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दिवाकर पाण्डेय 'चित्रगुप्त' का लेख 'जबरा पहाड़िया'

दिवाकर पाण्डेय 'चित्रगुप्त' का लेख 'जबरा पहाड़िया'

बड़ा-सा तिलक लगाने के कारण लोग इसे तिलका के नाम से जानने लगे, जिसका दूसरा मतलब गुस्सैल या लाल आँखों वाला भी होता है। धीरे-धीरे पूरा संथाल इसे अपना सरदार भी मानने लगा, जिस कारण इनके नाम के साथ माझी भी जुड़ गया। इस प्रकार से इतिहास में एक नए किरदार का जन्म हुआ तिलका माझी।

1770 वह साल था, जब बंगाल और बिहार की एक तिहाई आबादी अकाल की भेंट चढ़ गई थी। कंपनी सरकार की नीतियों और व्यापारियों के गोरखधंधों ने आग में और घी डालने का काम किया। अंग्रेजों और मुगलों की आपसी खींचतान, स्थानीय नवाबों और राजे-रजवाड़ों की दल-बदलू नीतियों ने परिस्थियों को बद से बदतर कर दिया। इसके अलावा 1770 भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी वर्ष यूरोपियन देशों के तर्ज पर यहाँ भी पहला बैंक खोला गया, जिसका नाम था 'बैंक ऑफ हिंदुस्तान', जो कि 1830 में आकर बंद हुआ लेकिन उसके साथ ही देश में बैंकिंग की जो नींव पड़ी, वो सतत जारी है।

उन दिनों तक कंपनी सरकार के पाँव भारत मे लगभग जम चुके थे और अब सिर्फ उनका लूटना-घसोटना ही शेष रह गया था। स्थानीय ज़मींदारों और राजाओं ने कंपनी से मिलकर ऐसा नंगा नाच किया कि 1770 से लेकर 1773 के बीच बंगाल की आधी आबादी भूख की भेंट चढ़ गयी। दूसरे इलाकों से यहाँ रसद लाने ले जाने पर पाबंदी थी। गोदाम भरे थे लेकिन उन पर बड़े-बड़े तालों का पहरा था। गलियों में आदमियों के नाम पर सिर्फ अस्थि-पंजर ही घूमते हुए नज़र आते थे। महिलाओं और बच्चों की स्थिति तो और भी दयनीय थी। खाने के नाम पर सांप-बिच्छू-चूहा-बिल्ली, जिसे जो मिला, खाकर किसी तरह पेट भर लिया। जिस तरफ देखो, मातम ही मातम पसरा था। किसी को किसी के लिए रोने की फुर्सत नहीं थी। सब अपनी-अपनी जान बचाने की होड़ में अंग्रेज़ी हुकूमत की मनमानियों को मानने के लिए मज़बूर थे। इनमें भी सबसे ख़राब हालत दूर-दराज के इलाकों की थी, जिनमें आदिवासी इलाके प्रमुख थे।

बंगाल प्रान्त के अंतर्गत आने वाला संथाल परगना, जो वर्तमान में भागलपुर (बिहार) से लेकर गोड्डा (झारखंड) तक फैला हुआ था, अलग-अलग पहाड़ों में बाँटकर इसका नामकरण किया गया था। वर्तमान परिस्थिति में एक पहाड़ को एक गाँव जैसा ही समझ सकते हैं। हर पहाड़ का एक सरदार होता था, जिसका काम मुखिया जैसा ही था। दो या दो से अधिक पहाड़ों को मिलाकर एक ज़मींदार होता था, जो होता तो भारतीय ही था लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए एजेंट के तौर पर काम करता था।

