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राम सुकृपा बिलोकहिं जेही- गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू'

राम सुकृपा बिलोकहिं जेही- गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू'

'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥'

यदि आपकी सर्वशक्तिमान प्रभु के प्रति अटूट आस्था है और आप समर्पित हैं तो आप यह मान कर चलें कि आपको मनोवांछित फल वे अवश्यमेव प्रदान करेंगे। इस तरह की अनेकों सत्य घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। यह अलग बात है कि बीते सालों में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने आआम सनातनी को भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके परिणाम स्वरूप एक बड़ा भाग असमंजस में आ गया लेकिन अनेकों ऐसे भी हैं जो अड़िग रहे, सर्वशक्तिमान प्रभु पर अटूट भरोसा रखा तो उन्हें मनोवाञ्छित लाभ भी मिला है। मैं स्वयं इसका साक्षी हूँ। आज तक अभी तक मुझे सर्वशक्तिमान प्रभु सभी तरह की विपदाओं से अपने आप निजात दिलवा रहे हैं। इसी कड़ी में मैं परमश्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा जिसमें उन्होनें बताया था कि "वस्तुसे, ब्यक्तिसे, परिस्थितिसे, घटनासे, अवस्थासे, जो सुख चाहता है, आराम चाहता है, लाभ चाहता है, उसको पराधीन होना ही पड़ेगा, बच नहीं सकता, चाहे ब्रह्मा हो, इन्द्र हो, कोई भी हो। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि भगवान् भी बच नहीं सकते। जो दूसरेसे कुछ भी चाहता है, वह पराधीन होगा ही।" इसीलिये यही समझाना है कि यदि हम सर्वशक्तिमान प्रभु पर भरोसा रख, सब कुछ उन पर छोड़ देंगे तो सारी ब्यवस्था को उन्हें सम्भालना पड़ेगा।

अब जैसा ऊपर बताया, इतिहास में उपरोक्त वर्णित तथ्यों को साबित करती अनेक घटनाओं, जैसे - "कैसे सन्त नामदेव जी की जि़द के आगे प्रभु विठ्ठल वाला वाकया हो या शबरी की श्रद्धा आगे प्रभु श्रीराम जी वाला वाकया या फिर भक्त नरसी वाला सुप्रसिद्ध नानीबाई का मायरा वाला वाकया," सभी इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रभु के प्रति समर्पित होकर सच्चे मन से याद करें तो वे हमारी व्यथा का समुचित निराकरण करेंगें ही। एक बात और यदि कोई समर्पित हो उनकी परिक्षा भी लेना चाहें तो प्रभु निराश भी नहीं करते और अन्यथा भी नहीं लेते।

आज परीक्षा वाले वाकये से जूड़ी, कर्मयोगी सन्त मलूकदास जी से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक सच्ची घटना आप सभी के ध्याननार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ लेकिन इस घटना को जानने के पहले यह जान लें कि शुरू में संत मलूकदासजी नास्तिक थे। इनके जीवन में एक ऐसी अत्यन्त रोचक घटना घटी जिसने इनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन ही नहीं कर दिया बल्कि इन्हें नास्तिक से आस्तिक बना दिया । और उस घटना का इन पर इतना असर हुआ कि इन्होनें निम्न दोहा गढ़ा जो कालान्तर में इतना ज्यादा लोकप्रिय हो चुका है कि दूर दूर तक जिनका पढ़ाई लिखाई से नाता नहीं उन किसान-मजदूरों से भी यह आज आसानी से सुना जा सकता है-

'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥'

उपरोक्त दोहे के कारण हम सभी न केवल कर्मयोगी संत मलूकदासजी को याद करते हैं बल्कि यों मानिये की उनकी याद अपने आप आ ही जाती है हालाँकि इस दोहे के साथ साथ उनकी अन्य रचनायें आज भी काफी प्रसिद्ध हैं। और उन रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि इनकी परमात्मा के अस्तित्व में प्रबल आस्था थी साथ ही साथ वे सतत नाम स्मरण को विशेष महत्त्व देते थे।

उपरोक्त दोहे का विश्लेषण भी अनेक साहित्यकारों ने समय समय पर अपने अपने हिसाब से किया है और सभी के विचारों में अनेक विभिन्नतायें स्पष्ट परिलक्षित होती हैं। लेकिन आइये अब कर्मयोगी संत मलूकदासजी से सम्बन्धित उस अत्यन्त रोचक घटना को जान लें जिसके चलते ही उन्होनें इस दोहे को गढ़ा। और वह रोचक घटना इस प्रकार है-

