Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

स्नेह गोस्वामी की कहानी 'ऐसा यहाँ होता है'

स्नेह गोस्वामी की कहानी 'ऐसा यहाँ होता है'

बिशनसिंह ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखी। अभी तो साढे नौ ही बजे हैं, वे लोग ग्यारह बजे से पहले तो क्या ही आएँगे। साढ़े दस का तो टाइम ही दिया है उन्होंने। उसे अपनी घड़ी पर गुस्सा आया। आज इतनी धीमी चल रही है कि ले राम का नाम। फिर अपनी ही सोच पर उसे हँसी आ गयी। बेचारी घड़ी का क्या कसूर!

बिशनसिंह का आज किसी काम में मन नहीं लग रहा। सुबह से कितनी बार वह घर के और बाहर के चक्कर लगा चुका है, उसे भी नहीं पता। घबराहट है या खुशी, यह कहना भी मुश्किल है। उसके माथे पर पसीने की बूँदे दिखाई दे रही हैं और सर्दी के इस ठंडे मौसम में उसकी बगलें भीगी पड़ी हैं। पूरा घर इस समय तैयारियों में व्यस्त है। रधिया ने सोफा कवर बदल दिये हैं। पलंग पर नयी चादरें बिछाकर तकिए के नये गिलाफ चढ़े सिरहाने सजा दिये हैं और पूरा घर सजा-सँवार दिया है। अब रसोई के पास चौकी बिछाकर सलाद काट रही है। उसकी बेटी नीरु रसोई में क्राकरी और कटलरी धो-पोंछ कर सजा रही है। अमन बाजार से खाने-पीने का सामान लाने गया है। जसप्रीत कौर ने सब्जियों को तड़का लगा दिया है और रसोई बहु को सौंपकर वह नहाने चली गयी है। बहु अभी-अभी मनिंदर को तैयार करवाकर ब्यूटी पार्लर से लौटी है। उसका अपना चेहरा भी तरह-तरह की क्रीमें लगाने से लिशक रहा है। तैयार-शैयार होने के बाद उसका रसोई में जाकर खड़े होने का इस समय बिल्कुल मन नहीं था पर क्या करती! सास का हुक्म है और उस पर यह मौका, इसलिए वह अपना पलाजो संभालती रसोई में जा पहुँची है। बेमन से ही सही, कड़ाई में दो बार करछी चला दी है।

बिशनसिंह ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखी। अभी तो साढे नौ ही बजे हैं, वे लोग ग्यारह बजे से पहले तो क्या ही आएँगे। साढ़े दस का तो टाइम ही दिया है उन्होंने। उसे अपनी घड़ी पर गुस्सा आया। आज इतनी धीमी चल रही है कि ले राम का नाम। फिर अपनी ही सोच पर उसे हँसी आ गयी। बेचारी घड़ी का क्या कसूर! यह तो बेचारी अपनी गति से ही चलेगी न! दरवाजे के सामने से हटकर वह कोठी की पिछली तरफ के बराण्डे में आ गया और वहाँ पड़े मूढे पर बैठ, सिर दीवार से लगा लिया। आँखें बंद करके वह यादों में डूब गया। याद करने लगा वह दिन, जब मनिंदर को इस दुनिया में आना था।

मनिंदर से पहले उसका एक बेटा था जोगिंदर। गोलू-सा, प्यारा-प्यारा। जसप्रीत बेहद संतुष्ट थी। पूरा दिन उसी को सजाने-सँवारने में लगी रहती। जोगिंदर तीन साल का हुआ तो उसके तीसरे जन्मदिन पर ढेर सारे खिलौने खरीदे थे बिशनसिंह ने। सारे मौहल्ले के लोगों को दावत दी थी। बड़ा-सा केक काटा था और सारे लोग देर रात तक नाच-गाने और खाने-पीने में मगन हो गये थे। उसी रात अंतरंग क्षणों में बिशन सिंह ने जसप्रीत से एक और बेटे की फरमाइश की थी। और महीना बीतते न बीतते इस फरमाइश के पूरे होने की गुंजाइश दीखी तो बिशनसिंह की खुशियों को पंख लग गये थे। वह घर घुसता तो गीत गाता घुसता। चेहरा हमेशा गुलाब की तरह खिला रहता। जसप्रीत को हमेशा खुश रखने की कोशिश करता। चौथे महीने जब वह जसप्रीत को चैकअप के लिए डॉक्टर के पास ले गया तो उसने डाक्टर से लिंग जाँच की बात की। पहले तो डॉक्टर तैयार ही नहीं हुई फिर जब मोटी गड्डी मेज पर टिकी तो मान गयी। रिपोर्ट बिशनसिंह के मनपसंद की आई थी। गर्भ में लड़का ही है, इसकी पुष्टि हो गयी थी। पहली बार जोगिंदर के समय भी तो ऐसा ही हुआ था। रब की मेहर कि इस बार भी रब ने लड़का ही झोली में डाला था।