1770 से लेकर 1773 तक का समय ऐसे ही गुज़रा लेकिन अगले वर्ष इंद्र देवता ने मेहरबानी की तो फ़सल अच्छी हुई। ग्रामीणों को इस दुर्दिन से उबरने के सपने आ ही रहे थे कि ज़मींदार ने एक चाल चली। योजना के मुताबिक लठैतों को भेजकर गाँव-गाँव ज़मींदार का फ़रमान बाँचा जाने लगा-
"सुनो! सुनो! सुनो! आज शाम तक अपनी पूरी फ़सल काटकर गाँव में इकट्ठी कर दो, कल सुबह जब गोरे साहब मुआयना करके चले जाएँगे, उसके बाद इस फ़सल से उचित कर काटकर गाँव वालों में बाँट दिया जाएगा।''

ज़मींदार जनार्दन रॉय के लठैत हर पहाड़ की तरह सिंगारसी पहाड़ पर भी ये फ़रमान सुनाकर चले गये। जबरा पहाड़िया, जो कि सिंगारसी पहाड़ का सरदार था, फौरन ही हुकुम की तामील करने में लग गया। नई फ़सल के स्वागत में पारंपरिक नृत्य का आयोजन भी उसी रात को होना पहले से ही तय था, जिसके लिए जवान युवक और युवतियाँ तरह-तरह के फूल-पत्तों और पक्षियों के पंखों से तरह-तरह के आभूषण बनाने में व्यस्त थे। बड़े बूढों ने फ़सल को इकट्ठा करने का काम किया। उत्सव वाले दिन ही फ़सल इकट्ठा करने का आदेश ज़मींदार ने तो सोच-समझ कर दिया था पर भोले-भाले आदिवासी उसकी इस चाल से अनजान थे।

दिन में सारी पैदावार एक समतल पहाड़ देखकर उस पर इकट्ठी कर दी गयी। शाम ढलते ही सारा पहाड़ नगाड़े की धा-धा-धिन्ना में झूम उठा। ताड़ी के मटके जी भरकर छके गये। मंच को लकड़ी की बल्लियों और तख्तों से बनाया गया था, जिस पर सजावट के लिए केले, आम और अशोक की पत्तियों को बेलों की रस्सियों में बँटकर बड़े करीने से लगाया गया था। उजाले के लिए मंच के दोनों तरफ लकड़ियों के बड़े-बड़े ढेर जल रहे थे। नाच-गाने के बीच उछलकूद कर लोग अपने पिछले सारे दुःख-दर्द और अपनों की लाशों की गिनतियाँ भूल जाना चाहते थे। ताड़ी के नशे में चूर युवक-युवतियाँ मंच से अधिक आस-पास के जंगलों-झाड़ियों में झूम रहे थे।

रात भर जागरण के पश्चात सुबह होते ही पूरा गाँव नींद की आगोश में चला गया। अभी सूरज पूरी तरह से चढ़ा भी नहीं था कि एक ग्रामीण ने आकर जबरा को फ़सल ग़ायब होने की सूचना दी। यह ख़बर जंगल के आग की तरह पूरे गाँव में फैली और जिसने भी सुना, उसकी नींद सरकारी कर्मचारियों की ईमानदारी की तरह ग़ायब हो गयी।

धीरे-धीरे पूरा गाँव जबरा के घर के आगे इकट्ठा हो गया। पिछले कई वर्षों की यातना के घाव अभी भरे भी नहीं थे कि काल एक बार फिर मुँह फैलाकर खड़ा हो गया। एक झटके में गाँव की सारी पैदावार गुम हो गयी थी। ज़मींदार से शिकायत को छोड़कर और कोई उपाय भी तो नहीं था। पूरा गाँव जबरा पहाड़िया की अगुवाई में ज़मींदार जनार्दन रॉय के गाँव रामगढ़ की ओर चल पड़ा। जब वे रामगढ़ पहुँचे तो वहाँ पहले से ही आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर की अगुवाई में ज़मींदार के दरबार में गुहार लगा रहे थे।