कहा जाता है कि कर्मयोगी संत मलूकदासजी आस्तिक नहीं थे। लेकिन एक बार गाँव मे होने वाली एक राम कथा में, गाँव कि परिपाटी अनुसार कम से कम एक दिन वाली उपस्थिति देने ये भी पहुँच गये और उस समय व्यास पीठ से उपस्थित श्रोताओं को प्रभु श्रीरामजी कि महिमा बताते हुए कहा गया कि "प्रभु ही संसार में एक मात्र ऐसे दाता हैं जो भूखों को तो अन्न देते हैं और नंगों को वस्त्र एवं आश्रयहीनों को आश्रय भी ।" इतना सुन कर्मयोगी संत मलूकदासजी विचलित हो गए और बिना समय गवांये उन्होंने व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा से क्षमा माँगते हुए अपनी बात रखते हुए कहा कि महात्मन ! यदि मैं बिना कोई काम किए चुपचाप बैठकर प्रभु रामजी का नाम लूं , तब भी क्या प्रभु रामजी भोजन दे देंगे?'

व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा ने उन्हें आश्वस्त किया कि निसंकोच देंगे।

उसके बाद फिर उन्होंने पूछा और कहा कि यदि मैं घनघोर जंगल में एकदम अकेला बैठ जाऊं, तब भी?

वापस व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा ने दृढ़तापूर्वक उन्हें समझा दिया की हर हालत में प्रभु रामजी भोजन देंगे , चाहे कैसे भी दें।

इतना सुनने के बाद उन्होनें निश्चय किया कि प्रभु रामजी की दानशीलता की परीक्षा ले लेनी चाहिये। यह सोच वे दूसरे दिन सबरे सबरे ही घनघोर जंगल के भीतर एक घने पेड़ के ऊपर चढ़ अपना डेरा जमा लिया । दिन ढला और सूर्य भगवान पश्चिम की पहाड़ियों के ओट में चले गये। इसके बाद धीरे धीरे वहाँ ऐसा अंधेरा छाया जिसके कारण जो थोड़ा बहुत दिखायी दे रहा था वह भी लुप्त हो गया , हाँ जानवरों कि आवाज सुनायी पड़ रही थी। इस तरह भूखे-प्यासे सारी रात निकल गयी । सुबह होते ही फिर आशा जागी और दूसरे पहर सन्नाटे में उन्हें अनेक घोड़ों की टापों की आवाज जब कानों में पड़ी तब सतर्क होकर सावधानी बरतते हुये बैठ गये । कुछ देर में ही उनकी तरफ ही कुछ राजकीय अधिकारी घोड़ों पर बैठे धीरे धीरे आ रहे थे । वे उस पेड़ कि छाँव में घोड़ों से उतर, वहीं भोजन कर लेने की सोची । इसलिये ज्योंही उनमें से एक अधिकारी ने थैले से भोजन का डिब्बा निकाल जमीन पर रखा, शेर की जबर्दस्त दहाड़ सुनाई पड़ी। जिसके चलते घोड़े बिदककर भाग गए। इस घटना से सारे अधिकारी स्तब्ध हो कर बिना कोई आवाज किये एक दूसरे से आँखों के माध्यम से ही सलाह कर , उस जगह को छोड़ना ही उचित समझा और वे वहाँ से भाग गये। इस पूरी घटना को कर्मयोगी संत मलूकदासजी पेड़ पर बैठे बैठे देख रहे थे। अब मलूकदासजी की आँखेँ शेर को खोज ही रहीं थीं तभी उन्होनें देखा शेर तो दहाड़ता हुआ दूसरी तरफ जा रहा है। अब वो आश्चर्यचकित हो नीचे पड़े भोजन को देखते हुये सोचने लगे कि प्रभु श्रीरामजी ने उनकी सुन ली है अन्यथा भोजन यहाँ कैसे पहुँचता। अब वो सोचने लगे इस भोजन को प्रभु मेरे मुँह में कैसे डालेंगे?

