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लिम्बू : कला, साहित्य (भाग एक)- डॉ० शोभा लिम्बू यल्मो

लिम्बू :  कला, साहित्य (भाग एक)- डॉ० शोभा लिम्बू  यल्मो

इस आलेख में पढिए आदिवासियों की लिम्बू  प्रजाति की विशिष्ट भाषा, संस्कृति, परम्पराओं और जीवन शैली के विषय में डॉ० शोभा लिम्बू यल्मो द्वारा लिखित विस्तृत आलेख। 

आदिवासी कला, साहित्य के विषय में कुछ जरुरी बातें अवलोकन करने से पहले 'आदिवासी' शब्द को परिभाषित करना अति आवश्यक समझती हूँ।
आदि > आदि युग से अर्थात जब से सृष्टि हुई है।
वासी > किसी विशेष स्थान पर निवास करने वाले निवासी।

यह समुदाय प्राचीन काल से किसी विशेष क्षेत्र में निवास करते हुए चले आ रहे हैं जिनकी अपनी विशिष्ट भाषा, संस्कृति, परम्पराएँ और जीवन शैली होती है।
इस 'आदिवासी' शब्द को लेकर बहुल सारे अनुमान लगाए जाते हैं या मतभेद है। कोई स्वदेशी लोग / मूल निवासी / इंडिजिनियस(लेटिन) पिंपल्स कहते है।
प्रायः लोगों की यह धारणा है कि ये जंगली / असभ्य / अनपढ़ / पिछड़े दर्जे का समुदाय है।
आज भी 'आदिवासी' शब्द को लेकर काफी गलतफहमियाँ हैं। विशेष समतल और पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के बीच इन 'आदिवासी' शब्द का उपयोग भी भिन्न- भिन्न दृष्टिकोणों से करते हुए देखे जाते हैं। पहाड़ी क्षेत्र के जितने भी आदिवासी समुदाय हैं वे अपने लिये 'ट्राईबल' शब्द का प्रयोग करते आ रहे हैं शायद कारण कुछ भी हो सकता है। 'आदिवासी' शब्द को प्रायः वे समतल के आदिवासी को चिन्हित करते है।
भारत के विभिन्न सभ्यताओं के विकास को अगर देखें तो करीब 10, 000 सालों के आसपास की सभ्यता है। भारत में द्रविडियन और आस्ट्रीक भाषा बोलने वाले समुदायों का इतिहास लगभग 50-70 वर्ष पुराना है।

भारत के संविधान में आदिवासियों से सम्बंधित अनुच्छेदों में :
अनुच्छेद 15(4) में शैक्षिक उन्नति के लिए विशेष प्रावधान है।
अनुच्छेद 46 में शैक्षिक और आर्थिक हित को बढ़ावा देने का आदेश है।
अनुच्छेद 244(1) - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों पर पाँचवी अनुसूची लागू करता है।
अनुच्छेद 330- लोकसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करता है।
भारत में आदिवासी शब्द स्वदेशी समुदायों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना को पारिभाषित करता है। इसमें आदिवासी स्वायत्त शासन व्यवस्था, परम्पराएँ एवं सामूहिक सामाजिक व्यवस्था शामिल है।
सभी आदिवासी समुदाय को पूरी तरह से रेखांकित करना सम्भव नहीं है इसलिए मैं किरात लिम्बू आदिवासियों के कला, साहित्य और उनके सौंदर्य शस्त्र के कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश करुँगी।
सर्वप्रथम तो आदिवासी प्रकृति उपासक हैं यानि पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, नदी, जल, पर्वत, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, अनाज सभी प्रकृति की सम्पदाओं को पूजते हैं। यह सृष्टि कर्ता यानी ब्रह्मांड बनाने वाली शक्ति को मानते हैं। उनका जीवन का आधार ही प्रकृति है जिसका अनुकरण करके ही अपने जीवन का संचालन करते हैं। उनमें कोई कृत्रिमता नहीं है। प्रकृति पर आश्रित और निर्भर हैं, यही मूल रूप से उनकी अपनी मौलिक परम्परा और जीवन है। अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला, भाषा, इतिहास को मौखिक रुप से हस्तान्तरित करते हुए जीवंत रखा है और यही आदिवासियत है।
बाहरी दुनिया के नजरिए से देखे तो उन्हें विभिन्न नामों से परिभाषित किया गया है जिसका जिक्र कर चुकी हूँ और विशेष कर उनमें अशिक्षित, असभ्य, जंगली, आधुनिकता की कोई गुंजाइश नहीं है आदि...
आज उनका कोई लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है और उसी आधार पर उनका बड़े-बड़े विद्वानों और लिखित वेद, पुराण, महाकाव्य ग्रंथों से उनके. साहित्य की तुलना करते है जो आधारहीन है।
प्रथमतः आदिवासी की जो मौखिक परम्परा है जिन्हें अंग्रेजी में 'Oral tradition' कहा गया है। इनकी अपनी जितनी भी परम्पराएँ हैं सभी मौखिक रूप से प्रत्यक्ष हस्तांतरण होते हुए चला आ रहा है जो लोकगीत, लोकनृत्य, लोककथा, लोकोक्ति, बोली भाषा के रुप जीवंत है। आदिम युग में कोई लिखित दस्तावेज लिखकर रखने का प्रावधान नहीं था फिर भी इनकी अपनी मौलिक परम्परा, संस्कार, सभी प्रकृति से सम्बंधित होने के कारण प्रकृति के बीच मौखिक दस्तावेज को अपने साथ अपनी व्यवस्था के अंदर सुरक्षित रखता था। सारा जल, जंगल और जमीन के मालिक वे खुद हुआ करता था।
आज किरात जनजाति के लोग विश्व के चारों तरफ फैले हुए हैं। 'किरात' एक जातिय समूह है जिनकी विविध शाखाएँ विश्व में पाई जाती हैं। प्राचीनतम जातियों में किरात की गणना होती है। ऋग्वेद में भी इनका उल्लेख मिलता है।
" वर्तमान नेपाल देश के पहाड़ी क्षेत्र को किरात नाम से पहचाना जाता था। आजकल पूर्वी नेपाल क्षेत्रों को इतिहास में माझ' या 'पल्लो' किरात के नाम से चिंहित किया गया है। 'पल्लो' या ' माझ' किरात कहने से लिम्बुओं या कथुङबाओं का निवास स्थान समझा जाता था। इन दोनों प्रदेश के किरात लोग बाद में अपने पूर्व स्थल छोड़कर हिंदुस्तान के मैदानी क्षेत्र में आकर बसे थे। इसके पश्चात इनके वंशजों की जनसंख्या अधिक बढ़ने के कारण कोई पूर्व और कोई उत्तर दिशा की ओर बढ़ने लगे। इस वंश का पूर्वी नाम 'सौमर' रखा गया। यह 'सौमर' वंश विशेष किस स्थान और किस शताब्दी में हिंदुस्तान में आए थें? इसका उल्लेख भिन्न-भिन्न इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न रुप से दिया है। " ( 'किरात इतिहास', पहला अध्याय, पृष्ठ 1 - ईमान सिंह चेम्जोंग)