"सरकार हमने आपके कहे मुताबिक पूरी फ़सल एक जगह इकट्ठा कर दी थी पर रात में पूरी फ़सल चोरी हो गयी।" करिया हाथ जोड़े ज़मींदार के आगे गिड़गिड़ा रहा था।
"देखो करिया, 'कर' नहीं देना है तो ऐसे ही बोल दो। मैं गोरे साहब से बात करके उसे माफ़ करवाने की सिफारिश करूँगा पर फ़सल चोरी हो जाने का मिथ्या झूठ तो मत बोलो।" ज़मींदार ने हुक्का गुड़गुड़ाते हुए आमगाछी वालों को समझाने का प्रयत्न किया।

दोनों तरफ से काफी देर तक अनुनय-विनय का दौर चला और अंततः जैसा कि हमेशा होता है कि बड़ा जीत जाता है, यहाँ भी जनार्दन ने हुक्का ख़त्म होने तक करिया को समझाने का प्रयास किया और अंत में सिपाहियों को आदेश देकर उन्हें लाठी-डंडों के ज़ोर पर भगा दिया। करिया को अपनी बात रखने का मौक़ा तो मिल गया था, जबरा को वो मौक़ा भी नहीं मिला। वापस लौटते समय एक संन्यासी, जिसकी कुटिया रास्ते में ही पड़ती थी, उसने ख़बर दी कि रात में ज़मींदार के ही आदमी बैलगाड़ियों में भरकर अनाज ले गये हैं।

''अब भूख से बिलखते बच्चे देखे नहीं जाते जबरा। क्यों न हम पूरे गाँव के साथ सामूहिक आत्मदाह कर लें?" करिया ने इतना कहते हुए जबरा का कंधा थपथपाया तो वह गुस्से से उबल पड़ा।
"हम क्यों करें आत्मदाह? अब तो ज़ुल्म की इंतहा हो गई है काका, पिछला साल तो जैसे-तैसे घास-फूस खाकर निकाल लिया। छील-छील कर अब तो पेड़ की छालें भी ख़त्म हो गयी हैं। लोगों ने काट-पीट कर पेड़ों की जड़ें और तने तक खा लिये पर अब ये साल कैसे निकलेगा? सोचा था इस साल फ़सल अच्छी हुई है तो आराम से रहेंगे पर ऐसे तो हम कभी भी भूख से नहीं उबर पाएँगे।"
"तो अब क्या करेंगे?"
"ज़मींदार के गोदाम पर डाका डालेंगे।"
"डाका!!!"
"हाँ, डाका।"
"पर ये तो ग़लत होगा न जबरा? ऐसा करने के बाद हम काली माई को कौनसा मुँह दिखाएँगे?"
"विधर्मियों के लिए अधर्म का सहारा लेना ही पड़ता है काका। काली माई ने सपने में आकर मुझसे ये बात बताई थी।"

दोनों पहाड़ों के सरदारों ने मिलकर योजना बनाई और महीने का अंधेर पक्ष आते ही रामगढ़ पर चढ़ाई कर दी। पहरे पर लगे सिपाही अनगिनत तीर-धनुष के आगे बौने साबित हुए और पूरा गोदाम देखते ही देखते लूट लिया गया।

जनार्दन रॉय की शिकायत पर गोरे साहब ने घटना की जाँच भी करवायी पर कोई नतीजा नहीं निकला। कारण जबरा और करिया दोनों दिन के उजाले में ज़मींदारों के प्रति पूरी स्वामिभक्ति दिखाते पर रात होते ही उनके माल पर हाथ साफ़ कर आते। लूटे हुए माल को अपने घर में न रखकर ग़रीबों में बाँट दिया जाता, जिससे आसपास के गाँवों में जबरा और करिया की छवि किसी आसमानी फ़रिश्ते जैसी हो गयी। चूंकि सारा काम वेश बदलकर होता था इसलिए किसी को इनका सही नाम भी पता नहीं था। बड़ा-सा तिलक लगाने के कारण लोग इसे तिलका के नाम से जानने लगे, जिसका दूसरा मतलब गुस्सैल या लाल आँखों वाला भी होता है। धीरे-धीरे पूरा संथाल इसे अपना सरदार भी मानने लगा, जिस कारण इनके नाम के साथ माझी भी जुड़ गया। इस प्रकार से इतिहास में एक नए किरदार का जन्म हुआ तिलका माझी।