थोड़ी देर बाद जैसे ही तीसरा पहर शुरू हुआ फिर उसने घोड़ों की टापों की आवाज सुनी और पाया की डाकुओं का एक बड़ा दल उसके पेड़ की तरफ तेजी से चला आ रहा है। जैसे ही डाकुओं का दल पेड़ के पास पहुँचा तब वे लोग वहाँ रखे चांदी के बर्तनों में विभिन्न व्यंजनों के रूप में पड़े हुए भोजन को देख ठिठक गए। चूँकि वे भूखे तो थे ही, सो डाकुओं के सरदार ने अपने साथियों से कहा- देखो भगवान की लीला, हमें भूखा पा इस निर्जन वन में सुंदर डिब्बों में भोजन भेज दिया। इसलिये सबसे पहले प्रभु के भेजे इस प्रसाद को पा फिरआगे बढ़ेंगे। तभी एक शकी स्वभाव वाले साथी ने सरदार को आगाह करते हुये निवेदन किया कि इस सुनसान जंगल में इतने सजे-धजे तरीके से सुंदर बर्तनों में भोजन का मिलना मुझे यह सोचने पर मजबूर किया है कि भोजन को जाँच लेना चाहिये यानि कहीं इसमें विष तो मिला हुआ नहीं है। तभी एक अन्य साथी ने कहा यदि यह बात है तब तो भोजन लाने वाला आसपास ही कहीं छिपा होगा।यह सब सुन सरदार ने सभी को सब तरफ तलाश करने को कहा। तलाशी अभियान के दौरान एक डाकू की नजर पेड़ पर शान्त बैठे मलूकदासजी पर पड़ी और उसने तुरन्त सरदार को सूचना दे दी । सरदार ने सिर उठाकर उनको देखा तो उसकी आँखों मे खून उतर आया यानि आंखें अंगारों की तरह लाल हो गईं। उसने कड़कती आवाज में उनसे कहा,- दुष्ट! भोजन में विष मिलाकर तू ऊपर जा कर बैठ गया है। चल तुरन्त ही नीचे उतर।

सरदार की कड़कती आवाज सुनते ही मलूकदासजी बहुत डर तो अवश्य गये फिर भी उतरे नहीं बल्कि पेड़ पर बैठे बैठे धैर्य के साथ बोले, व्यर्थ दोष क्यों मंढ़ते हो? विश्वास करो भोजन में विष नहीं है। इतना सुनते ही सरदार ने आदेश दिया- पहले तीन-चार साथी पेड़ पर चढ़ इसके मुँह में भोजन ठूँसो तभी झूठ-सच का पता चल पायेगा ।इसके बाद तुरन्त ही तीन-चार डाकू भोजन का डिब्बा उठा पेड़ पर चढ़ गये और अपने हथियारों के जोर से मलूकदासजी को खाने के लिए विवश कर दिया यानि एक कौर उनके मुँह में ठूँस दिया। मलूकदासजी को भूख तो लगी हुयी थी इसलिये उन्होनें भी छक कर आराम से भोजन करने के बाद ही पेड़ से नीचे उतरे और सभी डाकुओं को सारी बात सही सही बयाँ कर दी। डाकुओं ने उनकी बात ध्यानपूर्वक सुनने के बाद आपसी सलाह कर उन्हें छोड़ दिया।

इस तरह उन्होनें सर्वशक्तिमान प्रभु की माया का अनुभव कर सोचा कि व्यास पीठ पर विराजमान महात्मा ने एकदम ठीक ही कहा था कि "हर हालत में प्रभु रामजी भोजन देंगे , चाहे कैसे भी दें" क्योंकि उन्हें बलात भोजन कराया गया, भूखा मरने के लिये नहीं छोड़ा । इस घटना से उनके जीवन मे आमूल- चूल परिवर्तन हो गया और वे सर्वशक्तिमान ईश्वर के पक्के भक्त बन गये ।गाँव पहुँचने के बाद सभी को पूरी घटना से तो अवगत कराया ही साथ ही साथ उसी समय उपरोक्त दोहा भी गढ़ सबको सुना दिया।

उपरोक्त घटना से एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि शुद्ध कर्म, वचन व मन से यदि हम सबके साथ व्यवहार करते हैं तो सर्वशक्तिमान प्रभु निश्चित ही हमारे साथ सबसे ज्यादा प्रेमपूर्ण भाव रखते हुये सब कष्टों से उबार लेंगे , भले ही हम उन्हें भजें या न भजें। कुलमिलाकर हमें अपने मन में कभी भी किसी का अहित करने की मंशा नहीं रखनी है| यदि ऐसा हम कर पाते हैं तो हम भी मलूकदास जी की तरह प्रभु की परीक्षा ले सकते हैं और प्रभु भी इसका बुरा नहीं मानेंगे बल्कि वे सत्कर्मों का सम्मान करते हुये स्वयं परीक्षा देने अवश्य उपस्थित होंगे क्योंकि वे छोटे-बड़े की भावना ही नहीं रखते हैं।

आप सभी के ध्याननार्थ बता दूँ कि ऐसा पढ़ने में आता है कि औरंगजेब जैसा पशुवत मनुष्य भी उनको बहुत मानता था, सम्मान देता था, क्योंकि मलूकदासजी ने स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण से व्यावहारिक ज्ञान अर्जित किया। उनके उपदेश हृदय में समा जाते थे । यही कारण है कि उपरोक्त दोहे के साथ साथ उनकी अन्य रचनायें आज भी प्रसिद्ध हैं।

 

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रचनाकार परिचय

गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू'

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