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डॉ० मीनू अग्रवाल की कविताएं

डॉ० मीनू अग्रवाल की कविताएं

चेहरे पर उभरी ये नक़्काशी
ही तो करती है बखान 
चरित्र की महिमा का  
और उनके मध्य उठती
स्निग्घ मुस्कान की सरल रेखा
अदा कर रही है शुक्रिया 
प्रकृति की हज़ार नेमतों का भी!!

कविता- एक
 
कलरव
 
चूं चूं चीं चीं चाँ चाँ चोंचों 
गूँजती इन चिंहचिन्हाटों में 
कहना क्या चाहता है
ये चिड़ियों का नन्हा गिरोह !
 
क्या रात के देखे सपनों की बातें
या आज की उड़ान के मंसूबे
या अरुण उषा से है ये ठिठोली
या अपनी पाठशाला में 
रटाया हुआ कोई पाठ !
 
और फ़िर,
पल भर में ही उड़ चलती हैं 
एक क़तार में
छेड़ती हुई 
पवन की वीणा पर अनोखे राग।
 
देखा है ऐसा भी
कहीं किसी डाल पर
करती है कोई
अकेले भी रियाज़ ।
 
सुरीले  इन तरानों का
लेती तो हूँ आनंद, पर
उससे भी अधिक
चाहती हूँ जानना,
इनके पीछे  छिपा अबूझा राज़ !
 
 
******************
 
 
 
कविता- दो
 
अपनी ख़ुशियाॅं मैं बुन लेती हूँ
 
फैले घनात्मक कोहरे में
प्रकाश की चंद किरणें दूँढ़ लेती हूँ
उनसे फ़िर, अपनी ख़ुशियाॅं मैं बुन लेती हूँ।
 
भागती ज़िन्दगी की दौड़ में
घास की नव हरियाली
नज़रों में भर लेती हूँ
उनसे फ़िर, अपनी ख़ुशियाँ मैं बुन लेती हूॅं।
 
पतझड़ में गिरे पत्तों की खड़खड़ाहट में
कुछ गुनगुनाहट सुन लेती हूँ
उनसे फ़िर, अपनी ख़ुशियाँ मैं बुन लेती हूँ ।
 
विपदाओं के दर्दीले कोलाहल में
कलरव की  मद्धिम धुनें सुन लेती हूँ
उनसे फ़िर, अपनी ख़ुशियाँ मैं बुन लेती हूँ ।
 
संगी साथियों के उलाहनों में
सम-वेदना के अंश ढूँढ लेती हूँ, समझकर,
उनसे  फ़िर, अपनी खुशियाँ मैं बुन लेती हूँ
 
कभी कुछ पल, कुछ घण्टे, कुछ दिन
लग जाते हैं ढूॅंढने में ,
अंततः उन्हें पा ही लेती हूँ
उनसे फ़िर, अपनी ख़ुशियाँ मैं बुन लेती हूँ !!
 
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कविता- तीन
 
झुर्रियाँ 
 
चेहरे पे उतर आयीं वो
जिन्हें हम कहते हैं झुर्रियाॅं
कभी चाहें तो जानें
कितना कुछ कहती हैं वो।
 
कुछ खिंचीं हैं सीधी सीधी
नादान बचपन सरीखीं 
कुछ दो राहों में बॅंटती सी 
क़िस्सा किसी कठिन निर्णय का कहतीं
 
कुछ उठती गिरती खामोश पड़ी थीं जो अब तक
मचल कर हुई जा रहीं वाचाल सुनाने 
कितनी बार उठती गर्भों और 
गिरायी कोखों की दास्तानें
पति के वंश का सुत जनने ख़ातिर
 
अन्य कुछ झुर्रियाॅं भी हैं जतन दराज़
सुनाती जो जीवन के संघर्ष को
जिसे उठाया और जिया गया है अनेक जतनों से
 
कुछ बिछी हैं शतरंज की बिसात सी 
जब आज़माया गया था बुद्धि को 
और सिद्ध किया था कौशल को भी
 
चेहरे पर उभरी ये नक़्काशी
ही तो करती है बखान 
चरित्र की महिमा का  
और उनके मध्य उठती
स्निग्घ मुस्कान की सरल रेखा
अदा कर रही है शुक्रिया 
प्रकृति की हज़ार नेमतों का भी!!

******************
 
 
 
कविता- चार
 
परिपूर्ण शून्य
 
एक शून्य ही तो है 
जो परिपूर्ण है ।
 
न किसी से जुड़कर बढ़ाना है उसे
न किसी को खींच कर गिराना है
न गुणा कर बढ़ने की चाह कोई
न होना विभाजित अंशों में
 
रहता मगन अपने में ही जो
देखा जाता फिर भी हिक़ारत से वो
समझा जाता नहीं कुछ
पर वही तो पूर्ण है 
 
बिना किसी आदि के
न ही उसका अंत है कोई ।
अविभाजित,
स्वयं में संपूर्ण है
वह शून्य है
वह शून्य है !!
 
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कविता- पाँच
 
तस्वीरें
 
खटखटाती हैं साॅंकलें कुछ
और देतीं हैं दख़ल
उन गलियारों में
जहाॅं चल रही है
यादों की चुप गुफ़्तगू ।
 
मचाकर खलबली
ले चलती हैं 
स्मृतियों के समंदर की ओर
जहाॅं, एक मीठी सी हलचल
दिखाती है मासूम वो पल
जब मुस्कान थी तोतली
और पग पड़ते डगमग डगमग
खिल रही नन्हीं बुद्धि जहाॅं
बिखेर रही अलाप अंट शंट !
 
हलचलों में अब उठती लहरें
लगीं हैं  तट पर बिखेरने
अनकही बातें,
सतरंगी सपने,
अधूरी ख़्वाहिशें,
अव्यक्त अभिलाषाएं भी .
 
 
उठ रहा है सैलाब अब यादों में
टूटे आदर्शों,
विफल मुकामों,
आहत संवेदनाओं 
और, न माॅंग सकी
अनेक क्षमायाचनाओं का !
 
और, सैलाब के बाद…
गहरी ख़ामोशी ।
चित्र हो चले ओझल
यादें तलहटी में जा बसीं
भावनाएं फिर मौन हो चलीं ।

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रचनाकार परिचय

मीनू अग्रवाल

ईमेल : meenu_ag1000@yahoo.co.in

निवास : दुबई (यू. ए. ई.)

नाम- डॉ० मीनू अग्रवाल 
जन्मतिथि- 1961 
जन्मस्थान- मुंबई(महाराष्ट्र)
शिक्षा- एम. बी. बी. एस., एम. डी.(बाल रोग विक्षेसाहगी)
लेखन विधा- आलेख, बाल साहित्य, कविता 
संप्रति- चिकित्सक (बाल रोग विशेषज्ञ)
प्रकाशन- विभिन्न साझा संकलनों एवं पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित 
पता- दुबई (यू.ए.ई.)
मोबाईल- +97 1508549410