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मनराज मीणा की कविताएँ

मनराज मीणा की कविताएँ

युवा कवि मनराज मीणा की कविताएँ प्रेम की बड़ी सुंदर व्याख्या करती हैं। प्रेम की विराट दृष्टि इन्हें समस्त सृष्टि से जोड़ती हुई प्रतीत होती है। समाज और उससे जुड़े सरोकार भी इनकी कविताओं में बिना किसी प्रयास के सम्मिलित होते हैं। कम अवस्था में मनराज की कविताओं की परिपक्वता ध्यान आकृष्ट करती हैं।

ख़ूबसूरती एक सज़ा

फूल जब-जब खिलता है
पलती है कई सारी आशाएँ
कई सारी भावनाएँ

फूल तो चाहता है
कि बस हमेशा यूँ ही महकता रहे
लेकिन उसे कहाँ ख़बर है
कि यहाँ ख़ूबसूरती की भी सजा होती है
अक्सर जो होता है ख़ूबसूरत
उसे कुचल दिया जाता है

ख़ूबसूरत चीज़ों का अस्तित्व
घिरा होता है ख़तरों से
चाहे वो कुछ भी हो
हो चाहे फूल, पंछी, लड़कियाँ
या हो ख़ूबसूरत मछलियाँ

ख़ूबसूरत फूलों पर जाती है
नज़र माली की सबसे पहले
और वो तोड़ लेता है उनको
कभी उन्हें चढ़ाया जाता है मंदिरों में
तो कभी फेंका जाता है किसी मृतक की लाश पर
कभी सजाया जाता है किसी की सेज पर
तो कभी नेताओं की बेंच पर
आख़िर में रौंद दिए जाते हैं वो पैरों के नीचे
और हो जाता है ख़त्म उनका अस्तित्व

ख़ूबसूरत पंछी भी होते हैं क़ैद पिंजरों में अक्सर
नहीं उड़ पाते वो खुले आकाश में
जहाँ चाहते हैं वो उड़ना
उनकी ख़ूबसूरती ही उनकी क़ैद का कारण बन जाती है

लड़कियाँ जो होती हैं ख़ूबसूरत
बन जाती हैं शिकार अब हवस का
और लूट ली जाती है उनकी अस्मिता
फूलों की तरह उनका भी
किया जाता है शोषण
समाज के हर तबके में
और आख़िरकार रौंद दी जाती हैं
समाज की विकृत मानसिकता के चलते

ख़ूबसूरत होती हैं जो मछलियाँ
उनको नहीं होती नसीब सागर की गहराई
उन्हें नहीं होता नसीब
सागर की लहरों के साथ खेलना
उन्हें सजाया जाता है बस एक्वेरियम में।

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औरत

प्रेम कभी नहीं आया उन औरतों के हिस्से
जिन्होंने खो दिए अपने पति
विवाह के कुछ सालों बाद
जो छोड़ गए अपनी निशानी उनके गर्भ में
या उनकी गोद में
छोड़ गए वे उनको ज़िंदगी के उस मोड़ पर
जब उन्हें ज़रूरत थी उनकी सबसे ज़्यादा

उन औरतों के हिस्से आईं अपने
बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी
और समाज से संघर्ष की ज़िंदगी
उन्होंने नहीं चुना फिर से घर बसाना
बस चुना अपने बच्चों के साथ रहना
और उनकी ख़ुशी में हो गईं शामिल
उन्होंने जोड़ दिया अपना जीवन
अपने बच्चों के जीवन के साथ

एक औरत का अकेले रहना
बहुत मुश्किल होता है इस समाज के बीच
वह लड़ती है समाज के कुचक्रों से
उस पर लगते हैं कई सारे लांछन
उसे सताया जाता है इस समाज के द्वारा
पर वह सह जाती वो सारी पीड़ाएँ
जो उसे मिलती हैं उस दरमियान
क्यूँकि वह जानती है
कि जब उसके बच्चे हो जाएँगे बड़े एक दिन
तब वो खड़े होंगे उसके आगे
उसकी हर परेशानी में और उठा लेंगे
उसके सारे दुखों को अपने कंधों पर

