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सत्य का अभिज्ञान है : निर्वासिनी- डॉ वीना उदय

सत्य का अभिज्ञान है : निर्वासिनी- डॉ वीना उदय

हरभजन सिंह जी का हृदय भी इसकी रम्यता से आंदोलित हुआ और उसकी परिणति ‘निर्वासिनी’ शीर्षक से रचित उपन्यास के रूप में हुई। लेखक ने उपन्यास का प्रारंभ कण्व ऋषि के आश्रम की मनोरम प्राकृतिक छटा के वर्णन के साथ किया है। आश्रम में भ्रमण करते हुए प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य का रसास्वादन करते महर्षि को नदी तट पर शिशु का रुदन सुनाई देता है वह भ्रमित होते हैं कि यह रुदन शिशु का है अथवा रीछ का। वह जब वहाँ पहुँचते हैं, तो वल्कल में लिपटी नन्ही बालिका को देखकर वह उसे अपने अंक में उठा लेते हैं।

“यदि तुम तरुण के वसंत के फूलों की सुगंध और ग्रीष्म के मधुर फलों को एक साथ देखना चाहते हो जिससे अंतरण पुलकित सम्मोहित आनंदित और तृप्त हो जाता है अथवा तुम धरा और स्वर्ग की झांकी एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो, मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकलता है – शकुंतला” गेटे-जर्मन कवि
महाकवि कालिदास के विश्व विख्यात नाटक का विश्व की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हरभजन सिंह जी का हृदय भी इसकी रम्यता से आंदोलित हुआ और उसकी परिणति ‘निर्वासिनी’ शीर्षक से रचित उपन्यास के रूप में हुई। लेखक ने उपन्यास का प्रारंभ कण्व ऋषि के आश्रम की मनोरम प्राकृतिक छटा के वर्णन के साथ किया है। आश्रम में भ्रमण करते हुए प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य का रसास्वादन करते महर्षि को नदी तट पर शिशु का रुदन सुनाई देता है वह भ्रमित होते हैं कि यह रुदन शिशु का है अथवा रीछ का। वह जब वहाँ पहुँचते हैं, तो वल्कल में लिपटी नन्ही बालिका को देखकर वह उसे अपने अंक में उठा लेते हैं। वह अपने तपोबल से जान लेते हैं कि यह विश्वामित्र और मेनका की पुत्री है। लेखक ने विश्वामित्र और मेनका के मिलन की घटना में संयोग श्रंगार का अत्यंत सुंदर मर्यादित चित्रण किया है। मातृत्व की महत्ता प्रतिपादित करते हुए मेहरोत्रा जी लिखते हैं, स्वर्ग की अप्सरा मेनका भी मातृत्व सुख प्राप्त करने के पश्चात समस्त स्वार्गिक सुखों की तिलांजलि दे देना चाहती है किंतु उसके समक्ष कर्तव्य और मातृत्व की दुधारी तलवार थी। पुत्री के मोह में पड़कर यदि वह देवलोक नहीं लौटी तो उसे इंद्र के कोप का भाजन बनना पड़ेगा और पुत्री की सुरक्षा और पालन-पोषण की चिंता और मोहवश वह स्वयं को पुत्री से विलग नहीं कर पा रही थी। लेखक ने अपने सतीत्व और वात्सल्य की बलि चढ़ाती मेनका के द्वारा बड़ी चतुराई से सदियों से राजनीतिक स्वार्थ और षड्यंत्र का शिकार बनती स्त्रियों की दुर्दशा का चित्रण किया है।
शंकुतों द्वारा रक्षित शकुंतला के नामकरण की घटना के रोचक वर्णन के साथ-साथ लेखक तपोवन के महामात्य का वर्णन करते हुए हरभजन सिंह लिखते हैं,” आश्रम वान प्रांत का ऐसा अद्भुत भू-भाग था, जहाँ जीव-जंतु-मनुष्य सब एक विशाल परिवार तुल्य प्रकृति की गोद में---------- अभयास्थल था। शकुंतला की सखियों प्रियंवदा, अनसूया और उसके पशु-पक्षी मित्रों सुलक्षणा, स्वप्निका, नेत्रिका आदि के चरित्र को भी लेखक ने यथोचित विस्तार दिया है।
लेखक ने बालिका शकुंतला के मनमोहक रूप-लावण्य, बुद्धि-चातुर्य, प्रतिभा संपन्नता का वर्णन करते हुए बाल सुलभ चंचलता भी दर्शाई है। शकुंतला सखियों संग विचरते हुए वनप्रांत से थोड़ा अधिक दूर चली जाती है तो उसे और उसकी सखियों को मर्कटों द्वारा आतंकित करने की घटना का भी लेखक ने सजीव दृश्य चित्र उपस्थित किया है।
मारीच पुत्र कालनेमि के वंशज उग्रनेमी, अतिक्रोधनेमि, विक्रोधनेमि की वीभत्सता व रक्तपिपासुता, देव-दानवों के युद्ध की भयावहता, युद्ध में देवताओं के पराभव और उन पर विजय प्राप्ति के एकमात्र उपाय महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने वज्रास्त्र द्वारा वृत्तासुर के वध का वृतांत भी पाठकों को रोमांचित करता हुआ उपन्यास को गति प्रदान करता है।
