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सीमा सिंह की कहानी 'अधूरा प्रायश्चित'

सीमा सिंह की कहानी 'अधूरा प्रायश्चित'

“सर, इमरजेंसी है, जली हुई औरत है, एट्टी परसेंट जली हुई है।” जूनियर डॉक्टर ने चैम्बर में झांक कर थोड़े हडबडाए स्वर में बताया तो मैंने झटपट लैपटॉप बंद किया और अपना गाउन और मास्क  उठा उसके साथ हो लिया।

“सर, इमरजेंसी है, जली हुई औरत है, एट्टी परसेंट जली हुई है।” जूनियर डॉक्टर ने चैम्बर में झांक कर थोड़े हडबडाए स्वर में बताया तो मैंने झटपट लैपटॉप बंद किया और अपना गाउन और मास्क  उठा उसके साथ हो लिया। तब मुझे अहसास भी ना था कि जिंदगी मेरे सामने कौन सा रंग लाने वाली है।

आई.सी. यू .के ओ.टी. में जाते समय मैं सिर्फ एक चिकित्सक था, उस समय मेरी ड्यूटी का समय था और उस दौरान आने वाले हर गम्भीर मरीज़ को देखना मेरा फर्ज।
“सर पेशेंट कांशस है। इसका चेहरा बच गया है।” जूनियर पीछे से फुसफुसाया।
आम तौर पर इतने जले मरीज़ होश में नहीं होते। इसका चेहरा बच गया था पर दोनों हाथ और सारे बाल जल गए थे।  टेबल पर पड़ी कराहती लड़की के घावों की जाँच कर ही रहा था कि कांपती  हुई आवाज़ कान में पड़ी,“प्रशांत तुम! अब मैं सुकून से मर सकूंगी।”टूटते हुए शब्दों के बने वाक्य की आवाज़ ने मुझे भीतर तक  हिलाकर रख दिया था, मेरे अंदर का डॉक्टर ना जाने डर कर कहाँ दुबक गया था। अब वहाँ  मैं था सिर्फ मैं  प्रशांत।
आँखों के आगे अंधेरा था काला काला  सब सुन्न कर देने वाला मैंने सीट पर बैठना चाहा, पर हिल ना सका। कुछ भी याद नहीं रहा। फिर जब चेतना लौटी और आँख खुली तो खुद को अपने चैम्बर की टेबल पर लेता पाया। उठने की कोशिश की, तो पास ही बैठे डॉ० अजय का स्वर कानों में पड़ा, “लेटा रह, यार! तुझे बीपी लो भी होता है, मुझे पता ही नहीं था! चल कोई नहीं, थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा। मैं तुझे घर छोड़ दूँगा, तू आज आराम करना।”

मैं पूछना चाह रहा था, उसके बारे में… वो मरीज… वो जली हुई लड़की… पर शब्द होठों से बाहर ही न निकले।

मुझे अचानक घर वापस आया देखकर माँ थोड़ा चौंक गई थी। मैंने अजय को हाथ दबा कर चुप रहने का इशारा कर दिया lसो वह भी बोलते-बोलते चुप हो गया।

माँ चाय बनाने की तैयारी करने लगी और मैं अजय के साथ कमरे में चला आया। दिमाग जैसे अब भी सुन्न था, कुछ सोच ही नहीं पा रहा था।

उसको इस हालत में देखूंगा कभी सोचा भी न था! सच कहूँ तो अब तो उसकी याद भी तो नहीं आती थी। याद आती नहीं, या अब वो आदत में शामिल थी; आती-जाती नहीं थी, बस साथ-साथ चलती रहती हमेशा, आती-जाती साँसों सी। मन भागा जा रहा था वक्त के विपरीत दिशा में…

उसका नाम तो शालिनी था, पर माँ उसे हमेशा शालू कहतीं।

पहली बार उसको घर पर देखा था, माँ के साथ, जब बोर्डिंग से वापस आया था। पहले पहल लगा माँ ने अपनी मदद के लिए शायद कोई नौकरानी रख ली है।

“शालू, कप धो दिए?” – “जी, आंटी!”

“शालू, गैस बंद कर दे! आलू हो गए।” – “जी, आंटी!”

