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इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

चंद्रेश्वर की कविताएँ

चंद्रेश्वर की कविताएँ

क्या अब लोग जानेंगे
नदियों के नाम
रेलगाड़ियों के नामों से
क्या सचमुच की नदियाँ
बदल जायेंगी
रेतीले मैदानों में

हम भूल गए

हम भूल गए लड़ना
विपरीत मौसम से

हम भूल गए
जोड़-घटाव
गुणा-भाग
उंगलियों पर
कैलकुलेटर के ज़माने में

हम किसी बात के लिए
अब नहीं देते ज़ोर
स्मृतियों पर
गूगल पर करने लगते सर्च
तत्काल ही

जब हम भूल जायेंगे
अपने गाँव-नगर का नाम तो
गूगल ही बताएगा क्या
वहाँ तक पहुँचने का
सही रास्ता

हम बहुत कुछ भूल गए
पैदल चलना भूल गए
रोना और हँसना भूल गए

जिस माटी में उगे
उसकी तासीर और
उसके ऊपर का
भूल गए आसमान
चाँद, सूरज और
सितारों से रोशन जो

गनीमत कि नहीं भूले
अब तक अपने
माई-बाप का नाम।

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पुराना का पुराना ही

अगर जीना चाहते हो
उत्तर सत्य युग में
तो बोलो कि बोल सकते हो
जितना झूठ

छलो कि छल सकते हो
जितना भी
करो मक्कारी
कर सकते हो जितनी

अपने को ढालो
समय के हिसाब से
सौ-सौ जगहों पर दिखो
सौ-सौ तरह से

तलवे चाटो कुक्कुर की तरह
रंग बदलो गिरगिट की तरह
तब जाकर पहुँचोगे
तरक्की की गगनचुंबी
इमारतों पर
चक्करदार होती हैं
सीढ़ियाँ इनकी

सरल-सपाट
नैतिक गुणों से भरपूर
कोई आदमी
इन्हें देखकर खा जाता है
चक्कर अक्सर

वह बना रहता है
पुराना का पुराना ही।

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यादें

क्या अब लोग जानेंगे
नदियों के नाम
रेलगाड़ियों के नामों से
क्या सचमुच की नदियाँ
बदल जायेंगी
रेतीले मैदानों में
या फिर हो जायेंगी
विषाक्त

क्या इसी तरह बची रहेंगी
उनकी यादें
चीज़ों के नामों के सहारे ही
ऐतिहासिक घटनाओं
आंदोलनों की भी
मसलन क्या आती रहेगी याद
संपूर्ण क्रांति की
संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस से।

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दीवार घड़ी

घर की इकलौती दीवार घड़ी
बंद पड़ी है
हफ़्ते भर से
उसकी टिक-टिक के
अभ्यस्त थे हम सब
सबको महसूस हो रहा था
गड़बड़ी है कहीं कुछ
घर के अंदर

वह थी एक बुजुर्ग की तरह
सबको चेताती हुई
किसे कब जागना है
सोना है कब

बच्चों को स्कूल जाना है
बड़ों को काम से बाहर
बरबस चली जाती थीं
सबकी निगाहें
दीवार घड़ी की सूई पर
जबकि सबके पास हैं
कलाई घड़ियाँ
सबके पास हैं
मोबाइल
फिर भी यूँ बंद हो जाना
दीवार घड़ी का
बना रहा है सबको
कुछ अस्त-व्यस्त।

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छिलका

बीज पाकर
नम माटी
होने लगता
अंकुरित
कुछ दिन बाद
छिलका उसका
मिल जाता
माटी में ही
धीरे-धीरे

हम भी तो हैं
बाल-बच्चेदार
बुजुर्गवार किसी
छिलके की तरह ही

बढ़ रहा परिवार
बदल रहे हम भी
बीज से
अंकुर में
अंकुर से पौधे और
वृक्ष में छायादार

उधर छिलका माटी में
विलीन करता जाता
अस्तित्व अपना

इस तरह चलती रहती
सृजन की प्रक्रिया
अनवरत
अविराम
सृष्टि में

इधर अंकुर ताकता
निर्भय होकर अपना
विस्तृत आसमान
छिलका उधर
बदल लेता
अपनी मूल पहचान
माटी में माटी होकर।

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रचनाकार परिचय

चंद्रेश्वर

ईमेल : cpandey227@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 30 मार्च, 1960
जन्मस्थान- आशा पड़री (बक्सर)
संप्रति- विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन कार्य
प्रकाशन- 'अब भी', 'सामने से मेरे' एवं 'डुमराँव नज़र आयेगा' (कविता संग्रह), 'भारत में जन नाट्य आंदोलन' (शोधालोचना), 'इप्टा आंदोलन : कुछ साक्षात्कार' (साक्षात्कार), 'मेरा बलरामपुर' (कथेतर गद्य)। 'हमार गाँव' एवं 'आपन आरा' (भोजपुरी कथेतर)
हिंदी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में 1982-83 से कविताओं और लेखों का लगातार प्रकाशन।
सम्मान- भोजपुरी कथेतर गद्य कृति 'हमार गांव' पर सर्वभाषा सम्मान- 2024
रेवांत साहित्य गौरव सम्मान- 2024
निवास- 'सुयश', 631/58, ज्ञान विहार कॉलोनी, कमता (फ़ैज़ाबाद रोड), लखनऊ (उत्तरप्रदेश)- 226028
मोबाइल- 7355644658