बिशनसिंह ने जसप्रीत की खुराक में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बादाम, किन्नू, संतरे, देसी घी और भी न जाने क्या-क्या ढेर लगा दिये थे उसने। दूध, दही, लस्सी, जूस हर वक्त हाजिर रहता। छठे महीने ही रिश्ते की बहन को काम-धंधे के लिए बुलाया तो जसप्रीत ने विरोध किया था दबे सुर में।
"इतनी जल्दी क्या है जी, अभी तो साढ़े तीन महीने पड़े हैं।"
"ओए, तू चुप कर। आराम से रह और मेरे दोनों बेटों को सम्हाल। काम-काज को बिंदी आ जाएगी। रधिया की माँ है ही। तुझे सहारा हो जाएगा।"
अगले ही दिन बिंदी का दूल्हा, बिंदी को छोड़ गया था। बिंदी ने दो दिन में ही सारे घर का काम सम्भाल लिया था और जसप्रीत जोगिंदर को सम्भालने के लिए खाली हो गयी। नियत दिन और नियत समय पर जसप्रीत को अस्पताल ले जाया गया। बिशनसिंह को बेटे के जन्म का इंतजार था। नर्सें जसप्रीत को लेबररूम में ले गयीं तो बिशनसिंह ने लड्डुओं के टोकरे मगवा लिये। शराब का स्टाक तो पहले ही उसने लाकर रख लिया था। भई दो बेटों का बाप हो रहा था। पार्टी तो होनी ही थी। एक-एक पल इंतजार करना उसे भारी पड़ रहा था। कब लेबररूम का दरवाजा खुले और नर्स या डॉक्टर उसे आकर बधाई दे। वह हाथ पर हाथ धरे इधर से उधर टहल रहा था कि लेबररूम का दरवाजा खुला। नर्स छोटे से बच्चे को तौलिए में लपेटे हुए प्रकट हुई। उसने लपक कर बच्चे को गोद में लिया। जेब में हाथ डाला। नर्स को बधाई देने केलिए पर्स खोल ही रहा था नर्स ने धीरे से कहा– बेटी हुई है सरदारजी।
बिशनसिंह का हाथ जैसे वहीं जड़ हो गया।
"क्या!!"
"जी, बेटी हुई है।"
बिशनसिंह को ऐसा लगा जैसे किसी ने बर्फी और लड्डू का थाल दिखाकर हाथ में एक मूली थमा दी हो।
ऐसा कैसे हो सकता है? पिछले छ महीने से वह बेटे का बाप बनकर चौड़ा होकर घूम रहा था और अचानक उसे यह बेटी थमा दी गयी। क्या बच्चा किसी से बदल गया था? पर ऐसा कैसे हो सकता था! आज तो दूसरा कोई प्रसूत केस आया ही नहीं था।
नर्स उसे हैरान-परेशान छोड़ गायब हो गयी थी। तभी डॉक्टर सामने से आती दिखी तो वह भागकर उनके पास पहुँचा, "डॉक्टर रिपोर्ट में तो बेटा था न!"
"देखो भई डॉक्टर भगवान नहीं होता। उस रिपोर्ट में तब जो आया, आपको बता दिया गया था। अब यह बेटी आई है तो आपको दे दी गयी है। ईश्वर का धन्यवाद करिये कि आपका परिवार पूरा हो गया। बेटा पहले से था, अब बेटी आ गयी है। और बेटियाँ किसी से कम होती हैं क्या? इसे पालिए, पढ़ाइए, लिखाइए। यह आपका नाम रोशन करेगी।
डॉक्टर उसे वहीं खड़ा छोड़कर आगे बढ गयी थी। वह वहीं खड़ा रह गया था। बिंदो ने आगे आकर पूछा था- "क्या हुआ भाई जी?"
और वह बच्ची बिंदो को पकड़ाकर बिना कोई जवाब दिए बाहर की ओर मुड़ गया था। जसप्रीत को देखने की उसकी इच्छा कहीं खो गयी थी। बच्ची बिंदी के हाथ में ही पकड़ी रह गयी थी। लड्डुओं के टोकरे भी धरे के धरे रह गये।
दूसरे दिन जसप्रीत को छुट्टी मिलनी थी पर बिशनसिंह का कोई पता नहीं था। वह सबसे नाराज अकेला कहीं भटक रहा था। बच्ची की तो उसे शक्ल देखना भी गवारा नहीं था। आखिर शाम गये शरीके का भाई मदनसिंह अस्पताल आया और जसप्रीत को छुट्टी दिलाकर ले गया। घर में भी अजीब-सा मातम पसरा पड़ा था।