'जिस समय आर्य लोग सप्तसिन्धु में आ पहुँचे थे उस समय से पहले आबाद होकर सभ्यता का निर्माण किरात जाति के नेता शम्बर कर चुका था।' ( वैरागी काइंला 'मुन्धुम, पृष्ठ : 245, निर्माण संस्कृति विशेषांक, निर्माण प्रकाशन- दक्षिण सिक्किम)

सुनीति कुमार च्या चटर्जी के अनुसार:- "किरात शब्द विशेषत: आदिम तथा आर्यतर जाति है। मंगोल वंश के ये किरात जातियाँ हिमालय का दक्षिण भाग नेपाल, सिक्किम के पूर्वोत्तर भारत में वास करती हैं। जिनमें नेवार, मगर, गुरुङ, धिमाल लिम्बू. थामी, लाप्चे, सुनुवार मुर्मी टोटो आदि हैं।"
'किरात' शब्द की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न इतिहासकार, भाषाविद्, विद्वानों ने अपने मतानुसार विभिन्न परिभाषाओं से परिभाषित किया है।

लिम्बू की अपनी पृथक जातिय विशेषताएँ हैं :
1. लिम्बू (याकथुङ) किरात समूह की एक शाखा है। भाषा परिवार के अनुसार देखें तो ये भोट बर्मेली परिवार की पूर्वी शाखा के अन्तर्गत बोडिग उपशाखा हिमालयी वर्ग की पूर्वी भाषा है।
2.इनका अपना आदिम धर्म ' युमा साम्यो' है जो इनके आदिम होने की सबसे बड़ी पहचान है। ये प्रकृति उपासक हैं।
जीवोत्पत्ति ( Abiogenesis) पर आस्था रखने वाला धर्म है। मुन्धुम में वर्णित सृष्टि की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति मानते हैं।
3. इनका दार्शनिक पक्ष बहुत ही परिपक्व और सुगठित है।
4. इनकी अपनी संस्कृति, परम्परा और लिपि है जिसे सिरिजंगा लिपि कहते है।
5. 'मुन्धुम' इनका जीवन का आधार है और जीवंत मौखिक दस्तावेज हैं।
इस समुदाय की पहचान उनकी अपनी विशिष्ट लिपि, भाषा, परम्पराएँ, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आधारभूत पारम्परिक संरचना है।
किसी भी समुदाय की आधारभूत ऐतिहासिक पारम्परिक सांस्कृतिक संरचना के माध्यम से हमें उस विशेष समुदाय की समयकाल, सभ्यता, भाषा परिवार, पृष्ठभूमि का आसानी से पता लग सकता है।
सरल भाषा में कहें तो हमारे ईर्द-गिर्द प्रकृति में सर्वत्र जो सौंदर्य विद्यमान है उसे देखकर हमारे मन में जो आनंद और खुशी की अनुभूति होती है, उसके साथ जीवन में होने वाली अन्य अनुभूतियों के साथ समन्वय स्थापित करना ही सौंदर्य शास्र का मुख्य उद्देश्य है।
हम देखते है कि सौंदर्य शास्र का एकमात्र उद्देश्य ऐन्द्रिय सुख की चेतना है। इस पर विभिन्न दार्शनिकों एवं विचारकों ने भिन्न भिन्न विचार व्यक्त किए हैं।
आधुनिक चिंतक एवं साहित्यकारों ने सौंदर्य के लिए संबंध को महत्व दिया है। जिस संबंध में प्रयोजन, लाभ, क्षति का कोई स्थान नहीं होता है। एक निस्वार्थ अनुभूति ही सौंदर्यशास्त्र का वास्तविक उदेश्य होता है।