घर पहुँचे आधा घंटा भी ना हुआ था, और माँ तीन सौ, साढ़े तीन सौ बार ये नाम पुकार चुकी थीं।

“कौन है ये ‘शालू’, माँ?”प्रश्न मां से पूछा था। परन्तु उत्तर में मधुर  शरारत से भरा स्वर वातावरण में बिखर गया।

“मैं हूँ शालू, उर्फ शालिनी। आपके घर से तीन मकान छोड कर, जो पीली वाली बिल्डिंग है ना? उसके फर्स्ट फ्लोर पर, अपने भैया-भाभी और दो भतीजों के साथ रहती हूँ।” चाय की ट्रे थामे, सुबह की ओस में नहाये ताज़े गुलाब की सी ताजगी लिए शालिनी से ये पहला परिचय था मेरा।

मैं जिसका नाम तक नहीं जानता था, वह मेरी पसंद-नापसंद, आदत सबसे अच्छी तरह परिचित थी। सुबह से लेकर शाम तक हमारे घर में पूरे अधिकार से घूमती, घर के सारे काम संभालती घर के नौकरों को निर्देश देती शालिनी यूँ तो मुझे भी थोड़ी-थोड़ी भाने लगी थी।

पर उसका हमारे घर में ऐसे साधिकार घूमना मुझे खल भी जाता था कभी-कभी।
“कैसे डॉक्टर बनोगे, आप तो खुद ही…?”

मैने तो आराम से छत का कोना पकड़ कर सिगरेट सुलगाई थी। पता था, माँ छत पर आती नहीं हैं, और नौकर इस समय आएंगे नहीं। पर ये देवी जी कहाँ से प्रकट हो गयीं? बड़ी खीज से सिगरेट तोड़कर फेंक दी थी मैंने।

“अरे! सिर्फ एक सिगरेट तोड़ने से काम नहीं चलेगा! लाइए, पैकेट और लाइटर भी दीजिए। और वादा कीजिये फिर कभी नहीं पियेंगे।”

पता नहीं उसकी बातों में जादू था या आँखों में। मैंने सिगरेट के पैकेट के साथ-साथ अपना हाथ भी उसके हाथ पर रख दिया था।

“ऐसे नहीं! बोलिए, ‘वादा किया’।”

“वादा, अब नहीं पियूँगा।”

पता नहीं उसकी आँखों में कब तक डूबा ही रहता अगर माँ ने अपनी शालू को पुकारा ना होता।

उस दिन के बाद से,मैं उसे दूर से तो देखता, पर बात करने में अजीब सी हिचक होती थी। हाँ, शालिनी के घर में आने-जाने से, मैं भी घर ज्यादा आने लगा था। हर वीकेंड घर आ जाता था। शालिनी भी मेरा पहले से ज्यादा ख्याल रखने लगी थी। मेरा कमरा शीशे सा चमकता रहता। हाथ बढ़ाते ही सामान मिल जाने लगा।

सब अच्छा-अच्छा लग रहा था, कि अचानक उस बार घर पहुँचा तो शालिनी घर पर नहीं थी। पहली बार ऐसा हुआ कि मेरे पहुँचने के बाद भी नहीं आई। माँ से पूछा, तो पता चला कि किसी रिश्तेदार के यहाँ सपरिवार गए हैं, वो भी अचानक, बिना माँ को बताये।

उस बार घर पर मन ही ना लगा। अपना घर पराया सा लग रहा था।

बेमन से छुट्टी गुज़ारकर, हॉस्टल आया तो अपनी व्यस्त दिनचर्या में डूब सब कुछ भूल गया था। उस दौरान, ना घर याद आया, ना माँ, और ना ही शालिनी। मैं और भी समय तक ऐसे ही रहता, अगर माँ का खत ना आया होता। उन्होंने घर बुलाया था। मेरे पास भी माँ के लिए खुशखबरी थी। और खत ने यादें भी कुरेद दी थीं।

घर पर इस बार भी शालिनी नहीं थी। माँ के उदास चेहरे ने जता दिया था कि वो कई दिनों से आई भी नहीं है।

खाने की मेज़ पर बैठा ही था, कि माँ ने अचानक पूछा, “तुझे शालिनी कैसी लगती है, प्रांशु?”

मैं एकदम से हडबड़ा  गया था। “कैसी, क्या? जैसी है, वैसी लगती है। वैसे… मुझे क्यों लगेगी? माँ ये कैसा सवाल है!”

“अरे सीधा सा सवाल है, साफ़ साफ़ बता दे कैसी लगती है!” माँ ने आशा भरी नज़रों से मेरी ओर देखा।

 “तू ब्याह करेगा उससे? उसके घर बात चलाऊं? तू अगर हाँ कर दे, तो अभी भी देर नहीं हुई है।”

“माँ! कैसी बात कर रही हो आप?”

