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बेबाक, बेलौस, बेजोड़, बेख़ौफ़, बेपरवाह हैं : बदमाश औरतें- संदीप मिश्र 'सरस'

बेबाक, बेलौस, बेजोड़, बेख़ौफ़, बेपरवाह हैं : बदमाश औरतें- संदीप मिश्र 'सरस'

समीक्ष्य पुस्तक- बदमाश औरतें
विधा- नज़्म
रचनाकार- हरकीरत हीर
प्रकाशन- अयन प्रकाशन

बेबाक, बेलौस, बेजोड़, बेख़ौफ़, बेपरवाह हैं साहित्यकार हरकीरत हीर के नज़्म संग्रह की बदमाश औरतें। आप पृष्ठ दर पलटते जाते हैं और उनकी संवेदना के उत्स के व्यापक संस्पर्श को महसूसते जाते हैं। और अंततः असहमत होकर घोषित कर देते हैं कि ये बदमाश औरते नहीं हैं। ये दुनिया की सबसे सच्ची औरते हैं। वर्जनाएँ तोड़कर व्यवस्था की विद्रूपताओं पर करारा प्रहार करती हैं ये मुँहफट बदमाश औरतें।

हरकीरत हीर के नज़्म संग्रह की बदमाश औरतें खुद नहीं लिखतीं कविता, ख़ुद हो जाती हैं कविताएँ। टूटी उम्मीदें लहूलुहान होकर जब हो जाती हैं ख़ामोश, बांझ हुए शब्द अपनी ही गूंगी परछाइयों का खटखटाते हैं द्वार। जब हवा में उड़ा दिए जाते हैं जज़्बात तब बदमाश औरतें ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाती हैं कविता।

'बदमाश औरतें' नज़्म संग्रह कुल साठ नज़्में अपने मौजूदा सिस्टम और सिस्टम से जुड़ी विसंगतियों का पूरा दस्तावेज है, शब्द-शब्द संजीदगी से सीधा संवाद स्थापित करता है। नज़्मों की बदमाश औरतें असहज रवायतों को आईना दिखाती हैं तो उनके तेवर बेहद तंजीले हो जाते हैं। अपनी तरफ उठी हर उंगली पर सवाल ठोंकने का हौसला रखती हैं ये बदमाश औरतें।

संग्रह की पहली नज़्म ही जीवन की जिजीविषा पीड़ा के तमाम कपड़े उतारकर मुस्कुराकर कहती है, अभी और इम्तहां बाक़ी हैं। बदमाश औरतें गुलाबों के नाम ख़त बाँटती हैं। कई बार चाहती हैं कि ख़ामोशी की छाती पर उगा दें अक्षर मुहब्बतों के, चुप की रस्सियाँ खोल दें और टांक दे ख़यालों में फिर से मुहब्बत के गुलाब।

यक़ीनन यह बदमाश औरतें खौफ़ज़दा ज़ख्मों को सुकून के फाहे से सहलाती हैं। ये कह लेती हैं कि यक़ीन मानो अब नहीं होगी तुम्हारी खिड़कियों पर दस्तकें। बहुत गहरेे हैं इस बार रूह पर पड़े खरोंचों के निशान।

बदमाश औरतों की ख़ामोशियों के दस्तावेज़ काग़ज़ों पर दस्तक दे रहे हैं और कलम वक्त के हाथों में उन चिंगारियों को देख रही है, जो ज़ेह्न में धुँआ-सा छोड़ती जा रही हैं। ऐसे में नज़्म धीरे-धीरे उठती है और श्मशान में दीया जला आती हैं। बदमाश औरतों का प्रेम जब मुक्त होता है तो पगला जाता है। बदमाश औरतों के कुंवारी नज़्म का गर्भपात ज़ेह्न को झिंझोड़ देता है।

अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' पर अक्षरों का जश्न मनाने की कवायद उन्हें अलहदा पायदान पर खड़ा करती है। न तेरे हिस्से मुकम्मल शब्द आए न मेरे हिस्से के अक्षर खुलकर जी पाए। कुछ हस्ताक्षर करते रहे हथेलियों को ज़ख्मी। बदमाश औरतें डंके की चोट पर कहती हैं कि हम माहवारी पर कविता नहीं लिखतीं लेकिन डरते हैं स्त्रियों के ख़ामोश हो जाने से और लिखती हैं हम ख़ामोशियों पर कविता। यक़ीनन वह स्त्रियों के माहवारी पर नहीं लिखती कविताएँ।

नज़्म संग्रह की बदमाश औरतें बेहद बेबाक़ी से कहती हैं कि यदि तुम स्त्री के धर्म की रक्षा नहीं कर सकते तो तुम धार्मिक नहीं हो सकते। यह बदमाश औरतें बेशर्त कह देती हैं हाँ मैं नहीं करती तुमसे प्रेम क्योंकि तुमने नहीं की परवाह कभी उन अक्षरों की, जो ज़िंदा होने की चाह में पाषाण होते चले गये। वे बेख़ौफ़ कहती हैं हाँ, मैं नहीं करती तुमसे प्रेम क्योंकि तुम कभी नहीं कर पाए मेरी ख़ामोशी का अनुवाद।

