय में दुनिया के समक्ष अपने सच को स्वीकारना बड़े साहस का काम है, जब लोग कई-कई मुखौटे लगाकर घूम रहे हो, ऐसे दिखावटी समय में लोगों के समक्ष अपने अतीत के पन्नों को उधेड़ने का जोखिम लेखक क्यों उठाता है, यही सब है इस डायरी में।

मैं जब इस डायरी के नायक से मिली, जो कि एक छोटा बच्चा है, बस उसके किरदार के साथ जीती चली गई। लोग ऐसे पात्रों के साथ अक्सर सहानूभूति दिखाते हैं लेकिन यहाँ तो बार-बार उसके साहस की दाद देने का मन होता है। ऐसा लगता है मानो उस किरदार के साथ हम वहीं मौजूद हैं।

कथा-नायक सुदीप पोलियो ग्रस्त है। पोलियो ग्रस्त बच्चे का जीवन बहुत ही कष्टकारी होता है। बच्चा क्या, किसी भी अपाहिज व्यक्ति के लिए जीवन जीना आसान नहीं होता। कहानी के नायक सुदीप ने परिवार के सहयोग और अपने आत्मबल पर ख़ुद को काबिल बनाया।

जिनका संपर्क किसी भी दिव्यांग (अपाहिज) से किसी भी रूप में हो, वह कथा-नायक का दर्द बहुत आसानी से समझ सकता है। जहाँ पैरों पर चलना किसी के लिए भी आम बात होती है वहीँ सुदीप, जो कि कथा-नायक है, वह कहता है- महीने से भी ज़्यादा लगा, सैंडल पहनकर चलने की आदत पड़ने में। ये बात किसी के लिए मामूली हो सकती है लेकिन मेरे लिए ये किसी पहाड़ चढ़ने से कम न थी। (पृष्ठ- 41) वहीं पन्ने दर पन्ने अपनी ख़ुशी, अपनी व्यथा को बताता सुदीप तब भी नहीं टूटता है, जब उसे लंगडे जैसे कटाक्ष भरे शब्दों का सामना करना पड़ता है वरन् सारी विपरीत परिस्थितियों के बीच बच्चा सुदीप जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, एक नायक के रूप में उभरकर आता है, जो हर ठोकर पर लड़खड़ाता ज़रूर है परन्तु और साहस, मजबूती के साथ खड़ा होकर समाज और ईश्वर को कहता है कि तुम मुझे अपाहिज कह सकते हो, मैं शरीर से अपाहिज हो सकता हूँ, जिसमें मेरा दोष भी नहीं लेकिन मैं मन से तुम्हारी तरह अपाहिज नहीं।

सुदीप की उम्र भी बाकी बच्चों की तरह ही बढती जाती है लेकिन ज्यादा संघर्ष झेलते हुए। उसकी ज़िंदगी में भी प्यार आता है, जो उसकी विकलांगता के कारण उसके साथ समय बिताना पसंद करता है लेकिन उसे अपनाने से इंकार करता है। कह सकते हैं कि सुदीप के जीवन में कई लड़कियाँ आईं। नायक को उनसे प्रेम भी हुआ लेकिन कोई भी कहानी ज़्यादा दूर तक नहीं चली, जिसका एक बड़ा कारण उसकी विकलांगता रही। सुदीप ने जीवन में जो भी सामाजिक कुरीतियाँ देखीं, उनसे शिक्षा ग्रहण की और अपने जीवन में कुरीतियों का विरोध भी किया। ऐसी ही परिस्थितियाँ नायक को नास्तिकता की और ले जाती हैं।

सुदीप बहुत संवेदनशील व्यक्ति है लेकिन उससे भी कहीं अधिक उसके अपने संघर्ष हैं। समाज से संघर्ष, परिवार से संघर्ष, शिक्षा और रोज़गार से संघर्ष और उसके साथ-साथ अपने स्वयं के साथ संघर्ष। अपने अपाहिज होने का दुख तो सबको होता है लेकिन जब कोई बार-बार उसे अपाहिज होना याद दिलाता है तो व्यक्ति अंदर से टूटता ही है। लेकिन कभी-कभी ये टूटन; व्यक्ति को और मज़बूत बनाती है। सुदीप के साथ भी बार-बार यही हुआ।

गाँव से दिल्ली जैसे महानगर का सफर तय करता ज़िंदगी के उतार-चढ़ावों के बीच एक दिन हमारा नायक अपना घर बसा लेता है। पुरानी यादों को अपनी डायरी में समेट; पाठकों के बीच उपस्थित होता है, यही है नायक का प्रारब्ध और शायद लेखक का भी।

