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शिज्जू शकूर की ग़ज़लें

शिज्जू शकूर की ग़ज़लें

दर्द की शक्ल बदलते ही बदल जाते हैं
मेरे अल्फ़ाज़ नये सांचों में ढल जाते हैं

क्या ज़रूरी है कि ठोकर से सबक़ ले कोई
जो समझदार हैं, पहले ही सँभल जाते हैं

ग़ज़ल- एक

था इंतज़ार मुझे चाँद के निकलने का
ये वक़्त है मेरे एहसास के पिघलने का

सुनहरे रंग की दिखती है ज़िंदगी यारो
है पुरसुकूं ये नज़ारा अलाव जलने का

वो आँच छोड़ गया मुस्कुराते होंठों की
किया था अह्द कभी जिसने साथ चलने का

वो लड़खड़ा गया ख़ुद हाथ छोड़कर मेरा
जो दे रहा था मुझे मशविरा सँभलने का

उनींदी पलकों तले देखता रहा शब भर
नज़ारा ख़्वाब के परछाइयों में ढलने का

न मेरे पंख खुले और न ज़िंदगी बदली
मुझे न आया हुनर बख़्त को बदलने का

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ग़ज़ल- दो

दर्द की शक्ल बदलते ही बदल जाते हैं
मेरे अल्फ़ाज़ नये सांचों में ढल जाते हैं

क्या ज़रूरी है कि ठोकर से सबक़ ले कोई
जो समझदार हैं, पहले ही सँभल जाते हैं

अपनी आज़ाद तमन्नाओं के पर खोल रखो
तेज़-रौ होते हैं लम्हात निकल जाते हैं

सिर्फ़ तकदीर का ये खेल नहीं है यारो
खोटे सिक्के भी जो बाज़ार में चल जाते हैं

दब के सागर में हमेशा के लिए रहते नहीं
दफ़्अतन याद के कुछ मोती उछल जाते हैं

आज़माते हैं मेरा ज़र्फ़ जलाकर मुझको
फिर यूँ होता है कि वो मुझसे ही जल जाते हैं

ख़ूब रखते हैं हुनर ख़्वाब-फ़रोशी का जनाब
ख़्वाब के ज़िक्र ही से लोग बहल जाते हैं

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ग़ज़ल- तीन

दिल में कोई डर हो तो मेरे साथ चलो
ग़म पेश-ए-नज़र हो तो मेरे साथ चलो

तकलीफ़ ही पाओगे मेरे साथ फ़क़त
गुरबत में बसर हो तो मेरे साथ चलो

काँटों के सिवा राह में कुछ होगा नहीं
जीने का हुनर हो तो मेरे साथ चलो

ऐ दोस्त सियासत का नया दौर है
शब्दों में शरर हो तो मेरे साथ चलो

ग़द्दार न कह दें तुम्हें सच कहने पे लोग
पत्थर का जिगर हो तो मेरे साथ चलो

आपस में लड़ाना तो है ही कार-ए-जहां
वश ख़ुद पे अगर हो तो मेरे साथ चलो

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ग़ज़ल- चार

ख़ामोश ही रहे जिसे खोने के डर से हम
अब तक निकल सके नहीं उसके असर से हम

मंज़िल कभी मिली न किसी राह पर हमें
नाकाम लौट आए हैं फिर इक सफ़र से हम

हमको यकीं नहीं कि सलामत रहेंगे ख़्वाब
फिर भी इन्हें तराशते हैं शीशा-गर से हम

नफ़रत ने फिर किसी के मकां को गिरा दिया
जाने नजात पाएँगे कब इस ख़बर से हम

इल्ज़ाम कुफ़्र का कहीं तोहमत फ़रेब की
आख़िर कोई बताए कि गुज़रें किधर से हम

अपनी नज़र पे क्यों कोई शुब्हा ही हम रखें
वाकिफ़ हैं जब ज़माने की हर इक नज़र से हम

क्या लुत्फ़ जिंदगी में अगर दर्द ही न हो
दुनिया को साफ देखते हैं चश्म-ए-तर से हम

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ग़ज़ल- पाँच

न यूँ ही वो झुका होगा
हवाओं से लड़ा होगा

अजब है हौसला उसमें
वो बेटी का पिता होगा

ज़रा गैरत तो दिखती है
सियासत में नया होगा

ज़मीं छोड़ी नहीं उसने
वो मिट्टी से जुड़ा होगा

यहाँ हर गाम काँटें हैं
सही यह रास्ता होगा

है जाहिर उसकी चुप्पी से
वो मुझको जानता होगा

जिगरवाले नहीं कहते
कि आगे जाने क्या होगा

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रचनाकार परिचय

शिज्जु शकूर

ईमेल : shijjus2@gmail.com

निवास : रायपुर (छत्तीसगढ़)

लेखन विधा- ग़ज़ल
प्रकाशन- तीन ग़ज़ल संग्रह 'ज़िंदगी के साथ चलकर देखिए', 'उम्र भर का जागना', 'बिखरे हुए लम्हात' तथा उपन्यास 'गुंजाइश' प्रकाशित।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं तथा साझा संकलनों में ग़ज़लों का प्रकाशन
निवास- रायपुर (छत्तीसगढ़)