बदमाश औरतें बाख़ूबी जानती हैं कि चुप्पियों की गंध यूँ ही नहीं आया करती। भोली है माँ, नहीं जानती कि अब ख़ामोशी को तोड़ने के लिए उसमें भरनी होगी जन्म के बाद ही नज़्मों में आग। बड़ी बेबाकी से यह बदमाश औरतें किसी ऋषि से पूछ बैठती हैं मुहब्बत का पता।

बदमाश औरतों को झूठ का अभिलंब लेने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है। वे कह देती हैं कि आज झूठ और सच मिलकर फिर से एक हो जाना चाहते हैं। मैं भी कह दूँगी चाँद को देखकर मैंने लिखी थी तुम्हारे लिए वह नज़्म। यह बदमाश औरतें सृजन की पूरी प्रक्रिया को परिभाषित करते हुए कहती हैं कि मुझे जलना है अक्षरों संग, लिखना है आग की छाती पर रखकर पैर कि जलकर राख नहीं होती तपकर सूरज हो जाती है मेरी नज़्म।

ये बदमाश औरतें किसी को भी आईना दिखाने से नहीं चूकती हैं। बड़ी बेबाकी से कह देती हैं, सुनो एक हिस्सा है मेरा तुम्हारे पास। ओम शब्द बनकर तुम्हारे देह से लिपटा हुआ और आते वक्त उतारकर तुम्हारी हर घड़ी पर टांग आई थी। अपनी आखिरी हँसी तक उसे धूप दिखाते रहना। बदमाश औरतें जानती हैं लेकिन बारिश की बूँदें नहीं जानती उनका आना कितने मुर्दा शब्दों को ज़िंदा होना होता है। सूखे पड़े बंजर में कितने बीज अंकुरित होते हैं। आज बहुत सारे शब्दों की लाशें पानी पर लिखेंगी अधूरी कविताओं का प्रेम प्रसंग।

ये बदमाश औरतें किसी भी चुनौती को स्वर देने में सक्षम हैं। ये कहती हैं कि जब नहीं कर सकते झूठ पर वार। क्यों लिए फिरते हो कलम की तलवार। मत भूलो मौन रहकर तुम भी हो उतने ही अपराधी उतने ही ज़िम्मेदार।

बदमाश औरतों की कोख से उपजा रुदन कहता है- थरथराई होगी नज़्म, रो पड़े होंगे पन्ने। मुट्ठी भींचने से पहले कोख ने उठाए होंगे कई सवाल। किताबों ने दर्ज कर लिया है आज अनोखा मृत्यु इतिहास। बदमाश औरतों की ख़ामोशी की मौन अभिव्यक्ति भी कमतर नहीं आंकी जा सकती। जब-जब औरत ख़ामोश हुई है नज़रों ने क़ब्र खोदकर हज़ारों मरे हुए सवालों की देहों को ज़िंदा किया है। आज फिर नज़्म एक क़ब्र खोद रही है।

इन बदमाश औरतों का महसूसना उस सवाल का लिखा जाना है। ज़रूरी होता है कुछ स्पर्शों का होना ताकि धमनियों में बना रहे एक ज़िंदा एहसास। ये बदमाश औरतें अशोक वाजपेई की कविता 'उम्मीद का कंधा' पर भी कटाक्ष करने से नहीं चूकतीं। ये कहती हैं, 'कभी छूकर देखना इन बेजां पत्थरों को, कई मुर्दा हुई औरतों के किस्से इन पत्थरों में दफ़न हैं'।

इन पत्थरों में कैसे उठेगी आवाज़! हर उठी आवाज़ तुम कर देते हो ख़ामोश। जारी कर देते हो फ़तवे, क़ैद कर देते हो साँसें। कुछ इस तरह कि बांदी होकर रह गई है मेरी नज़्म लेकिन मेरी नज़्म एक हाथ में क़फ़न और एक हाथ में तलवार लिए ख़ुद ही लड़ लेगी अपनी जंग, एक खुली साँस की चाह में। दर्द के कमल गुलाबी नहीं होते। बदमाश औरतें जब माँ लिखती है नज़्म तभी मुकम्मल होती है।