बिंदी को अपना नेग मर जाने की चिंता थी। बड़ी उम्मीदें लेकर चचेरे भाई के घर आई थी। बेटा हुआ तो सुच्चे पाँच सूट अपने, दो अपने घरवाले के, चाँदी की पायल, सोने की बालियाँ और इक्यावन सौ रुपये इतने तो पक्के ही मिल जाने थे। थोड़ा झगड़ा करती तो ज्यादा की उम्मीद भी हो जाती पर अब किस मुँह से नेग की बात करे और किससे करे।

बिशनसिंह अपने फिक्रों में गुम था। लड़की होने का मतलब कम से कम तीस लाख में शादी। ऊपर से जट्ट की मूछ का सवाल। पता नहीं किन भङुओं के सामने हाथ जोड़ने पड़ेंगे। वह सारा-सारा दिन सोचों में डूबा रहता। लड़का हुआ होता तो उसने शराब की नदियाँ बहा देनी थी। ढोल बजवाने थे। खुसरे नचाने थे। घर में अखंड पाठ करवाना था। लंगर वरताना था। पर सारे के सारे अरमान मन के मन में ही रह गये। अब लड़की होने पर वह क्या रोये, क्या गाये! कैसे लंगर, कैसी पार्टियाँ सब बीच में ही रह गया। जसप्रीत ने दसवें दिन नहाने के बाद उसे बुलाया भी पर वह गया ही नहीं।

मनिंदर के बीस दिन की होते ही उसका बड़ा साला आया था अपनी बहन को लिवाने। तब उसने अपने साले की गोद में अपनी बेटी को पहली बार देखा था। गोरी-चिट्टी गुलगुली-सी एकदम बरफ का गोला लग रही थी। मामा की गोद में सोई हुई कोई परियों की शहजादी। शाम होते ही जसप्रीत दोनों बच्चों को लेकर मायके चली गयी थी। उसके जाते ही बिंदी भी जाने को तैयार हो गयी।

ले भाई अब मैं भी जाऊँ तीन महीने से थोड़ा ऊपर ही हो गया है मुझे आये हुए। बिशनसिंह ने जेब से दस हजार रुपये निकालकर बहन को पकड़ाए तो बिंदी अंदर से लिफाफे उठा लाई। भाई-भाभी ने पाँच सूट और ये पायलें पहले ही दे दी हैं। तू पैसे रख। पर बिशनसिंह ने पैसे वापस नहीं लिये– बहना तेरी किस्मत के निकाले हैं, तू ले जा।

बिंदी आँखों में आँसू भर आये– भाई, रब लड़का दे देता तो खुशी-खुशी ले जाती। थोड़ा रुककर उसने कहा– भाभी पहले ही बहुत दुखी है। ऊपर से तूने बुलाना छोड़ दिया बीरे! बता उसका क्या कसूर है? तू उसे जल्दी ले आना।
उसने बहन के सिर पर हाथ रखकर साफे के लड़ से अपनी आँखें पोंछ ली थीं। बिंदी चली गयी थी तो यह घर उसे काट खाने को दौड़ता। अकेले उससे न घर सँभलता न बाहर। एक अमरीकन गाय जसप्रीत ने बच्चों के दूध के लिए बाँध रखी थी। वह उसे चारा डालना व धार निकालना भूल जाता। रोटी वेले-कवेले कोई शरीकन दे जाती और साथ ही पूछ जाती– भाई, जसप्रीत को कब लेने जा रहा है? उसके बिना घर में रौनक ही नहीं है।