“हाँ, बेटा। उसका रिश्ता तय कर दिया है। पर शालिनी को ना लड़का पसंद है, ना घर-परिवार। माँ-बाप नहीं हैं बेचारी के। माँ होती तो बच्ची के मन का हाल समझती भी। एक बार उससे मिलकर ही सहम गई है। अंदर ही अंदर घुटी जा रही है।”

“माँ,शालिनी के अपने हैं वो। उसका बुरा नहीं करेंगे!”

“तू उससे शादी कर ले, बेटा, तो वो सुखी हो जायेगी।” माँ अपनी धुन में ही कहती जा रही  थी। “मैं उसका मन जानती हूँ। उसका मन तुझसे लग गया है। बहुत अच्छी लड़की है, और जात-पात मैं नहीं मानती।”

“माँ! मैं अमेरिका जा रहा हूँ, मुझे स्कॉलरशिप मिली है। पूरे कॉलेज से, सिर्फ दो स्टुडेंट्स\ सिलेक्ट हुए हैं। मेरे फ्यूचर का सवाल है! मैं अभी और कुछ भी नहीं सोच सकता, माँ!” मैंने बड़े रूखे स्वर में माँ से कह दिया था।

उसके बाद, मैं लगभग महीना भर माँ के साथ रहा, पर माँ ने दोबारा शालिनी की कोई भी बात नहीं की। मेरा मन भी हुआ कि उसका हाल जानूं, पर उसकी चर्चा कर माँ को और दुःख नहीं देना चाहता था।

            अमेरिका जा कर भी, माँ से यदा कदा फोन पर बात होती रहती थी मेरी। पर, माँ भूले से भी शालिनी का ज़िक्र न करती।

पर, उस दिन माँ की आवाज़ बेहद उदास थी। बार-बार पूछने पर माँ ने रुंधे स्वर में बताया, “शालिनी… शालिनी की शादी हो गई।”

उस दिन मेरे मन से बोझ हट गया। चलो, अब माँ को शालिनी कि चिंता नहीं सताएगी।

            वापस आया तो, नया करियर और जॉब में ऐसा उलझा, कि कुछ याद भी ना रहा। आज अचानक, शालिनी को इस हाल में देख, पिछले पाँच साल कि दूरी पल भर में तय हो गई। माँ की चिंता कितनी वाज़िब थी शालिनी के लिए।

मेरा मन ग्लानि से भरा जा रहा था।

माँ को बता दूँ?

…या ना बताऊँ?

क्या कहूँगा? कैसे बताऊंगा? पता नहीं वो कैसे रिऐक्ट करेगी?

इन्ही सवालों में उलझा, कब नींद में चला गया, पता ही ना चला।

आँख खुली, तो सुबह के छः बज चुके थे। मुझे जगा देख कर, माँ चाय ले आई।

‘माँ, सुनो, आपको कुछ बताना है,” मैंने अपनी हिम्मत बटोर कर माँ से कहा।

मैं माँ की पृश्नवाचक निगाहों का सामना नहीं कर पा रहा था। शालिनी के बारे में जान, माँ सन्न रह गई। उसके मुहं से एक भी शब्द ना निकला।

उसकी गोद में सिर रख, पिछले दिन और रात का सारा तनाव आँखों से बहा दिया था मैंने।

हम दोनों के बीच पसरी चुप्पी को तोड़ते हुए, माँ ने कहा, “मैं भी तेरे साथ चलूंगी, बेटा, शालिनी को देखने।”

“माँ सिर्फ देखने ही नहीं, आप उसकी देखभाल करने को भी चलो। उसका हमारे सिवा और है ही कौन?” मैंने चोर नज़र से माँ की ओर देखते हुए, ‘हमारे’ शब्द पर ज़ोर देकर कहा।

“तो ठीक होने के बाद उसे अपने घर ला सकती हूँ, ना?” माँ मुस्कुराती हुई, गाड़ी में बैठ गई।

पूरे रास्ते माँ के जुड़े हुए हाथ बता रहे थे कि शालिनी के लिए उसकी प्रार्थनाएं जारी हैं। मैं भी मन ही मन प्रण ले रहा था, कि माँ और शालिनी दोनों को खुशियाँ देना अपना धर्म बना के रखूँगा। माँ की अधूरी इच्छा अब पूरी कर दूँगा। शालिनी ने भी जितना दर्द झेलना था, झेल लिया। अब उसको रानी बना कर रखूँगा।

घर की ही नहीं, दिल की भी।

घर से हॉस्पिटल तक की बीस मिनट की दूरी मुझसे भी कट नहीं रही थी। माँ की भी बेचैनी उसके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रही थी।

हॉस्पिटल पहुँचते ही ड्राईवर को गाड़ी पिछले गेट पर लगाने को कहा। यहाँ से ओ०टी० करीब था। मैं तेज़ी से लपका, मेरे पीछे-पीछे माँ भी आ गई।

आइ०सी०यू० का बेड खाली देख कर, मैंने ओ०टी० में झाँका। वहाँ भी किसी को ना देख, वार्डबॉय को बुलाया। “कल जो पेशेंट आया था, उसको कहाँ शिफ्ट किया?”

