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शशि श्रीवास्तव की कहानी- घर

शशि श्रीवास्तव की कहानी- घर

काश उसके पैदा होते ही माँ की बीमारी से वह भी संक्रमित हो जाती। दादी उसे बकरी का दूध पिला कर ना पालती, मरने देती। ना वह होती ना उसे घर की तलाश होती। घर जहां जिंदगी साँस लेती है। हँसती है। मुस्कुराती है। ऐसे घर की आरजू सबको होती है। पर मिलता किसी किसी को है।

इलाहाबाद नगर निगम आपका स्वागत करता है। शहर के प्रवेश द्वार पर लगा बोर्ड देखते ही लड़कियाँ जो अब तक शांत थीं, चहकने लगी थीं ।

“मैम, संगम चलेंगी ? आनंद भवन दिखाएंगी ?” और ........वे सवालों के बौछार करने लगी थीं उस पर| वह अन्मयस्क मनःस्थिति में पाँच साल में ही बेतरतीब बढ़ गए शहर को देख रही थी। उसने गर्दन मोड़ कर उसके ठीक पीछे बैठी मिस माथुर की ओर देखा था। यह इशारा था उसका कि वे उसकी सीनियर हैं और इस टूर को की संयोजक भी। लड़कियों को उनसे पूछना चाहिए।

लड़कियाँ जैसे ही उनसे मुखातिब हुईं वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगीं। जिस सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों ने हरियाली का चंदोवा-सा तान रखा था वे सारे पेड़ गंजे की खोपड़ी में तब्दील हो गए थे और सड़क भारी हल्के वाहनों की आवाजाही के बाद भी किसी सद्य विधवा की सूनी माँग सी लग रही थी।

"आप अपने घर नहीं जाएँगीं मैम ? "एक लड़की ने उसकी दुखती रग छेड़ दी थी। इस सवाल का वह क्या जवाब दें, सोच ही रही थी कि मिस माथुर बोल पड़ी, "हां काया! तुम्हें जहाँ उतरना हो उतर जाना जाते वक्त बुला लेंगे।"
"अरे नहीं घर में कोई है ही नहीं। मम्मी नानी के यहाँ गई है। पापा को बता दिया है, वह मिल लेंगे आकर।" उसने जल्दी से स्थिति स्पष्ट कर दी।

काश उसके पैदा होते ही माँ की बीमारी से वह भी संक्रमित हो जाती। दादी उसे बकरी का दूध पिला कर ना पालती, मरने देती। ना वह होती ना उसे घर की तलाश होती। घर जहाँ जिंदगी साँस लेती है। हँसती है। मुस्कुराती है। ऐसे घर की आरजू सबको होती है। पर मिलता किसी किसी को है।उसे तो नहीं मिला। उसके घर में हर उस चीज का टोंटा था जो जीने की जरूरी शर्तें पूरी करती हों। यानी हँसी खुशी, चैनोंसुकून । जो जाने कब बनवास ले गए घर से। घर यातना शिविर में तब्दील हो गया। खासकर रिश्तेदारी या मोहल्ले पड़ोस में लड़के की पैदाइश का समाचार घर की साँसों का दम घोंट देता। घर की हवा भारी हो जाती। कभी-कभी तो माँ के कंठ से फूटा करुड़ क्रंदन किसी आत्मीय की अकाल मौत का आभास देने लगता। काया को अपना साथ बोझ लगने लगता। खुद पर शर्म आने लगती। वह दादी के पीछे छुपने की कोशिश करने लगती कि माँ की नजर ना पड़े उस पर। कि वही तो थी, जो माँ के सारे टोने टोटके, तंत्रों मंत्रों को धता बताती पैदा हो गई थी। भगवान भी बड़ा अजीब है उसे लड़का बना देते तो उनकी इतनी बड़ी दुनिया में कौन सी कयामत आ जाती। मम्मी खुश रहतीं तो आप सब भी खुश रह लेते। उसके मन की बात दादी के सामने फूट ही पड़ती उसकी जिह्वा से। दादी खींचकर उसे अपने सीने से लगा लेती।

कहती,"भगवान से शिकायत नहीं करते, वे सब सोच समझकर करते हैं और हर इंसान किसी खास मकसद के लिए ही भेजते हैं। बच्चा ! खुद पर शर्म नहीं गर्व करना सीख। प्यार करना सीख खुद से भी, दूसरों से भी।"