हस्तिनापुर के राजा ऐति द्वारा ऋषियों का संरक्षण, यज्ञ-हवन आदि द्वारा विश्व मंगल कामना में सहयोग प्रदान करना, उनके वंशज दुष्यंत के पराक्रम व सौंदर्य का बखान सुनकर शकुंतला का उनके प्रति सम्मोहित हो जाना आदि घटनाओं का तथा एक उन्मत्त गज से शकुंतला व आश्रम वासियों की रक्षा करना। दुष्यंत व शकुंतला के मिलन और उसकी गंधर्व विवाह में परिणति आदि का लेखक ने कुशलता के साथ उपन्यास में उल्लेख किया है। उनके अलौकिक मिलन के साथ-साथ शकुंतला की पवित्रता और निष्कलंकाता का ध्यान रखते हुए लेखक ने कहीं भी उसका चरित्र हनन नहीं होने दिया। वह मात्र सौंदर्य की प्रतिमूर्ति नहीं है, वह अपने शील व सम्मान की रक्षा हेतु सजग होने के साथ-साथ यह भी सिद्ध करती है कि स्त्री जिससे प्रेम करती है, उसे अपना सर्वस्व समर्पित कर देती है। उसकी सखी प्रियंवदा सच्चे मित्र व सजग प्रहरी की भांति समय-समय पर उसे इस पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के बारे में सचेत करती रहती है। प्राचीन से अर्वाचीन तक नारी की स्थिति का विश्लेषण करते हुए माता गौतमी के शब्दों द्वारा मानो हरभजन सिंह अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-
“यही कारण है कि पुरुष प्रधान समाज में उसका दोष अक्षम्य है। स्त्री कलंकिनी है, चरित्रहीन पतिता और इतना ही नहीं ---नरक का द्वार है। जननी अथवा सृष्टिकारक शब्द तो मात्र नारी को भरमाने के लिए ऋषि-मुनियों और ज्ञानियों द्वारा उत्पादित के छद्म वेषित भाषा का अलंकरण मात्र है।”
शकुंतला और दुष्यंत के मध्य नारी-पुरुष के संबंधों व समाज द्वारा दोनों के लिए बनाए गए अलग-अलग नियमों पर वाद-विवाद आदि के द्वारा लेखक ने लेखक की नारी समानता व स्वतंत्रता के प्रति प्रगतिशील विचारधारा प्रकट होती है।
दुष्यंत और शकुंतला के गंधर्व विवाह के पश्चात दुष्यंत के हस्तिनापुर लौट जाने पर लेखक ने शकुंतला की मनोदशा का जिस प्रकार से चित्रण किया है वह विप्रलम्भ शृंगार का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। शकुंतला का गर्भवती होना तथा पिता तुल्य कण्व ॠषि को शकुंतला द्वारा सत्य निवेदित कर क्षमा प्रार्थना करना, दुर्वासा ऋषि के श्राप वश दुष्यंत का शकुंतला को विस्तृत कर देना आदि घटनाओं का लेखक ने अत्यंत कुशलता के साथ वर्णन किया है। पात्रों के संवाद चुटीले हैं तथा भाषा भावानुकूल तथा देश-काल की परिधि में बंधी हुई नज़र आती है। दुष्यंत के राजमहल से तिरस्कृत व निष्कासित शकुंतला के दुरावस्था का लेखक ने अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं पर अत्याचार में महिलाओं की सहभागिता व चेतना शून्यता के कटु सत्य का उन्होंने मार्मिक शब्द चित्र उकेरा है। गर्भवती शकुंतला के साथ मानवता की सीमाओं का जिस प्रकार से दुष्यंत के राज्य में हनन हुआ वह निश्चय ही शीर्षक की सार्थकता को पूर्णतय: सिद्ध करता है।
महान पिता ऋषि विश्वामित्र की पुत्री और विवश माता मेनका की त्याज्य शकुंतला का स्नेह पूर्वक पालन-पोषण करने वाली माता गौतमी तथा उसके ऋषि भाइयों द्वारा भी सिर्फ़ उसे ही दोषी मान उसे उसके हाल पर छोड़कर जाने की मर्मान्तक तक पीड़ा का वहन करती वह निर्वासिनी किस प्रकार अपने दुर्भाग्य के विरुद्ध लड़ती है। दुष्यंत के क्षमा प्रार्थना करने पर वह अभिमानिनी सहज ही उसे क्षमा नही कर देती है। महर्षि द्वारा सत्य विदित होने पर ही वह अपने पति को स्वीकारती है। उसके साहस और आत्म बल का चित्रण लेखक ने अत्यंत सजगता और मनोयोग से किया है। अंतत: समस्त औपन्यासिक तत्वों का कुशलता से निर्वहन करते हुए, वियोग और संयोग शृंगार से परिपूर्ण इस उपन्यास का सुखान्त होता है।
मुझे आशा ही नही पूर्ण विश्वास है कि हरभजन सिंह जी की अन्य कृतियों की भांति ‘निर्वासिनी’ को भी सुधि पाठकों का भरपूर स्नेह और सम्मान प्राप्त होगा।