आखिर जिस दिन मनिंदर सवा महीने की हुई, उससे अगले दिन ही वह अपनी ससुराल में था। उसकी सालेहार ने जब मलाई के गोले जैसी बच्ची उसके हाथ में ला पकड़ाई तो वह घबरा गया था– भाभी यह तो बहुत छोटी है। कहीं करड़ा हाथ लग गया तो...! एक दिन वह वहीं रहा था। फिर उसने जसप्रीत को चलने के लिए कहा था।

चलने से पहले जसप्रीत की माँ ने उसे हौंसला दिया था– देख बेटा, इस दुनिया में हर जीव अपनी किस्मत लेकर आता है। यह बच्ची भी अपना नसीब लेकर आई है। देखना, तेरे घर में लहर-बहर हो जानी है। इसका मुँह कभी फिटकारना मत।

सारी तैयारी उन्होंने पहले ही कर रखी थी और वह अपने बच्चों के साथ उनकी माँ को घर ले आया था। घर आकर जसप्रीत ने पूरा घर पहले की तरह सम्भाल लिया था। हाँ, कामकाज के लिए बिशनसिंह ने दो कामियाँ रख दी थीं, एक गाय को चारा-पट्ठे डाल कर गोबर कूड़ा करने के लिए। दूसरी घर के छोटे बड़े कामों के लिए। जसप्रीत को सुख हो गया था पर रसोई में वह किसी को घुसने न देती। दही, घी सम्हालने से लेकर रोटी-सब्जी बनाने और बर्तन मांजने तक का सारा काम वह खुद करती।

धीरे-धीरे जोगिंदर और मनिंदर बड़े होने लग पड़े थे। जोगिंदर पाँच साल का हुआ तो वह स्कूल जाने लगा था। नन्हीं मनिंदर उसके स्कूल जाने के समय उसकी किताबें उठाने की कोशिश करती। उसकी पानी की बोतल लेकर धीरे-धीरे चलती। वह रोटी खाता तो वह भी अपने लिए रोटी की माँग करती। रोटी मिल जाती तो खुश होकर भाई के साथ ही चिपककर बैठ जाती रोटी खाने। बिशनसिंह उसे इस तरह रोटी खाते देखता तो निहाल हो जाता और जब जोगिंदर जूते पहन कर स्कूल के लिए निकलता तो रो-रो कर घर सिर पर उठा लेती। शाम को स्कूल से मिला काम करने बैठता तो वह भी कॉपी-पैंसिल लेकर बैठती।

धीरे-धीरे दिन बीतने लगे थे। बच्चे बड़े हो रहे थे। साथ ही बिशनसिंह और बच्ची के बीच जमी बरफ भी पिघलने लगी थी। अक्सर बिशनसिंह मनिंदर को कंधे से लगाए कोई खेल खेलता नजर आता। अब वह उसके लिए सुंदर-सुंदर फ्राकें और खिलौने लाता। मनिंदर बहुत सुंदर निकली थी और उतनी ही जहीन भी। हमेशा अपनी क्लास की पहली तीन पोजीशनों में से एक उसके लिए पक्की रहती। जितनी वह पढाई में तेज थी, उतनी ही खेलों में। हमेशा मैडल लेकर लौटती और माँ बापू का मन खुश कर देती। बिशनसिंह को उस पर प्यार आने लगा था पर अक्सर वह उससे खेल रहा होता कि उसकी आँखों के सामने किसी अनपढ़, बूजड़ जट्ट का चेहरा आ जाता। साथ ही अपनी बंद मुट्ठियाँ और जुड़े हाथ, जो किसी के सामने जुड़कर मनिंदर की शादी के लिए मिन्नतें कर रहे होते। डर कर वह अपनी आँखें बंद कर लेता। लंबी-लंबी साँसे लेकर खुद को सामान्य करने की कोशिश करता।