"मेरी माँ जब मुझसे प्यार नहीं करती..मैं सुंदर नहीं हूँ इसलिए कोई मुझे..! दादीआपने क्यों पाला मुझे.. मरने क्यों..!"
"हट ..ऐसी बातें नहीं करते।" दादी उससे दुलरातीं। "तुझे कौन नहीं चाहता..तेरा पापा और मैं हम तुझे..!"
"आप लोग तो..!" काया भरी भरी आँखों से दादी के सीने से लग जाती।
"तेरी माँ जब तुझे अपनी मौसेरी बहन को गोद देना चाहती थी तब मैंने और तेरे पापा ने मना कर दिया तुझे प्यार करते थे तभी ना..!" दादी ने एक नया खुलासा किया था उस दिन। वह और मायूस हो गई थी। वह मायूसी आज भी उसके साथ है। चाहने पर भी खुद को उससे अलग नहीं कर पाती। 25 साल पलक झपकते कब गुजर गए पता तक नहीं चला । इधर काया ने पढ़ाई पूरी करते ही पी.जी.टी. माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षा पास की। नियुक्ति का इंतजार था उसे । इधर मात्र दो घंटे की..

बीमारी के बाद दादी ने आँख मूँद ली। काश आज दादी जिंदा होती ! उसकी कामयाबी पर कितना खुश होतीं। उसकी जिंदगी का रंग ही कुछ और होता। बेटा काहे यहाँ हमेशा रहने को नहीं आती तेरी दादी ने ना खुद कष्ट भोगा ना किसी को दिया। चलते फिरते चली गई यह तो सोच। पापा की बातें याद कर खुद को दिलासा दे लेती है। जब पापा दादी की अंतिम विदाई की बात करते तब रह रह कर उसके जेहन में अपनी तीनों बड़ी बहनों की विदाई का वक्त कौध जाता। कई बार जी में आया कि पापा को याद दिलाएँ हमने तीनों दीदियों की विदाई भी ठीक उसी तरह नहीं की! पर ऐसी यादें जो पापा को फिर से बेबसी, पछतावे व अवसाद की आग में झोंक दे, उनका विस्मृति की आग में दबे रहना ही अच्छा। पर उसे जब तब बहुत याद आती है उन मौकों की जो घर में आए तो जरूर पर पुत्रवती ना कहला पाने के गौरव से वंचित माँ ने फिर घर में आये दीदी की शादियों के हर मौकों की अगवानी आँसुओं से ही की। आँसू बेटी के बिछोह के होते तब तो कोई बात ही नहीं थी पर माँ का दुख दूसरा था। वह शादी में पापा के खुलकर खर्च करने पर इतनी व्याकुल हो जाती की उनकी जिह्वा से अनर्गल, असंगत शब्दों का निर्झर वह निकलता। उनके ऐसे ही बर्ताव के चलते एक बार विदा हुई माया दी दोबारा मायके का मुँह तक ना देख सकीं या देखना नहीं चाहा उन्होंने, कौन जाने।

"आए गै लुटेरन की फौज लेकर।" बेवक्त, बेमौके बोले गए मां के अनर्गल शब्द पिघले सीसे से आँगन में खड़े दीदी के ससुर के कानों में उतर गए। वे अगिया बेताल हो गए।
"आप लोग रिश्ता लेकर खुद गए थे हमारे घर, हम नहीं आए थे आपके घर। आपके यहाँ घर आए मेहमान का स्वागत ऐसे अब अभद्र भाषा से किया जाता होगा हमारे घर की रीति नहीं है यह। पंडित जी जल्दी करो फेरे वेरे निपट जाए तो इज्जत जो बची है, लेकर अपने घर जाएं लड़की को भेजना हो तो भेजें वरना....इनकी मर्जी..! हम तो जिस कारण के लिए आए हैं वह हो जाए, बस्स, फिर यह जाने इनका काम।"

फिर पापा सहित घर के सारे लोग उनके हाथ पाँव जोड़ते रहे पर वह ऐसे घर में अपने पानी तक ना पीने के फैसले से जरा भी नहीं डिगे। 
बाकी दो शादियों में माँ ने लड़के वालों को तो बक्स दिया पर इस बार उनके भीतर की कुंठा व आक्रोश का निशाना काया व छाया बनीं।

"अबे तो दो निबटी हैं, दो ठो पत्थर तो अबै धरे हैं छाती पर ।" बधाई देने वालों से कहें। 

उनके बोल सुन सुन कर समारोह की सारी उमंग, उत्साह व खुशी तिरोहित हो गई उन दोनों की। बस भरे मन से अपने अपने काम में लगी रहैं। घर के नाम पर ऐसी ही कड़वी कसैली यादों का जखीरा है, उसके पास जब भी आती है आँखें नम और मन भारी कर जाती है |

