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जानकी विष्ट वाही की लघुकथाएँ

जानकी विष्ट वाही की लघुकथाएँ

जल्दी-जल्दी सरसतिया से दूर जाने की हड़बड़ी में सुहासिनी का पाँव जो मुड़ा तो दर्द से दोहरी हो वहीं गिर गई।

एक- मशीन

"सुनिए! अंदर आ जाइये? अँधेरा होने लगा है, कब तक गेट पर टकटकी लगाए रहोगे?"
पत्नी ने आवाज़ लगाई।
घर के सामने सड़क से गाड़ियाँ फर्राटे से गुजर रही हैं। लगा पति ने सुना ही नहीं। वे निर्विकार भाव से बैठे रहे। महाभारत के अर्जुन की तरह उनकी आँखें घर के गेट की तरफ लगी हैं। बाकी हर चीज़ से परे ...

कुछ पल बाद पत्नी ने फिर बाहर झाँका और फिर जोर से बोली:
"कहाँ खोये हुए हैं आप? ठंड लग जायेगी? अब तो अंदर जाइये।"

"सुनो जी! छोटू क्यों नहीं आया होगा? चार दिन से उसकी राह देख रहा हूँ,आया ही नहीं? पढ़ने में मन ही नहीं लगाता है। "
चश्मे को रुमाल से साफ़ करते हुए और पत्नी की बात को अनसुना कर पति बोले।

"अब मुझे क्या मालूम?”
बात टालने के लिए पत्नी ने कहा... और फिर पति के कंधों पर शाल डालकर उनको उठने में मदद करने लगी।

"जानती हो! पढ़ाना तो एक बहाना था। तुम तो जानती ही हो, गणित मेरा विषय नहीं रहा है फिर भी तैयारी करके उसे पढ़ा रहा था।"

"हाँ, जानती हूँ। पर ये बच्चे भी तो मुफ्त मिली चीज़ की कद्र ही नहीं करते हैं? आप तो उसके भले के लिए ही पढ़ा रहे थे।"
पत्नी की आवाज़ भीगी सी थी।

" सच कहूँ , उसके आने से अकेलापन कम लगता था, वर्ना घर की ख़ामोशी काट खाने को दौड़ती है। लगता है अपने बच्चों के साथ इस घर की आत्मा भी विदेश में जा बसी।"
पत्नी के कन्धे का सहारा लेकर चलते हुए पति बोले।

पत्नी से रहा नहीं गया, बोली-
’’छोटू की माँ से मेरी बात हुई थी। वह कहता है कि... "
पत्नी बोलते-बोलतेे झिझक गई।

"क्या कहता है?" पति के क़दम भी ठिठक गए।

"कहता है कि अंकल को ठीक से सुनाई नहीं देता है मैं पूछता कुछ और हूँ वे बताते कुछ और हैं। मेरी समझ में कुछ आता ही नहीं है। और वह क्या मैं भी तो कह-कहकर थक गई हूँ कि आप...’’
इतना बोलकर पत्नी ने अपनी ज़ुबाँन काट ली मानों कोई गलत बात कह दी हो।

तभी गेट की घण्टी बजी दोनों ने मुड़कर देखा नौ-दस साल एक का बच्चा अपनी माँ के साथ खड़ा था। माँ बोली-
‘’सुना है आप यहाँ गरीब बच्चों को पढ़ाते है?"

‘’हाँ, पढ़ाते हैं।‘’ शीघ्रता से पत्नी ने जवाब दिया।

गेट पर खड़े बच्चे को देख पति के चेहरे पर बालसुलभ मुस्कान उभर आई। पत्नी को देखते हुए बोले-
"सुनो, कान की मशीन बनवाने चलेंगे कल..."

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दो- छू लिया

सुहासिनी ने दूर से सरसतिया को देखते ही मुँह में कपड़ा लपेटा। उसे लगता है सरसतिया जब भी कोई भी सड़क से गुज़रता है तो जानबूझ ज़ोर-ज़ोर से झाड़ू मार कर धूल उड़ाती है।
"पर इन लोगों के मुँह कौन लगे, कुछ कहा नहीं कि सात पुश्तें तार देंगे।"

बड़बड़ाती हुई सुहासिनी ने कदम तेज़ किये। रोज सुबह स्कूल जाते समय दोनों की भेंट होती है। एक के मुँह में जातिगत दर्प और खीझ झलकती तो दूसरे के चेहरे से गुस्सा और नफ़रत। गनीमत थी दोनों अपने-अपने म्यान में सिमटी रहतीं। हाँ कभी-कभी सरसतिया की बड़बड़ाहट उस तक ज़रूर पहुँचती।

" हमसे परे-परे जायेंगे? हम तो छूत की बीमारी हैं ना ?..."

जल्दी-जल्दी सरसतिया से दूर जाने की हड़बड़ी में सुहासिनी का पाँव जो मुड़ा तो दर्द से दोहरी हो वहीं गिर गई। ये देख सरसतिया ने हाथ का झाड़ू फेंक सुहासिनी को को थाम लिया,और खींच-तान के पाँव की नस ठीक कर सहारा दे खड़ा कर दिया।
फिर मुस्कुरा कर बोली -
"हमने छू लिया तुमको।"

" सच कहा, तुमने तो हमारे मन को भी छू लिया" सुहासिनी ने सरसतिया के धूल भरे हाथों को प्यार से पकड़ लिया। लगा एक अभेद्य दुर्ग ढह गया।

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रचनाकार परिचय

जानकी विष्ट वाही

ईमेल :

निवास : नोएडा (उत्तर प्रदेश)

जन्म स्थान- पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड
शिक्षा- एम.ए.अर्थशास्त्र,बी.एड.
लेखन विधा- लघुकथा,कहानी , कविता,हायकू और वर्ण पिरामिड, व्यंग्य और सामयिक विषयों पर  लेखन ,आलेख
पिता का नाम- श्री मोहन सिंह बिष्ट
संप्रति- शिक्षिका एवम् लेखिका
प्रकाशन- कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में कथाएँ प्रकाशित। लघुकथा ,हायकू और वर्ण पिरामिड के साझा संकलन प्रकाशित।
संपर्क- बी.150, प्रथम तल
सेक्टर 15, नोयडा, 201301, उत्तर प्रदेश
मोबाइल- 7838405528