तिलका माझी अंग्रेज़ी सत्ता के लिए पूरे संथाल परगना में तेरह सालों तक सिर दर्द बने रहे और उससे भी आश्चर्य की बात ये कि तिलका माझी को पकड़ने का ज़िम्मा भी जबरा पहाड़िया को ही मिल रखा था। हो न हो हिंदी मूवी शहंशाह में अमिताभ बच्चन वाला रोल तिलका माझी से ही प्रेरित हो पर दस्तावेजों में ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी पटकथा इंदरराज आनंद और संतोष सरोज ने मिलकर लिखी और मौलिकता का सारा श्रेय लेकर उड़ गये।

फूट डालो राज करो वाली अपनी पुरानी नीति के तहत अंग्रेजों ने एक नई चाल चली, जिसको अमली जामा पहनाने के लिए क्लीवलैंड को संथाल परगना का मजिस्ट्रेट नियुक्त करके भेजा। क्लीवलैंड ने दायित्व सम्हालते ही ओहदे और धन का लालच देकर तिलका माझी के अभेद्य राज़ से पर्दा उठाने की चाल चली, जो कि एक सहयोगी की मुख़बिरी से कुछ ही दिनों में फलीभूत हो गयी।

तिलका और करिया जब अंग्रेजों के एक दल को लूटकर लूट का माल गाँवों में बाँट रहे थे तो मुख़बिर ने दूर जंगल तक उनका पीछा किया, जहाँ पर वो अपना छद्म रूप बदलकर अपने असली रूपों में आये। करिया ने तो भागकर जैसे-तैसे अपनी पहचान छुपा ली पर जबरा पहाड़िया के राज़ से पर्दाफ़ाश हो गया।

"तो जबरा पहाड़िया ही तिलका माझी है?"
"हाँ, हुजूर।"

मुख़बिर की झोली भरकर उसे इस काम का ईनाम दे दिया गया।

जबरा पहाड़िया का भेद खुल चुका था। अंग्रेज़ी सरकार से लेकर स्थानीय निवासियों तक सबको पता चल चुका था कि तिलका माझी कौन है। भेद खुल जाने के बाद जबरा ने और आक्रामक होकर अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ लोगों को समझाना शुरू किया, इसके लिए उसने जगह-जगह सभाएँ कीं।

"जिनको हमारे जल, जंगल, ज़मीन से कोई लेना देना नहीं है, हम उन्हें अपनी हाड़-मांस की कमाई का हिस्सा क्यों दें? माटी हमारी माँ है। जंगल अपना मित्र फिर ये फिरंगी बीच में कहाँ से आ गये। माना कि उनके पास बंदूकें हैं, घोड़े हैं, गाड़ियाँ हैं पर इसका मतलब ये तो नहीं कि हम उनसे डरकर उनकी अधीनता स्वीकार कर लें। मेहनत हमारी है तो उस पर हक़ भी हमारा ही होगा। हम किसी का गुलाम बनकर उसके जूते और लात खाकर सौ सालों तक जीवित रहें, इससे बेहतर है कि हम लड़ते हुए जवानी में ही मर जाएँ। अगर हमने आसानी से फिरंगियों की अधीनता स्वीकार कर ली तो आने वाली पीढियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी।"