“उतरेंगी नहीं मैम ?” एक लड़की ने बस रुकने पर उसे टोका, तब उसकी तंद्रा भंग हुई थी| बस से उतरते ही पापा सामने दिखाई पड़ गए पहले से भरा-भरा मन यादों के सफर के एक अहम सह यात्री को देख खुद को रोक नहीं पाया था | पापा के गले लग कर फूट पड़ी थी वो | पापा ने कुछ क्षण उसे रो लेने दिया था, फिर प्यार से सर सहलाते हुए बोले,
"धत्त पगली, इतनी बड़ी और जिम्मेदार हो गई फिर भी बच्चों सी..!" पापा के आत्मीय स्पर्श ने जादू किया था जैसे उसका रोना रुक गया था पापा ने एक पैकेट निकाल कर पकड़ आया था बोले,
"हरी के समोसे लाया हूँ। तुझे बहुत पसंद है ना।"
"पापा आप आज बदले बदले से लग रहे हैं, मजेदार से।"
"क्या जोकर लग रहा हूँ ?" पापा हंसे मुक्त हँसी। वो अपलक आश्चर्य से आँखें फाड़े पापा को देखती रह गई थी। इससे पहले पापा को इतना तनावमुक्त व निश्चिंत देखा नहीं था उसने।माँ का जो भी हो, उनके चेहरे पर माहौल के प्रति तटस्थ, वितरागी वाला भाव ही दिखाई पड़ा उसे।
"मैं भीहँसा करता था कभी पर यह पनौती जब से घर में आई, हंसना मुस्कुराना यहाँ तक की जीना ही भूल गया।"
"ऐसा क्या हुआ पापा हमारे साथ !" अनजाने ही उसके मुँह से निकल गया था।
"इसकी कोई बहुत बड़ी वजह नहीं थी, अगर तेरी माँ में रिश्तों के प्रति भरोसा, विश्वास, प्यार, स्नेह व सामंजस्य…बनाने की जरा भी समझ विकसित हो गई होती तो सब कुछ ठीक हो जाता देर सवेर, शुरू शुरू में मैं और तेरी दादी इसी भुलावे में रहे कि रहते-रहते तेरी माँ को इस घर की रीत-नीत, रहन-सहन की आदत हो जाएगी। तब वक्त के साथ उसके ताने, शिकायतें खत्म हो जाएँगी पर नहीं, जैसे-जैसे वक्त बीतता गया और उसकी एक लड़के की हठ भरी चाहत के चलते एक के बाद एक चार लड़कियाँ पैदा हो गईं। उसका पुत्र मोह पागलपन की शक्ल लेने लगा। कहाँ चार साल की उम्र में पिता को खोकर वक्त से पहले ही समझदार हो गया मैं । वहीं तहसीलदार पिता और सप्लाई विभाग में इंस्पेक्टर भाई की इकलौती लाडली तेरी माँ, जिसने ना कभी पैसों की तंगी देखी ना कद्र ही की। जबकि हमारे घर में पिता की पेंशन के सहारे घर गृहस्थी व मेरी पढ़ाई का खर्च चलाती मेरी माँ एक रुपए की कतर-ब्योंत में लगी रहती। मैं गवाह था माँ की एक एक पैसों को हिसाब से खर्च करते देखने का । हालाँकि जब मेरी नौकरी लग गई तब स्थिति बदल गई। मेरी तनख्वाह और माँ की पेंशन मिलाकर 4-5 प्राणियों वाले घर का खर्च आराम से चल जाता था तब । पर अगर संभाल कर ना खर्च किया जाए और सारा पैसा एक दिन में खर्च कर लो और फिर कहने लगो, इत्ती कमाई तो मेरे पिता या भाई एक दिन में ही कमा लेते हैं। इस कुतर्क का कोई इलाज है बेटा! तेरी माँ यही करती रही उम्र भर। तेरी दादी निपट निरक्षर थी। पर उसने कभी मेरी पढ़ाई में पैसे की कमी आड़े नहीं आने दी। तुम चारों की पढ़ाई के खर्चों पर भी तेरी ग्रेजुएट माँ का तंगी का रोना शुरू हो जाता। वह सब संभाल लेतीं। तुझे तो माँ का मुखापेक्षी होना ही नहीं पड़ा। पता नहीं क्या और कैसी पढ़ाई की और कैसी सोच है कि जब तुम चारों की पढ़ाई लिखाई पर जोर दिया जाता तो वह अपना घिसा पिटा रिकॉर्ड बजाने लगती।"