जिंदगी की असलियत को बखूबी लिखा है संदीप तोमर ने, साहित्यिक दृष्टि से ये कितनी खरी है इसका आकलन करना आलोचकों का काम है लेकिन मुझे लगता है इस डायरी को सबको पढ़ना चाहिए ताकि विकलांग व्यक्तियों के लिए समाज ने जो दृष्टिकोण तय कर रखा है, एक अपाहिज को उसका भुगतान कैसे करना पड़ता है, उससे लोग रूबरू हों पाएँ और अपनी मानसिक विकलांगता से बाहर आएँ।

कहा जा सकता है कि लेखक सुदीप के माध्यम से विकलांग-विमर्श की पुरजोर वकालत करता है। देखना ये होगा कि इस विमर्श को आलोचक-समीक्षक किस रूप में लेते/समझते हैं। हाँ, एक बात अवश्य है कि एक विकलांग व्यक्ति के पीड़ित मन को अच्छे से प्रस्तुत करते हुए कथा में सुदीप के जीवन संघर्ष के समय के भावनात्मक पक्ष को भी लेखक ने तवज्जो दी है, उसके संघर्ष के विभिन्न पक्षों से पाठकों को रूबरू कराया है।

उपन्यास शुरू से अंत तक रोचकता बनाए रखता है। यही इस उपन्यासकार की विशेषता भी है कि वह बढ़िया किस्सागोई पैदा करता चलता है और पाठक एक बार पढ़ना शुरू करता है तो पूरा पढे बिना किताब रखने का मन नहीं करता। उपन्यास के कथाक्रम में निरंतरता ही पाठकों को बाँधे रखती है। यदि कथा में ठहराव नहीं आता तो पाठक और लेखक के बीच एक अंजाना-सा रिश्ता कायम हो जाता है। संदीप तोमर इस रिश्ते को कायम करने में सफल साबित हुए हैं। कथोपकथन में भी स्वाभाविकता है। भाषा-शैली की बात की जाए तो कहना होगा कि भाषा सरल, सुबोध और सुगम्य है, शैली में प्रवाह है।

साहित्य-जगत में विकलांग पात्रों के दृष्टिकोण से लिखे गए उपन्यासों में संदीप तोमर का पहला उपन्यास है, जिसमें आत्मकथ्यात्मक शैली को अपनाया गया है। एक और बात जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह कि अब तक विकलांग पात्रों को केंद्र में रखकर कोई उपन्यास नहीं लिखा गया। कहीं विकलांग पात्र हैं भी जैसे कि प्रेमचन्द का उपन्यास रंगभूमि (पात्र सूरदास) तथा श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी (पात्र- लंगड़) कुछ दस्तावेजी रचनाएँ हैं लेकिन इन सब रचनाओं में विकलांग पात्रों का चित्रण करते समय रचनाकार अति का शिकार हुए हैं। वे या तो नायक को सहानुभूति का पात्र बनाकर पेश करते हैं या फिर नकारात्मक पात्र लेकिन इस उपन्यास लेखक की यह विशेषता रही कि यहाँ पात्र अपने सहज स्वरूप में है। लेखक के इस उपन्यास का साहित्य जगत में स्वागत किया जाना चाहिए।

‘एक अपाहिज की डायरी’ पुस्तक पढ़ने से पहले पाठक के मन में ख़याल आ जाता है कि संदीप ने उपन्यास का नाम ऐसा क्यों रखा? इसक खुलासा स्वयं लेखक ने भूमिका में किया है, वे लिखते हैं- "कुछ लोगों को शीर्षक से आपत्ति हो सकती है लेकिन वास्तव में शारीरिक विकलांगता के चलते जो कष्ट जीवन भर मेरे नायक को मिले, उन्हें सोचता हूँ तो इससे उपयुक्त शीर्षक नहीं पाता हूँ।" शायद लेखक इस उपन्यास के माध्यम से पाठको के मन में अपाहिज लोगों के लिए संवेदना जगाना चाहते हैं।

संदीप तोमर को इस पुस्तक के लिए बहुत-बहुत बधाई। उनकी कलम यूँ ही निरंतर चलती रहे।

 

 


समीक्ष्य पुस्तक- एक अपाहिज की डायरी
विधा- उपन्यास
लेखक- संदीप तोमर
प्रकाशक- श्रीसाहित्य प्रकाशन, शाहदरा (दिल्ली)
संस्करण- प्रथम, 2023
मूल्य- 300 रुपये

2 Total Review
S

Subhash Neerav

05 February 2025

बहुत बेहतर ढंग से लिखी गई समीक्षा। सन्दीप को बहुत बधाई 🌹

संदीप तोमर

10 January 2025

अरे वाह! लेखक और संपादक मंडल दोनों का आभार।

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

सरिता खोवाला

ईमेल : saritakhowala2@gmail.com

निवास : सिमडेगा (झारखण्ड)

जन्मस्थान- सिमडेगा (झारखण्ड)
जन्म वर्ष- 1972
शिक्षा- बी० एस० सी० (ऑनर्स)
संप्रति- स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित
मोबाइल- 8910052301