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मौसमी चंद्रा की कहानी 'कुहू'

मौसमी चंद्रा की कहानी 'कुहू'

हम जगह-जगह रिश्तों के नाम के बांध लगाते हैं। सोचते हैं जीवन की गति अपने तरीके से चलाएँगे। चला पाते हैं? नहीं।

शाम का धुंधलका! सूरज क़रीब-क़रीब डूब गया था। कुहू को शामें बहुत लुभाती हैं। रंग बदलता आसमान मन मोह लेता है। ऐसी शामों का तनहा कटना सितम ढाता है। खैर थी कि आज जीत पास था। कुहू ने लव बर्ड्स वाला कॉफी मग निकाला। झाग वाली गर्म कॉफी हो, सनम साथ हो फिर किस चीज़ की दरकार!
बालकनी में लगी केन की बेंच पर कुहू ने कॉफी रख दी।
"आओ जीत! कॉफी बनाई है।"
जीत जानता था पीने के लिए बालकनी जाना कम्पलसरी है। कुहू का बनाया नियम! जिसे टालने का मतलब होता है उसका मुरझाया चेहरा देखना। जो जीत देख नहीं सकता।

कुहू जब भी उदास होती, जीत के हृदय की बारीक झिल्लियों में बहता रक्त जैसे थमने लगता। वैसे भी न जाने ऐसी कितनी अनगिनत शामें और रातें कुहू ने तनहा गुज़ारी हैं। मजबूरी, विवशता या जिस भी नाम का जामा पहना दो। तनहाई तनहाई ही होती है। तब इंसान अपने घर होकर भी बेघर ही महसूस करता है।फोन रखते वक़्त जब कुहू सुबक पड़ती, दरअसल वो आँसू नहीं दरख़्वास्त होती जीत को बुलाने की। और जीत! चाह कर भी उस दरख़्वास्त के नीचे अपने आने की कोई निश्चित तारीख़ मुक़र्रर नहीं कर पाता।

और जब जीत आता, कुहू की उमस भरी ज़िंदगी प्रेम की बारिश के झकोरों से सराबोर हो जाती। अकेली रातों की सारी उष्णता जैसे छूमंतर!
कॉफी पीते जीत के हाथ कुहू के गाल सहलाने लगे। जब भी वो कुहू के पास होता, अपने खोए समय का हर लम्हा जी लेना चाहता था। जब लौटता तो इन एहसासों की ताज़गी ज़िंदा रखती उसे और कुहू को।

रात फिर गुलज़ार के पश्मीने-सी थी। नर्म, मुलायम!
इश्क़! मिलन! समर्पण! कितने ख़ूबसूरत शब्द हैं और उससे भी ख़ूबसूरत होती है अपने प्रेम पर समर्पित स्त्री!

कितना समय हो गया दोनों को एक-दूसरे के क़रीब आये! जोड़ा जाए तो पाँच-छह कैलेंडर बदल गए हैं दीवार से। इतने साल! और इन सालों में एक भी बार कुहू ने कुछ नहीं माँगा जीत से। न वक़्त और न ही कोई रिश्ता।

कुछ रिश्ते एहसासों से बनते हैं
उनके नाम नहीं होते
ये बस दिल से दिल तक जुड़े होते हैं
सरेआम नहीं होते

इसी को अपनी तकदीर मान कुहू जीती चली जा रही थी। जीत ने उसे पहली मुलाक़ात में ही ये बता दिया था कि वो शादीशुदा है। एक ऐसे बंधन में बंधा है, जो बांधा तो गया सात जन्मों के रिश्तों का नाम देकर पर एक जन्म निभाने में ही अपाहिज हो गया बेचारा रिश्ता!
न जीत ख़ुश था, न उसकी पत्नी। कितना अजीब ही होता है हमारे साथ! दो अजनबियों को इस उम्मीद में एक साथ जोड़ दिया जाता है कि वो भविष्य में आदर्श पति-पत्नी को परिभाषित करेंगे।
एक पूरब, दूसरा पश्चिम। कुछ बन भी जाते हैं समाज के बीच परफेक्ट कपल। पर शायद ही कोई ये समझ पाता है इस एक्जाम्पल को सेट करने में किसी एक बेचारे को कितनी कुर्बानियाँ देनी पड़ीं! कितने अरमानों को रेता गया!