"अरे ज्यादा पढ़ जाएँगी तो आसानी से लड़के नहीं मिलेंगे ज्यादा पढ़े लिखे लड़कों के भाव भी तो अच्छे होते हैं और कम पढ़े लिखे को यह लोग राजी नहीं होगीं। मेरी बात अभी समझ में नहीं आ रही जब लड़के ढूँढने निकलोगे तब पता चलेगा।" बड़ी तीनों माँ से ज्यादा चिपकी रहीं। पढ़ने को पढ़ गई जैसे-तैसे, पर सिर्फ डिग्रियाँ भर हासिल कर लेने में और पढ़ाई को जीवन का प्रमुख लक्ष्य बनाने में बहुत फर्क होता है। आज मुझे तुझ पर गर्व है बेटा, बहुत ज्यादा गर्व है। इस बात का संतोष तो है मुझे कि पूरा जीवन बेकार नहीं गया। तेरे रूप में बहुत कुछ हासिल हो गया है। इसलिए तो आज खुलकर हँस रहा हूं। हमारे घर में वैसे भी खुशी के मौकों का अकाल रहा। आज मिला है तो हँस लूँ फिर कौन जाने..!” पापा फिर संजीदा हो गए।
"एक नई खबर तो दी ही नहीं तुझे।"
"क्या बताइए ना जल्दी..।" उसकी उत्सुकता चरम पर थी।
"तेरी माँ ने एक बेटे की माँ कहलाने की अपनी हसरत पूरी कर ली है।"
"क्या कहा...यह कब हुआ..मेरा भाई..!" वह लगभग चीख पड़ी।
"ऐसा कुछ नहीं हुआ..तू समझ..!" पापा ने जल्दी से बात साफ की।
"फिर..फिर कैसे..!"
"वह ऐसे कि उसकी कजिन है ना वह पम्मी..उसके दो बेटे थे ना..उसे एक बेटी की चाहत थी पर बेटा हो गया..उससे शायद तेरी माँ ने पहले से बात कर ली थी..अब उसका सारा गुस्सा चला गया है..उसने अपनी सारी चाहत..सारा प्यार..उसके नाम लिख दिया है..अब मैंने वह घर बेचने का फैसला कर लिया..।"
"क्या..!" काया को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ था जैसे, फिर भी जो पापा ने कहा उस पर यकीन करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था।
"हाँ..अब तुम लोगों को तो वहाँ रहना नहीं..फिर इतने बड़े घर की जरूरत तो है नहीं..दो कमरों का एक छोटा सा घर ले लिया जाएगा और बचे पैसों से छः हिस्से लगाकर बराबर बराबर बाँट दिए जाएँगे।" घर का बिकना जाने क्यों अच्छा नहीं लगा था उसे। उस घर से दादी की यादें जुड़ी थीं। उनके कमरे में जाकर लेट गई थी। लगता था जैसे दादी कहीं आस-पास ही हैं। उसकी आँख भर आई। दादी और उनके कमरे में उसका समूचा ब्रह्मांड समाया था जैसे।
पापा की भरी भरी आँखें अनंत अछोर क्षितिज में ना जाने क्या तलाश रही थीं। काया ने भी अपनी दृष्टि वही गड़ा दी। कौन जाने दादी दिखाई पड़ रही हों पापा को। देर तक बाप-बेटी इस अप्रत्याशित स्थिति का गरल पान करते रहे फिर पापा ने एक सर्द साँस लेकर छोड़ते हुए बेटी की ओर देखा था । कुछ देर शब्दों का चयन करते रहे जैसे। फिर बोलें, "क्या करूँ बेटा, बाकी तीनों का तो पता नहीं पर तुझे बहुत बुरा लगेगा जानता था पर मेरे सामने अब और कोई रास्ता नहीं, मेरा दिल इतना बड़ा नहीं कि मैं अपने चौगड्डे का हिस्सा किसी और को दे दूँ। तेरी माँ अगर यह बच्चा गोद ना लेती तो मैं अपने जीते जी यह घर कभी ना बेंचता। मेरे बाद चौगड्डा इस घर का जो चाहे करता मुझे क्या। कल को वह बड़ा होकर कैसा निकले कौन जाने या तेरी मां चाहे अनचाहे पुत्र प्रेम में पूरा का पूरा उसी को..पर मुझे ये मंजूर नहीं इसीलिए मैंने..।" पापा ने स्थिति स्पष्ट की थी।