इसी तरह एक-एक सीढी चढते जोगिंदर और मनिंदर आठवीं पास कर गये। नोवीं में मनिंदर को सरकार से स्कालरशिप मिली थी और बोर्ड की कक्षाओं में वह मैरिट में आई थी। उसके बारहवीं पास करते ही शरीके की चाचियाँ, ताइयाँ, बुआ उसके लिए रिश्ते सुझाने लग पड़ी थीं पर बिशनसिंह अड़ गया था– न जी न, अभी तो बहुत छोटी है। और लड़कों का कहीं अकाल पड़ने वाला है क्या? अभी तो मुझे इसे पढ़ाना है। जितना यह पढ़ना चाहेगी, उतना। एम० फिल करेगी और उससे भी आगे कुछ होता है तो वह भी। अभी रिश्ते की बात न ही करो तो अच्छा है।
शरीके की भाभियों ने भथेरा समझाया था बिशनसिंह को– भई लड़कियाँ ठहरी बिगाना धन। परायी अमानत होती हैं। ज्यादा पढ़ाकर क्या करोगे? पकानी तो घर की रोटियाँ ही हैं। बारहवीं पास है तो कोई बारहवीं या दसवीं पढ़ा लड़का सैट आ जाएगा। ज्यादा पढ़ाकर उतना ही पढ़ा-लिखा लड़का कहाँ से लाओगे और जितना अगलों का लड़का पढ़ा होगा, उतना ही नोटों से भी तोलना पड़ेगा। इसलिए भलाई इसी में है कि जल्दी से जल्दी रिश्ता ढूँढकर इसे विदा करो। पर बात बिशनसिंह के मन को नहीं जँची तो नहीं जँची। रिश्तेदार और शरीक मुँह बनाते हुए चले गये थे।

जोगिंदर ने आगे पढने से इंकार कर दिया था और घर की खेती संभालने लग गया था। दोनों बाप-बेटे ने खेतों के साथ लगती कुछ जमीन और भी खरीद ली थी और घर का गुजारा अच्छे-से होने लगा था। मनिंदर ने बी०ए० ऑनर्स लेकर पास की थी और आगे पढने के लिए शहर के कॉलेज में दाखिला लिया तो बिशनसिंह ने गाँव छोड़कर शहर में कोठी ले ली थी। गाँव की जमीन ठेके पर दे दी गयी। जोगिंदर की मौज हो गयी थी। वह सारा दिन इधर-उधर घूमता रहता। इस बीच उसकी शादी कर दी गयी। बहु घर आ गयी थी। फिर एक दिन मनिंदर की एम०ए०, एम० फिल पूरी हो गयी और वह एक स्थानीय डिग्री कॉलेज में पढ़ाने लग गयी। वह जब घर से कॉलेज के लिए निकलती तो बिशनसिंह का दिल मुट्ठी में आ जाता। अगर वहीं कॉलेज में मनिंदर ने किसी को पसंद कर लिया तो वह क्या करेगा और जब शाम को मनिंदर कॉलेज से सही-सलामत लौट आती तो वाहे गुरु का शुकर करता।

बीबी अब अक्सर मनिंदर के लिए रिश्ता ढूँढने के लिए कहने लगी थी। वह अक्सर उसे याद दिलाती– सुनो जोगिंदर और मनिंदर में चार साल का ही तो फरक है। सिरफ तीन साल और दस महीने ही तो छोटी है और जोगिंदर की शादी को छ: साल होने को हैं। एक बेटे का बाप भी हो गया है। अब मनिंदर का भी फिकर करो।

बिशनसिंह सुनकर अनसुना कर देता है। कैसे कहे कि वह लोगों के सामने झुकने को तैयार नहीं है। कि हाथ जोड़ने में उसकी हेठी होती है। इसी सबके चलते मनिंदर तीस साल पार कर गयी है। इस बार बड़े भाई ने एक रिश्ता भेजा है तो मना कैसे करता। अब कुछ ही देर में वह लोग आने वाले हैं। लड़के की माँ, पिता, बहन और जीजा। चार लोग आएँगे। लड़का एग्रिकल्चर से एम०एस०सी० है और एग्रिकल्चर डिपार्टमैंट में अच्छी पोस्ट पर काम कर रहा है। इकलौता लड़का है। एक बहन थी। उसकी डेढ़ साल पहले शादी कर दी है। गाँव में दस किल्ले जमीन है यानी कि मना करने की कोई गुंजाइश नहीं। तो उसने आने के लिए कह दिया है। ऊपर से वे लोग भी आने के लिए मान गये हैं। बिशनसिंह मनिंदर के जन्म से लेकर अब तक किये अपने इरादों को याद करना चाहता है कि जब-तब हर रिश्तेदार की शादी में वह अपना संकल्प दोहराता रहा है कि किसी भी हाल में वह बेटी की शादी नहीं करेगा।