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पुस्तक        : निर्वासिनी (उपन्यास)
लेखक        : हरभजन सिंह  मेहरोत्रा
प्रकाशक     : विकास प्रकाशन
पृष्ठ            : 143
मूल्य          : 400/- (हार्ड बाऊंड)
                   
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रचनाकार परिचय

वीना उदय

ईमेल : veena7singh@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

नाम- डॉ० वीना उदय 
जन्मतिथि- 23 जून 
शिक्षा- परास्नातक (हिंदी , संस्कृत) बी.एड.
संप्रति- हिंदी शिक्षिका,आर्मी पब्लिक स्कूल, कैंट कानपुर   
लेखन विधा- कविता, कहानी, समीक्षा, आलेख 
प्रकाशन
1- ‘द्रौपदी उठो’  (काव्य संग्रह),
2- ‘हमको तुम पर नाज़ है’ (सैनिकों की शौर्य गाथा)
3- ‘और पिंजरा खुल गया’  (कहानी संग्रह)
4- ज़िंदगीनामा- हरेन्द्र सिंह भदौरिया  (संपादँ)
5-‘निनाद’ (काव्य संग्रह) प्रकाशनाधीन

साहित्यिक पत्रिका गगनांचल, साहित्य भारती, निकट, कथा समवेत, कला  कुंज, स्पंदन , ओरीवली , धरती प्रदूषण से, इंस्पीरेशन,गीत गुंजन, वीणा,  यू0एस0एम0 पत्रिका, सरिता, गृहशोभा आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में  कविताएँ, कहानियाँ  एवं लेख प्रकाशित ।
सम्मान/ पुरस्कार
1- आर्मी वेलफेयर एजूकेशन सोसाईटी द्वारा सम्मानित                   
2- जवाहर लाल नेहरू युवा केंद्र, कानपुर द्वारा सम्मानित
3- पं० विश्वम्भर नाथ कौशिक स्मारक समिति द्वारा सम्मान
4- विकासिका संस्था द्वारा पं. गणेश शंकर शुक्ला ’बंधु’ स्मृति सम्मान
5- अंतर्राष्ट्रीय महिला मंच द्वारा उत्तर प्रदेश नारी गौरव सम्मान
6- शहर कांग्रेस कमेटी द्वारा उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान
7-राष्ट्रीय संगोष्ठी–भारतेन्दु युगीन पत्रकारिता, अर्मापुर पी जी कालेज, कानपुर
8-अटल सम्मान- मा. अटल बिहारी बाजपेयी स्मृति संस्थान , कानपुर 
9- शब्दोत्सव साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था, कानपुर द्वारा सम्मान
10- बुलंदी जज्बात – ए – कलम संस्था , रूद्रपुर, उत्तराखंड द्वारा सम्मान
11- एक शाम साहिर लुधियानवी के नाम – उत्तर प्रदेश उर्दू अकेदमी द्वारा सम्मान
12- साहित्य कुसुमाकर की उपाधि से साहित्य मण्डल श्री नाथद्वारा, राजस्थान द्वारा सम्मानित
13- सैन्य साहित्य परिषद द्वारा सम्मानित
मोबाइल- 9936452464