“कौन सा, सर?” उसने चौंकते हुए पूछा।

“वो ही, जो जली हुई लड़की थी!”

“ओह, अच्छा! उसकी तो रात को ही डैथ  हो गई थी, सर। बॉडी भी फैमिली वाले रात में ही ले गए।”

‘मुझे बुलाया क्यों नहीं, मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं, मैं चीखना चाहता था। पर शब्द हलक में अटक गए। बस होंठ बुदबुदा रहे थे, “सॉरी… आय ऐम सॉरी।”

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3 Total Review

डॉ सुषमा त्रिपाठी

15 February 2025

कहानी मन को छू लेने वाली है।लेखिका को बधाई।

डॉ सुषमा त्रिपाठी

15 February 2025

उत्तम चरित्र प्रधान कहानी।

सुधा गोयल

15 February 2025

बहुत ही भावुकता पूर्ण कहानी मन को छूती हुई अंदर तक झकझोर देती है।बिना कहे बहुत कुछ कह जाती है। लेखिका को हार्दिक बधाई

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रचनाकार परिचय

सीमा सिंह

ईमेल : libra.singhseema@gmail.com

निवास : ग्रेटर नोएडा (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 30 नवम्बर 1973 
जन्मस्थान- बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
लेखन विधा- लघुकथा एवं कहानी
शिक्षा- स्नातकोत्तर – (हिंदी साहित्य, मनोविज्ञान।) 
संप्रति- महासचिव,शक्ति ब्रिगेड सामाजिक एवम् साहित्यिक संस्था, सदस्य, सम्पादक मंडल, लघुकथा कलश (अर्धवार्षिक पत्रिका) एवं स्वतंत्र लेखन 
प्रकाशन- • पड़ाव और पड़ताल खण्ड-28 (छह नवोदिताओं की छियासठ कथाएँ), लघुकथा-अनवरत संकलन (साझा संकलन), नई सदी की धमक (साझा संकलन), स्त्री-पुरुष सम्बन्धी लघुकथाएँ (साझा संकलन), उद्गार (सांझा संकलन) सहित चालीस से अधिक साझा संकलनों में सम्मिलित।
• लघुकथा कलश पत्रिका, शोध-दिशा पत्रिका, दृष्टि पत्रिका, साहित्य अमृत पत्रिका, मृगमरीचिका पत्रिका, चेतना पत्रिका, मरु गुलशन के साथ ही पंजाबी पत्रिका गुसाइयाँ में अनुवाद सहित विभिन्न पत्रिकाओं में। • दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका, हिंदुस्तान,अमर उजाला, महानगर मेल, लोकजंग सांध्य दैनिक सहित विभिन्न समाचार पत्रों में। • yourstoryclub.com, openbooksonline.com, laghukatha.com, pratilipi.com वेबसाईट, तथा सेतु (Pittsburgh), हस्ताक्षर, अटूट बंधन सहित कई अन्य वेब पत्रिकाओं में
प्रसारण- बोल हरियाणा, रेडियो पर रवि यादव द्वारा लघुकथाओं का पाठ।
सम्मान/ पुरस्कार- कलश लघुकथा गौरव सम्मान - 2017
ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा - महादेवी वर्मा सम्मान - 2017 आशा किरण समृद्धि फाउंडेशन द्वारा - शिक्षा गौरव सम्मान - 2017
रोटरी क्लब इलीट द्वारा - हिंदी भाषा सेवा सम्मान - 2018
विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा - विद्या वाचस्पति सारस्वत सम्मान - 2018 रोटरी क्लब कानपुर इलीट द्वारा - वीमेन अचीवर सम्मान - 2019भारत उत्थान न्यास सम्मान - 2019
पुरस्कार: प्रतिलिपि कथा सम्मान प्रतियोगिता - प्रथम पुरस्कार - 2017
साहित्य सृजन संवाद कहानी प्रतियोगिता - विशिष्ट कहानी पुरस्कार - 2017
सेतु लघुकथा प्रतियोगिता - प्रथम पुरस्कार - 2018
संपर्क- रॉयल नेस्ट टेक ज़ोन -iv, ग्रेटर नोएडा गौतम बुद्ध नगर,(उत्तर प्रदेश)-201306
मोबाईल- 8948619547 / 7303311942