तभी उसकी बीबी उसे ढूँढते हुए उसी की ओर आ गयी– आप यहाँ छिपकर अकेले क्यों बैठे हो जी? मैं समझती हूँ बेटियों को घर से विदा करना बहुत मुश्किल होता है पर ये तो दुनिया की रीत है जी। सारे ही माँ-बाप अपनी लाड़-चाव से पाली हुई बेटियों को एक दिन विदा कर देते हैं। अपनी पराई हो जाती हैं और पराई बेटियाँ घर में राज करने आ जाती हैं। आप उठो अब। वे लोग आते ही होंगे।

न चाहते हुए भी उसे उठना पड़ा। जैसे ही वह बैठक में पहुँचा, वे लोग आ चुके थे। जोगिंदर उन्हें पानी पिला रहा था। जसप्रीत ने मेवों की ट्रे लाकर उनको परोस दी थी। रस्मी-सी नमस्ते करके वह बैठ गया था। उसकी बीबी चाय-नाश्ते का इंतजाम करने अंदर चली गयी थी। थोड़ी देर बाद ही वह उनसे पूछ रहा था कि आप कहाँ रहते हो बेटी, कहाँ ब्याही है, लड़के ने क्या किया हुआ है आदि-आदि।

पूरी तसल्ली करने के बाद उसने जसप्रीत को इशारा किया कि वह मनिंदर को ले आए। मनिंदर हल्के गुलाबी सूट में बहुत अच्छी लग रही थी। उन लोगों ने मनिंदर से एक-दो बातें पूछीं और रिश्ते को हाँ कह दी थी। बिशनसिंह को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ जब उसने भी रिश्ते के लिए हाँ कह दी थी। उसकी घरवाली एकटक उसी की ओर देखे जा रही थी और वह आँखों में आँसुओं को पीने की कोशिश कर रहा था। बड़े भाई ने टोका– भई लाओ, मुँह मीठा करवाओ सबका। तो वह होश में आया और उसने मनिंदर के सिर पर हाथ रख दिया था। सब खुश थे क्योंकि अगले महीने की दस तारीख की शादी पक्की हो गयी थी।

1 Total Review

डॉ सुषमा त्रिपाठी

19 March 2025

कहानी का कथानक मज़बूत है।भाषा भी विषयानुकूल है।

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

स्नेह गोस्वामी

ईमेल : goswamisneh@gmail.com

निवास : बठिंडा (पंजाब)

जन्मस्थान- फ़रीदकोट (पंजाब)
शिक्षा- एम० ए०, एम० एड
प्रकाशन- उठो नीलांजन, तुम्हें पहाड़ होना है, अभिसारिका एवं अन्य कहानियाँ (कथा संग्रह), स्वप्नभंग (कविता संग्रह) वह जो नहीं कहा, होना एक शहर का, कथा चलती रहे (लघुकथा संग्रह), भापे की चाची, ताना-बाना, सोई तकदीर की मलिका (उपन्यास) सड़क और गलियाँ मेरे शहर की (लघुकविता संग्रह)
संपादन- शब्दों की हांडी में सम्वेदनाएँ (पत्र शैली की लघुकथाएँ)
नवल, शुभतारिका, हिंदी चेतना, किस्सा कोताह, सरस्वती, अंतरंग, साहित्यनामा, दृष्टि, प्राची, अगम, जगमग दीप ज्योति, आधुनिक साहित्य, द्वीप लहरी आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
सेतु, लघुकथा डॉटकॉम, ई-कल्पना, साहित्य सुमन, प्रतिलिपि, स्टोरीमिरर, मातृभारती आदि अंतरजाल पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
तेरे-मेरे शब्द, नये रास्ते- नयी मंजिलें, कविता अविराम, सृजन गुच्छ, पड़ाव और पड़ताल, मनभावन कहानियाँ, मनभावन लघुकथाएँ आदि कई साझा संकलनों में कविताएँ, कहानियाँ एवं लघुकथाएँ संकलित।
बाल साहित्य के संकलनों घरौंदा भाग एक और दो में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण- आकाशवाणी बठिंडा, आकाशवाणी, जालंघर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण।
पता- 78, कमला नेहरु नगर, बठिंडा (पंजाब)- 151001
मोबाइल- 8054958004