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सपना चंद्रा की काविताएँ

सपना चंद्रा की काविताएँ

दिन के उजाले से
सारी रश्मियों को
भरकर अपने भीतर
समेटे हुए
वह भूल गई
कि उसे खो जाना है

एक- नीलाभ

मन डूबना चाहता है पूर्णतः
जब-जब नीले रंग में
तब आकाश में फैला बादल
अति प्रिय लगता है
समंदर में उठती लहरों में
नील घुला-सा लगता है
दूर उफ़ुक में नीली-सी पट्टी
तैरती हुई प्रतीत होती है
इस नीलाभ की आभा भी
कितना सुकून देती है
तभी अचानक से नज़र पड़ती है
मौन, अपने आप में लीन
बैठे नीलाक्ष पर!
गहन पीड़ा में तर चेहरा
गरल की जलन
मुखमंडल को मलीन करती हुई,
निशा की वो पहर भी जब वह
विदा लेती है सहर होने से पहले
नीला-सा मन धीरे-धीरे नीलाभ से
नीलाक्ष होता चला जाता है

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दो- इंतज़ार

चुना है उस इंतज़ार को
मनमर्ज़ी से हमने
साँसों की अंतिम डोर तक

खुला आकाश उपहार-सा है
ख़्वाब-ओ-ख़याल की उड़ान
और धैर्य मेरी परीक्षा

पढ़ती हूँ हर दिन किताब
जो ख़ामोशी की स्याही से
लिखी जाती रही है

बे-रंग बरसात की रंगीनियाँ
कितना भिगो पाती हैं
यह देखना है मुझे

ये दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है
क्यूँकि ख़ूबसूरती बिखरी पड़ी है
बस दिल की नज़र चाहिए

मनगीत हो तो अच्छा
नहीं! तो कोई गीत विरह का
गुनगुना लेना यकीनन अच्छा है

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तीन- दूब का फूल

मेरे भीतर
जो स्पंदित थी
एक दिन उस साँस को
बाहरी हवा क्या मिली बस
हरी होकर दूब-सी बढ़ने लगी
जिसमें अदृश्य फूल खिलनेलगे

बेपरवाह-सी
कोमल-सी नोंक पर
शब की हथेली से
टपकते हुए
नन्हीं बूँदे उसकी नोंक पर
जा बैठीं

दिन के उजाले से
सारी रश्मियों को
भरकर अपने भीतर
समेटे हुए
वह भूल गई
कि उसे खो जाना है

किसी ने मंत्रमुग्ध हो
स्नेह की बौछार कर दी
बूँदें ज़रा ठिठक-सी गयीं
पर इस
प्रेम में डूबकर
इठलाना कौन न चाहे!
बूँदें इठलाती रहीं
हवाएँ सहलाती रहीं

जैसे-जैसे वक़्त बढ़ता रहा
बूँदे धीरे-धीरे अपना
अस्तित्व खोने लगीं

प्रेम रूपी बूँद सूख चुकी थी
तो दूब का मर जाना भी तय था
और वह फूल, जिसे किसी ने
नहीं देखा
उसका क्या मुरझाना
और क्या खिलना!!

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चार- वो शाम

चाहकर भी वो शाम
न कभी लौट पाएगी
ये थकन है ज़ीस्त की
एक दिन ढल जाएगी।

खाँसती है जवां रात में
हाँफती है हर बात में
कहाँ गई वो रानाइयाँ
ज़िंदगी की मालूमात में।

फब्तियाँ कसती साँस है
मौत तो रहती बिंदास है
भभक रही दिये की लौ-सी
प्राणों में बस उच्छवास है।

टाट पर सिली पैबंद-सी
कविता कोई तुकबंद-सी
मिली-जुली ही हिस्से में
बेरंग और बेस्वाद छंद-सी।

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पाँच- बहना चाहती थी

मैं! मैं कौन हूँ
कोई बता दे मैं कौन हूँ
आखिर कौन
आधी रात का वक़्त और
एक तीर सवाल का
सीधे दिल को लगा था
जिस पर कुछ ज़हर जैसी
चीज दिखी थी
इतनी नहीं कि लगे तो
मैं मर ही जाऊँ
बस इतनी कि तड़प सकूँ
देर तक मरने की स्थिति से
गुज़रते हुए
चीखने या रोने का कोई
मतलब नहीं था
कंठ अवरूद्ध और साँसें
बिखरती हुईं
बदन का शिथिल हो जाना
शून्य के एहसास से गुज़र जाना
तमाम हालात के बीच
आँखें मेरा साथ निभा रही थीं
क्यूँकि मैं बाहर निकलना चाहती थी
इसलिए बहना चाहती थी

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रचनाकार परिचय

सपना चन्द्रा

ईमेल : sapnachandra854@gmail.com

निवास : भागलपुर (बिहार)

शिक्षा- स्नातक
जन्मतिथि- 13 मार्च
जन्मस्थान- साहिबगंज, झारखंड,भारत
संप्रति- स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- कविता संकलन(तूलिका)
प्रसारण- आकाशवाणी भागलपुर से कहानियों का प्रसारण 
सम्मान/पुरस्कार- अटल रत्न सम्मान, सावित्रीबाई फुले-फातिमा शेख राष्ट्रीय सम्मान 
संपर्क- कहलगाँव,भागलपुर, बिहार
मोबाइल- 9430451879