बदमाश औरतें क़फ़न उठाकर देेखती हैं कि वर्षों से हँसी मृत पड़ी है तो क़ब्र में दफ़ना देना चाहते हैं तमाम मुर्दा शब्द। लाशों में तब्दील हो चुके शब्दों का इतिहास। अंततः ये बदमाश औरतों कहती हैं कि कुछ सवालों को अधूरा ही रहने दो, सुलगने दो इन्हें रफ़्ता-रफ़्ता। कभी तुम मेरे दर आकर लौट जाना, कभी मेरी नज़्म लौट आएगी। ये ज़रूरी नहीं कि हर नज़्म मुकम्मल हो, कुछ अधूरी नज़्में ताउम्र का साथ निभा जाती हैं लिखे जाने के इंतज़ार में।

हरकीरत हीर के नज़्म संग्रह 'बदमाश औरतें' की कुल 60 नज़्मों में ये बदमाश औरतें जाने कितनी बार जीती हैं, जाने कितनी बार मरती हैं। जीवन से जुड़ी तमाम विसंगतियाँ प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। इनके सवाल सहज होते हैं लेकिन उनके जवाब इतना सरल नहीं होते। जवाब देने में जवाबदेह की जान निकल जाती है।

अंततः हम मुक्त कंठ से स्वीकार कर सकते हैं कि सशक्त कलमकार हरकीरत हीर का नज़्म संग्रह 'बदमाश औरतें' वर्तमान परिपेक्ष्य में मौजूदा विसंगतियों के विरुद्ध एक विद्रोही आंदोलन है। आने वाले समय मे इसकी अनुगूँज दूर तलक जाएगी और नज़्म संग्रह स्त्री-विमर्श का प्रतिनिधि संग्रह साबित होगा। लेखिका को मेरी असीम बधाई, अनन्त शुभकामनाएँ।

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सरोज बाला सोनी

19 March 2025

हर युग में जब भी लीक से हटकर कुछ नया, क्रियात्मक, स्वअभिव्यक्ति की चेतना स्वरूप नारी ने आगे कदम बढ़ाया है अपने मूल्यों से हटकर चाहे वह बात समाज हित, राष्ट्र हित की ही क्यों न हो, उस पर आज़ाद खयाल, आधुनिकता की होड़ में होने का ठप्पा लगा है अतः इस पुस्तक की शायरा/कवयित्री प्रशंसा की पात्र हैं अपनी पुस्तक की title से लेकर अंत तक l बहुत बधाईl👌✍️📖👑💐🙏

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रचनाकार परिचय

संदीप मिश्र 'सरस'

ईमेल : sandeep.mishra.saras@gmail.com

निवास : बिसवाँ, ज़िला- सीतापुर (उ०प्र०)

जन्मतिथि- 5 जुलाई
जन्मस्थान- बिसवाँ, सीतापुर (उ०प्र०)
शिक्षा- एम०ए० (हिंदी साहित्य)
सम्प्रति- पत्रकार, साहित्यकार, समीक्षक एवं सम्पादक
विशेष- राष्ट्रीय अध्यक्ष/संयोजक, साहित्य सृजन संस्थान, बिसवाँ (सीतापुर), संस्थापक- सृजन पुस्तकालय, साहित्य सम्पादक- दैनिक राष्ट्र राज्य, कॉलम सम्पादन- विमर्श/ संवाद/ कलमकार/ समीक्षा/ रचनाकार/ सृजन/ सृजन के सारथी
लेखन विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, दोहा, छंद, क्षणिका, हाइकु, कुण्डलिया, समीक्षा, कहानी, लघुकथा आदि
प्रकाशन/प्रसारण- कुछ ग़ज़लें, कुछ गीत हमारे (काव्य संकलन) प्रकाशित। समकालीन दोहाकार, हिंदी ग़ज़ल का बदलता मिज़ाज, गुनगुनाएं गीत फिर से-2 सहित बारह साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। हंस, कादम्बिनी, अहा जिंदगी, पाखी, वीणा, उत्तर प्रदेश, राष्ट्रधर्म, कथादेश, मंगलदीप, अपरिहार्य, हरिगंधा, गुफ़्तगू, अभिनव प्रयास, सरस्वती सुमन, लमही, अलाव , हस्ताक्षर, छपते छपते आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समय-समय पर रचनाओं का प्रकाशन। राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं/टीवी चैनल/रेडियो से प्रकाशित, प्रसारित व पुरस्कृत। दूरदर्शन, न्यूज 18 चैनल व आकाशवाणी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग का चैनल 'जयघोष' सहित देश के विभिन्न काव्यमंचों से नियमित काव्य प्रसारण। कविताकोश व छंदकोश, दोहाकोश में रचनाएँ सम्मिलित। नियमित समीक्षा कॉलम (विमर्श) में सौ से अधिक साहित्यकारों की पुस्तकों की समीक्षा लेखन। आउटलुक सहित तमाम देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में समीक्षाओं का प्रकाशन।
सम्मान- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सम्पर्क- वार्ड- शंकरगंज, पोस्ट- बिसवाँ, ज़िला- सीतापुर (उ०प्र०)- 261201
मोबाइल- 9450382515