“ठीक किया पापा आप अपने चौगड्डे के लिए आज भी कितने पजेसिव हैं!” काया ने मुस्कुराते हुए पापा की ओर देखा फिर बोली,
“आपको चौगड्डे के लिए यही पजेसिवनेस से तो माँ ज्यादा चिढ़ती थी। पता है पापा, आज रास्ते में चौगड्डा नामक स्थान पड़ा, मुझे आपकी याद आ गई, आप घर में घुसते ही किसी एक का नाम न लेकर चौगड्डा कहकर पुकारते थे।”
"हाँ बेटा सब याद है ...पर तेरी माँ को कुछ भी याद नही ..तेरी माँ हमेशा रिश्तों के ऊपर पैसों व व्यक्तित्व को वरीयता देती रही व मेरी साधारण शक्ल और वैसी ही मामूली आमदनी के लिए कभी मुझे माफ नहीं किया। कंगलों में झोंक दिया क्या कोई ओढ़े और क्या बिछाए । जैसे जहर बुझे वाक्यों ने मेरे भीतर उसके लिए प्यार, लगाव व सम्मान जैसी भावनाएँ पनपने ही नहीं दीं। तेरी माँ को इन मानवीय गुणों की ना कदर थी, ना रुचि थी और ना ही जरूरत। जिस चीज की कमी का उम्र भर रोना रोती रही, वही आज उसे दे कर हरिद्वार चला जाऊँगा, वहीँ किसी आश्रम में रहकर प्रकृति के सानिध्य और यायावरी में बाकी का जीवन काट दूँगा।”
“अरे यह क्या बात हुई पापा ? मेरी जरा भी चिंता नहीं आपको ! मुझे अकेला छोड़ देंगे ?” काया कातर हो आई थी |
“अरे तू अकेली कहाँ? तेरे अंकल आंटी हैं ना तेरे साथ ? अभिभावक जैसे मकान मालिक कहां मिलते हैं। फिर यायावरी के बीच जब भी कानपुर से निकलूँगा, तेरे साथ दूँगा कुछ दिन रहकर जाऊँगा | अभी तो तेरे अंकल आंटी से भी नहीं मिला ।“
“तो आज ही शुरू कर दीजिए ना यायावरी ? पहले हमारे साथ सारनाथ चलिए फिर वहाँ से कानपुर अंकल आंटी से भी मिल लीजिएगा।“
"आऊँगा जल्दी ही, तू कानपुर पहुँच पीछे से तेरा और तेरी दादी का जरूरी सामान लेकर आऊँगा । अपने घर में रख लेना । वैसे भी उस घर से मिला ही क्या..! तू आज जो कुछ भी है सब अपनी मेहनत की बदौलत है। हाँ, एक बात और तूने हमें तो मना कर रखा है, अपने लिए लड़का देखने को। पर अब तू खुद देखना अपने लिए। किसी भी जाति का हो मुझे कोई एतराज नहीं। बस तू अपना घर बसा ले ।“
"वैसा ही जैसा आपका बसा..नहीं पापा अब ऐसी कोई इच्छा नहीं..पापा अब मैं आपकी प्रतिलिपि जरूर हूँ, पर जीवन में किसी को अपने साथ इसलिए नहीं जोड़ूँगी कि वो मेरी सुरक्षा करे, अकेलापन बाँटे…पाप आपने तो देखा है…भोगा भी है... जीवनसाथी हमेशा साथी ही नहीं होता ..कभी-कभी बोझ भी बन जाता है..पहले घर बसाओ फिर उसका मलबा ढोते रहो उम्र भर.. इससे तो मैं बेघर ही भली ।“

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रचनाकार परिचय

शशि श्रीवास्तव

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 16 अगस्त, 1954
जन्मस्थान- कन्नौज (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- कला स्नातक
संप्रति- गृहणी
लेखन विधा- कहानी, आलेख, बाल कविता , समीक्षा आदि
प्रकाशन- तीन कहानी संग्रह क्रमश तू कहीं सो गई तो, मेघ छाया, राम हरण, व एक उपन्यास प्रकाशनाधीन।
प्रसारण- आकाशवाणी से कहानियों का प्रसारण
सम्मान- साहित्यिक संस्था यथार्थ द्वारा सम्मानित
सम्पर्क- 6/80 पुराना कानपुर कानपुर-208002(उत्तर प्रदेश)
मोबाइल- 9453576414