जीत की पत्नी को अपने क्लासमेट से प्यार था। पहला प्यार यूँ भी नहीं भूल पाते सब। उस पर अल्हड़पन का ये प्रेम अगर उस पड़ाव तक आ जाये, जहाँ प्रेम को समझने की समझ आ जाती है पर कहानी अधूरी रह जाती है। फिर भले उसकी मांग में सिंदूर पति भरता है पर दिल में कोई और ही भरा होता है। न्याय नहीं कर पाती वो ज़बरदस्ती के थोपे लाल रंग से। वो बन जाती है एक पत्नी पर बिस्तर पर ठंडी पड़ी उसकी देह जता देती है इस रिश्ते का मौन विरोध।

इस विरोध का जीत को आभास हो गया था। उसने बहुत कोशिशें कीं पर नतीजा शून्य। कविताओं में जीने वाले जीत का भावुक मन, इस विरोध को झेल न सका। कई बार सबकुछ जानते हुए भी खामोश रहना पड़ता है। जीत भी खामोश हो गया। विरक्ति हो गयी। स्वभाव में अक्खड़पन, बेवजह का गुस्सा। अपने लिए बंदिशें बना लीं उसने। मानो अंधेरों से सुलह कर ली हो।

इतने कमज़ोर आवरण में लपेट लिया कि लोग बात करने के पहले कई बार सोचते। जीत इसी को अपनी जीत समझता। अपने काम को नशा बना लिया और डूबता चला गया। तभी एक मरमरी हवा-सी कुहू उसकी ज़िंदगी में आयी। परिवार से छली गयी ऐसी लड़की, जो पिता की मौत के बाद ख़ुद बन गयी अपनी दो छोटी बहनों का पिता। सारी ज़िम्मेदारी पूरी की और बदले में मिली अपनों की उपेक्षा। फिर न शादी की उम्र बची, न किसी रिश्ते में बंधने की ललक।

पर जीत से मिलना अलग था। इतना प्रभावशाली व्यक्तित्व! पहली मुलाकात से कुहू को जीत से जुड़ाव हो गया था। जीत की कोशिशें भी नाकाम गयीं। कुहू कब उसकी लगाई सारी बंदिशों को भेदकर उसके हृदयतल में समाती चली गयी, वो जान ही नहीं पाया।
प्रेम के लिए बरसों तपा था जीत। कुहू का प्यार उस तपते मन पर शबनम की बूंदों की तरह बरस गया। दोनों बिल्कुल एक जैसे थे। जैसे ईश्वर ने एक-दूसरे के लिए गढ़ा हो और जोड़ना भूल गया हो।
कुहू को जीत का मन पढ़ना आता था। जीत को कभी बताने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि वो क्या चाहता है। कुहू के लिए जीत की ख़ुशी ही सबकुछ थी। सबसे मज़ेदार जीत ने कभी आई लव यू नहीं बोला। सिर्फ ये कहा था-
"मैंने जब से होश संभाला, कभी किसी से उम्मीद नहीं की। थोड़ी उम्मीद अपनी पत्नी से की थी पर फिर तय कर लिया कि जीवन में कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं करूँगा। दुःख का कारण केवल यही है दूसरों से उम्मीदें। पर पता नहीं क्यों बरसों बाद तुमसे हो गयीं। छोटी-सी, मुहब्बत की उम्मीद।"