प्लेटो ने एक जगह कहा था, ' f anything is beautiful it is beautiful for no other reason then that is partakes of absolute beauty.'
आदिवासी जीवन दर्शन को गौर से देखा जाय तो उनकी जीवन शैली, संस्कार, संस्कृति और सामाजिक व्यवस्थाओं में प्रकृति के प्रति सौंदर्य की अनुभूति, संवेदनाएँ और भावनाएँ आदि समाविष्ट है।
प्रकृति के बीच रहकर संवेदनशील और आत्मीयता का जो एक परस्पर संबंध उनमें दिखाई देता है, वही वास्तविक रुप में सौंदर्य की अनुभूति होना है।
वे प्रकृति उपासक हैं यानी पेड़-पौधे, नदी, पशु-पक्षी, जीव जन्तु, चाँद-तारें, पत्थरों, चट्टानों आदि सृष्टि के सभी वस्तुओं को अपना सर्वस्व मानते हैं।
प्रकृति ही उनका जीवन का आधार है, इसलिए प्रकृति की रक्षा करना और पूजना उनका धर्म है।
  उनकी सभ्यता, संस्कृति, परंपरा एवं इतिहास को देखे तो सभी का उत्स प्रकृति ही है। प्रकृति के साथ उनका अन्योन्याश्रित सम्बंध है।
अतः आगे इनके कला, साहित्य के माध्यम से इनके प्रकृतिवादी जीवन दृष्टि को समझने की कोशिश कर सकते हैं।

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रचनाकार परिचय

शोभा लिम्बू यल्मो

ईमेल : sovalimbooyolmo@gmail.com

निवास : कालिम्पोंग(पश्चिम बंगाल)

नाम- डॉ० शोभा लिम्बू यल्मो
जन्मतिथि- 01 जुलाई, 1967
जन्मस्थान- दुर्गापुर, पश्चिम बंगाल,
शिक्षा- एम.ए., पीएचडी.,
संप्रति- एशोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग (विभागाध्यक्ष), कालिम्पोंग कालेज , कालिम्पोंग, पश्चिम बंगाल
प्रकाशित कृति-
क. लिम्बू भाषा का स्वरुप विकास (विचार प्रकाशन, सिक्किम,2008)
ख. ‌‌'समकालीन चर्चित नेपाली कहानियां '( सूत्रधार प्रकाशन, कोलकाता (2016)
ग. 'प्रसाद की कहानियों का शास्त्रीय अध्ययन '(आनंद प्रकाशन, कोलकाता 2020)
घ. 'याक्थुंग मुक खेदा ' लिम्बू लोक-कथा हिंदी में (बुकांट पब्लिकेशन, सालबारी, सिलिगुड़ी 2023)
ड़. 'कैमेलिया '(कहानी संग्रह), अनंग प्रकाशन, नई दिल्ली।

आलेख, कहानी, कविता, साक्षात्कार एवं समीक्षात्मक लेख प्रकाशित विविध राष्ट्रीय पत्रिकाओं में:
१. समकालीन भारतीय साहित्य, साहित्य अकादमी दिल्ली,
२. युद्धरत आम आदमी पत्रिका,नई दिल्ली,
३. 'भाषा' पत्रिका, मानव संसाधन विकास मंत्रालय,नई दिल्ली।
एवं अन्य नेपाली एवं लिम्बू भाषा साहित्य पत्रिकाओं में... ।

विशेष- अध्यक्ष: दार्जिलिंग हिंदी भाषा मंच कालिम्पोंग, पश्चिम बंगाल।
सम्मान-
1- वीरांगना सावित्री बाई फुले राष्ट्रीय पुरस्कार 2016 (भारतीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली)
2- अंतरराष्ट्रीय तथागत विशिष्ट सम्मान 2019 (इटवा सिद्धार्थ नगर, उतर प्रदेश)
सम्पर्क- ठेगाना- ' यल्मो अयन,'
डॉ० बी.एल. दीक्षित रोड, कालिम्पोंग-734301