जबरा ने इतना कहकर अपना तीर-धनुष उठाया और जाने लगा।

जबरा पहाड़िया की .... जय! के उद्घोष के साथ पूरा सिंगारसी पहाड़ गूँज उठा। बूढ़े, बच्चे और जवान धीरे-धीरे करके जबरा के पीछे हो लिए। औरतों ने भी समूह का भरपूर साथ दिया और देखते ही देखते पूरा संथाल परगना अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह की आग में जलने लगा।

भारत में अंग्रेजों के पैर और मज़बूत करने के लिए ब्रितानी संसद ने 1774 में 'पिट्ज़ इंडिया एक्ट' बनाया था, जिसके तहत कार्य प्रणाली से लेकर कार्य पालिका तक में आमूलचूल परिवर्तन किए गये थे। स्थानीय राजाओं से संधि के अधिकार से लेकर मन मुताबिक कर लगाने और किसी राज्य पर हमला करके उसे अंग्रेजी शासन के अधीन कर लेने का अधिकार अब भारत में नियुक्त अंग्रेज़ी प्रतिनिधियों के कार्य क्षेत्र का ही हिस्सा था। इसी एक्ट के पास होने के बाद कंपनी द्वारा अधिकृत क्षेत्र, अब अंग्रेजी संसद के अधीन आ गया था। भारत में कंपनी ने पाँव पसारना तो वर्षों पहले ही शुरू कर दिया था पर इसके बाद उसने लौटने की भी पूरी तैयारी कर ली थी।

करिया पुजहर और जबरा पहाड़िया भूमिगत होकर ही सारे कामों को अंजाम दे रहे थे। एक दिन सिंगारसी पहाड़ के नज़दीक ही एक पहाड़ पर क्लीवलैंड ने अपने सिपाहियों के साथ उन्हें घेर लिया। करिया पुजहर की बग़ावत के बारे में अब तक अंग्रेजों के पास कोई जानकारी तो थी नहीं इसलिए जबरा ने उसे वहाँ से निकल जाने के लिए कहा और स्वयं मोर्चे पर आगे बढ़ गये। कई विद्रोहियों के मारे जाने के बाद भी जबरा ने हिम्मत नहीं हारी और अपना धनुष-बाण लेकर एक ताड़ के पेड़ पर चढ़ गये। वो वहीं छुपकर क्लीवलैंड के आने का इंतज़ार करने लगे। घण्टों इंतज़ार के बाद जैसे ही क्लीवलैंड इन्हें घोड़े पर बैठा आता नज़र आया तो एक ही तीर से इन्होंने उसका काम तमाम कर दिया।

क्लीवलैंड की मौत के बाद आयरकुट को जबरा पहाड़िया को समाप्त करने का दायित्व सौंपा गया। ऑरकुट ने बड़ी ही चालाकी से मुख़बिरों के माध्यम से इलाके को मुक्त कर देने का वायदा करके जबरा को मिलने के लिए बुलाया और गिरफ्तार कर लिया। यहाँ से चार घोड़ों में बाँधकर खींचते हुए उन्हें भागलपुर तक लाया गया। इतना कुछ होने के बावजूद भी जबरा के माथे पर शिकन के बजाय गुस्सा ही फूट रहा था। यहाँ चौराहे पर खुले में बरगद के पेड़ से लटकाकर इन्हें मौत की घाट उतार दिया गया। 13 जनवरी 1785 की तारीख़ इस घटना की गवाह बनी।

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रचनाकार परिचय

दिवाकर पांडेय 'चित्रगुप्त'

ईमेल : pandeydivakar.pandey.dp@gmail.com

निवास : लखनऊ (उ०प्र०)

प्रकाशित पुस्तकें- गोपी (लघुकथा संग्रह), चित्रगुप्त का समाधान, तमाशाई व सीधे-सच्चे व्यंग्य (व्यंग्य संग्रह), हवा इस ओर की चलती नहीं है (ग़ज़ल संग्रह), हारा हुआ नायक (उपन्यास)
निवास- लखनऊ (उ०प्र०)
मोबाइल- 7526055373