ये सुनने के बाद आई लव यू सुनने की ज़रूरत नहीं थी कुहू को। जीत अब हँसने लगा था, खुलकर जीने लगा था। उसकी बंदिशें, उसका अक्खड़पन, उसका गुस्सा सब पर कुहू का प्यार भारी पड़ने लगा।

कॉफी पीते जीत कुहू को एकटक देख रहा था। उसकी चंचल आँखें, भरे-भरे होंठ, तीखी नाक, जिसमें लगी छोटी-सी नथ की चमक डूबते सूरज जैसी सिंदूरी हो गयी थी। उसका दमकता चेहरा देखकर जीत आत्मग्लानि से भर गया- कितनी ख़ुश हो जाती है मेरे आने से!
उसने कुहू का हाथ पकड़ लिया और कहा- "बाबू रे! मैं ग्लानि महसूस करता हूँ कभी-कभी। इस बेनाम से रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाया। ग़लत कर रहा तुम्हारे साथ।"

कुहू ने जीत की ओर देखा। उसकी बादामी आँखें भर आयीं। "जीत अगर इस रिश्ते का कोई नाम होता तो मुझसे ज़्यादा ख़ुशनसीब कोई न होता पर ईश्वर की यहीं मर्ज़ी थी शायद। हमें इसी तरह मिलना था। अपने-अपने रिश्तों से टूटे हुए। अधूरे-अधूरे-से। पर ख़ुशी इसी बात की है कि मैं अब तो मिली तुमसे। तुमने कभी नदी को देखा है! वह बहती तो किनारों के साथ है लेकिन किनारों के साथ रहती नहीं। वह बहने के लिए जीती है, जीने के लिए नहीं बहती। न हमारी तरह इतने शर्त लगाती है। हम जगह-जगह रिश्तों के नाम के बांध लगाते हैं। सोचते हैं जीवन की गति अपने तरीके से चलाएँगे। चला पाते हैं? नहीं। जीत, हमारे चाहने न चाहने से कुछ नहीं रुकता। धारा बहती जाती है। हम जब कहीं जाते हैं तो उस जगह की ख़ूबसूरत यादें साथ लेकर आते हैं। संभाल कर रखते हैं उन्हें। मैं भी चाहती हूँ जब इस दुनिया से जाऊँ, अच्छी यादें लेकर जाऊँ, तुम्हारी और मेरी। अब दुनिया कुछ भी बोले, मेरे लिए तो यही बहुत है। जीत की कुहू और कुहू का जीत। बस।" कहकर कुहू उसके सीने से लिपट गयी।

जीत दो पल विस्मित-सा खड़ा रहा। उसके हाथ कुहू की कमर पर कस गये। आँखें मुंद गयीं। ऊपर आसमान में सूरज डूब गया था। चाँद छोटी-सी खिड़की खोले झाँक रहा था। ऐसे, जैसे सख्त सलाखें मरोड़कर आतुर हो देखने को कोई, एक नयी सुबह।

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4 Total Review

के० पी० अनमोल

17 February 2025

एक सार्थक संदेश देती सुंदर कहानी है। बहुत संजीदा और सच्चा प्रेम उभरकर आता है। प्रस्तुति तथा विषय-वस्तु भी प्रभावी है। शुभकामनाएँ।

V

vikramsingh bhadoriya

15 February 2025

अंतत:सुखांतम्

A

Arunabh

15 February 2025

Behad sunder

M

Moshmi chandra

14 February 2025

❤️❤️

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रचनाकार परिचय

मौसमी चन्द्रा

ईमेल : moshmi.chandra11@gmail.com

निवास : पटना (बिहार)

संप्रति- कवियत्री और कहानीकार
शिक्षा- स्नातक
प्रकाशन- 'टूटती सांकलें' (कहानी संग्रह) एवं 'एक और अमृता' (कविता संग्रह) प्रकाशित।
संपादन- 'बसंत आने को है' (साझा कहानी संकलन) तथा 'बात अभी बाकी है' (चार रचनाकारों की किताब)
निवास- पटना (बिहार)