एक औरत समझती है रिश्तों के मायने
एक पुरुष से कहीं ज़्यादा
वह बंध जाती है जब किसी रिश्ते में
तो वह सींचती है उस रिश्ते को अपनी आत्मा से
वह भर देती है रंग उन सभी रिश्तों में
जो जुड़े होते हैं उसके जीवन से।

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प्रकृति और प्रेम

प्रकृति और प्रेम का अनूठा संबंध है
इस दुनिया में प्रेम तब तक ही क़ायम रहेगा
जब तक प्रकृति हमसे प्रेम करेगी
और हम प्रकृति से

जब हम किसी के प्रेम में होते हैं
तो हम स्वतः ही प्रेम करने लगते हैं
नदियों से, पहाड़ों से, पेड़-पौधों से,
फूलों से, बादलों से, चाँद-तारों से,
पंछियों से, यहाँ तक कि पशुओं से भी
करने लगते हैं हम प्रेम उस दरमियान

हमें हर तरफ़ बस प्रेम ही दिखता है
और भी बहुत सारी चीज़ें हैं ऐसी
जो हमें प्रिय लगने लगती हैं उस वक़्त
जिस दिन प्रकृति हमसे रूठ गई
प्रेम स्वत: ही नष्ट हो जायेगा हमारे मन से
हम प्रेम के नाम से दूर भागने लगेंगे
और प्रेम धीरे-धीरे इस दुनिया से मिट जायेगा

हम बस एक हाड़-मांस की मूरत बन कर रह जाएँगे
प्रेम को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है
कि हम प्रकृति को भी बचाए रखें।

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इंतज़ार

प्रेम और पीड़ा का तो पुराना नाता है
जहाँ प्रेम है, वहाँ पीड़ा भी होती है

पीड़ाएँ आती हैं सबके जीवन में
और झकझोर देती हैं हमें अंदर तक
मैंने भी सही है हर पीड़ा
तुम्हारे इंतजार में
तुम्हारे प्रेम को पाने के लिए

शायद तुम सही कह रही थी
हमारा मिलन नहीं होगा
आम लोगों की तरह
कुछ विशेष प्रयोजन है ईश्वर का शायद
हमें मिलाने को लेकर

जब होगा मिलन हमारा
झूम उठेगी हवाएँ
गीत गाएँगी सागर की लहरें
और बादल बरसाएँगे प्रेम की हल्की फुहारें
हमारे मिलन की सुखद अनुभूति में
और जब हम दोनों हो जाएँगे पूर्ण
एक दूसरे से मिलकर
तो हो जाएगा ख़त्म
सदियों पुराना इंतज़ार
और समस्त पीड़ाएँ।

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प्रेम

जब भी देखता हूँ मैं तुम्हें
मुझे लगता है कि दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत स्त्री हो तुम
जिससे मैं प्रेम करता हूँ
अपने दिल की अनंत गहराइयों से

मुझे बेहद पसंद है
तुम्हारे सामने बैठकर तुम्हें देखना
जब तुम होती हो सामने मेरे
मैं बस तुम्हारी आँखों में डूब जाना चाहता हूँ

तुम्हारी आँखों की गहराई मुझे याद दिलाती है
कि इनसे गहरी कोई जगह नहीं है डूबने के लिए
जब-जब तुम नहीं होती हो मेरे साथ
मुझे कितनी याद सताती है तुम्हारी
जैसे सागर के बिना लहरों का अस्तित्व निरर्थक लगता है
मैं भी तुम बिन ऐसे ही अधूरा हूँ
तुम्हारे होने से ही मैं होता हूँ अपने पूर्ण रूप में

मेरी नहीं कोई ख़्वाहिश तुमसे
दुनिया के तमाम आशिकों की तरह,
मैं चाहता हूँ कि जब भी मिलो तुम मुझसे
रात की हल्की रोशनी में बस निहारता रहूँ तुम्हें
जैसे चकोर निहारता है चांद को रात भर

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रचनाकार परिचय

मनराज मीणा

ईमेल : manrajmeena025@gmail.com

निवास : लालसोट (राजस्थान)

जन्मतिथि- 16 जुलाई 1997
निवास- ग्राम पोस्ट- बिलौना कलां, तहसील- लालसोट, ज़िला- दौसा (राजस्थान)- 303503
मोबाइल- 9783578348