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तरुणा मिश्रा की ग़ज़लें

तरुणा मिश्रा की ग़ज़लें

दरिया किसी की प्यास का सहरा से जा मिला
दोनों ने अपनी तिश्नगी आपस में बाँट ली

ग़ज़ल- एक
 
सैलाब बन के आई उठा ले गयी मुझे
इक याद दर्द दर्द बहा ले गयी मुझे
 
कल रात उसकी ख़ुश्बू ने दस्तक दी ख़्वाब में
कल रात उसके शहर हवा ले गयी मुझे
 
उस राह पर कोई भी नहीं था मेरे सिवा
जिस राह पर ख़ुदा की रज़ा ले गयी मुझे
 
मैं उसकी जागती हुई आँखों का ख़्वाब थी
इक रोज़ उसकी नींद चुरा ले गयी मुझे
 
मुझ पर खुले हैं रास्ते वालिद की सीख से
मंज़िल पे मेरी माँ की दुआ ले गयी मुझे
 
इक उम्र बेहिसी ने रखा मुझको क़ैद में
फिर आयी तेरी याद छुड़ा ले गयी मुझे
 
इक रोज़ टूट ही गई मैं अपनी शाख़ से
फिर उसके बाद आई हवा ले गयी मुझे

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ग़ज़ल- दो
 
आधी अधूरी ज़िंदगी आपस में बाँट ली
बुझते दियों ने रोशनी आपस में बाँट ली
 
सब कुछ ख़ुदा पे छोड़ के दोनों हैं मुतमईन
उम्मीद जो थी आख़िरी आपस में बाँट ली
 
दरिया किसी की प्यास का सहरा से जा मिला
दोनों ने अपनी तिश्नगी आपस में बाँट ली
 
ऊला थीं उसकी आँखें तो सानी मेरी नज़र
इक रोज़ हमने शाइरी आपस में बाँट ली
 
क़िस्मत ने जो भी ग़म दिए वो हमने रख लिए
फिर बच गयी थी जो ख़ुशी आपस में बाँट ली
 
मुद्दत के बाद आई थी ज़िंदान की तरफ़
दो क़ैदियों ने जो हँसी आपस में बाँट ली
 
सूखे हुए शजर से लिपट कर मैं रो पड़ी
दोनों ने अपनी बेबसी आपस में बाँट ली
 
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ग़ज़ल- तीन 
 
वो बेसबब ही ख़फ़ा है तो क्या करे कोई 
यही वफ़ा का सिला है तो क्या करे कोई
 
बुरा है शख़्स वो, मेयार पर ज़माने के
उसी पे दिल ये फ़िदा है तो क्या करे कोई
 
चराग़ बुझ गये उसके क़रीब आते ही 
हवा को इससे गिला है तो क्या करे कोई
 
वो शख़्स जो मेरे दिल में मुक़ीम था बरसों
नज़र से आज गिरा है तो क्या करे कोई
 
मुझे तो प्यार का इल्ज़ाम दे दिया तुमने
ये सिर्फ़ मेरी ख़ता है तो क्या करे कोई
 
हर इक ज़माने में दार-ओ-रसन के ऊपर
मेरा ही नाम लिखा है तो क्या करे कोई
 
ये दिल धड़कता था जो एक नाम ले लेकर
उसे भी भूल गया है तो क्या करे कोई
 
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ग़ज़ल- चार
 
उसकी आवाज़ का जब लम्स बदन में आया
मेरी रग रग से लहू उठ के सुख़न में आया
 
फूल को चूमने उतरी थी किरन सूरज की 
बस उसी लम्हा तेरा ज़िक्र चमन में आया
 
फिर बचेगा न भरम तेरी मसीहाई का
रूह का दर्द अगर मेरे कफ़न में आया
 
ज़िंदगी थी कि उधर मरने पे थी आमादा
और इक नूर इधर दार-ओ-रसन में आया
 
दर्द से मेल मुलाक़ात का जब दौर बढ़ा
तब कहीं लुत्फ़ का अंदाज़ शिकन में आया 
 
मुझको ठोकर लगी तो हँसने लगे यार मेरे
और फिर जश्न का ये तौर चलन में आया
 
राम की मर्ज़ी बिना तिनका नहीं हिल सकता 
उनकी लीला से हिरन सोने का बन में आया
 
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ग़ज़ल- पाँच 
 
दुनिया पुकारे लाख मुझे पर सुनूँ न मैं
मंज़िल की आरज़ू में कहीं भी रुकूँ न मैं
 
मैं चाहती हूँ इश्क़ मुझे ये कमाल दे
वो दिल की बात जान ले लेकिन कहूँ न मैं
 
कुछ इस तरह से उससे बिछड़ना है अबकी बार
वो भी न मुड़ के आये और आवाज़ दूँ न मैं
 
ऐ काश ये करिश्मा कभी दरमियान हो
तू ढूँढता रहे मुझे लेकिन दिखूँ न मैं
 
हो ज़िक्र जिसमें तेरा लिखूँ ऐसी इक किताब 
लिख कर कहीं छुपा दूँ दुबारा पढ़ूँ न मैं
 
रिश्तों के रखरखाव में रक्खूँ मैं एहतियात
कोई भी राज़ उससे छुपा कर रखूँ न मैं
 
हर साँस अजनबी हुई तुझसे बिछड़ के, और
ये भी ख़्याल आया के मर जाऊँ क्यूँ न मैं
 
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3 Total Review
B

Bhanu jha

15 February 2025

बेहतरीन ग़ज़लें

D

Dr Vinod Prakash Gupta

15 February 2025

बेहतरीन शाइरी - उत्कृष्ट क़ाफ़िये और अद्भुत रदीफ़- तरुणा को बधाई

D

divakar pandey

15 February 2025

वाह

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रचनाकार परिचय

तरुणा मिश्रा

ईमेल : tarunamisra@gmail.com

निवास : गाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश)

 
जन्मतिथि-1 नवंबर,1966
जन्मस्थान- नैनीताल
लेखन विधा- ग़ज़ल
शिक्षा- MSc(physics), B Ed
सम्प्रति- व्यवसाय, स्वतंत्र लेखन 
प्रकाशन-अभी तक नहीं
सम्मान- विभिन्न संस्थाओं से अनेकों सम्मान
प्रसारण- दूरदर्शन, आकाशवाणी, News 18
पता- सेक्टर-106, शास्त्रीनगर, ग़ाज़ियाबाद
मोबाइल- 9810788909