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अंजू केशव की ग़ज़लें

अंजू केशव की ग़ज़लें

आपको माना कि बारिश चाहिए
बादलों को पर गुज़ारिश चाहिए

है तो औरत ही भले सीता ही है
तो उसे भी आज़माइश चाहिए

ग़ज़ल- एक 

जीने की तमन्ना हो या मरने का इरादा
लो छोड़ दिया ख़ुद से भी डरने का इरादा

इतरा के कहा काँच ने है पास मेरे ग्लू
है अब नहीं मेरा भी बिखरने का इरादा

बहते हुए पानी की ये किलकारियाँ तो सुन
फिर पूछ भी लेना कभी झरने का इरादा

है याद वचन कोई भी क्या सप्तपदी के
या है तेरा उससे भी मुकरने का इरादा

आईने को भी साफ किया धूल हटाई
मेरा भी है अब ख़ूब सँवरने का इरादा

सीखा तो नहीं तैरना पर सीख ही लेंगे
जब कर लिया पानी में उतरने का इरादा

दिखने लगे हैं चारों तरफ उसको तो मरहम
लगता है कि ज़ख़्मों का है भरने का इरादा

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ग़ज़ल- दो 

ख़िज़ाँ में भी मायूस कब ये शजर है
भरोसा उसे अपनी हर शाख़ पर है

रखे बीच लाशों के भी ख़ुद को ज़िंदा
अनोखा ये इक ज़िंदगी का हुनर है

जो हैं सोचते डूब जाता है सूरज
बता दूँ बहुत तंग उनकी नज़र है

पहुँचना है उस पार लड़कर इसी से
चहेती समंदर की जो ये लहर है

दिखाना न हर एक जलवा अभी से
कि इस जश्न का दौर तो रात भर है

तिजारत में पत्थर की मत भूलना ये
तुम्हारा ख़ुद अपना भी शीशे का घर है

उजाले तो हैं पर है तुझमें तपिश भी
बता क्या तू जलती हुई दोपहर है

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ग़ज़ल- तीन 

भर गया रेत के अंबार से अंतर मेरा
जाने कब सूख गया मुझमें समंदर मेरा

वो है शीशे की तरह टकरा के फिर क्यों उससे
है बिखर जाता ही पत्थर-सा ये पैकर मेरा

भूल इक पल में गया दर्द सभी मैं अपने
हाथ थामा मेरे बच्चे ने जो कस कर मेरा

कम है सामान मगर है यहाँ सम्मान बहुत
देखिए आप कभी आ के तो ये घर मेरा

सात के सात वचन ख़ुद से ही निभ जाते हैं
हाल जब प्यार से है पूछता शौहर मेरा

लोग होते भी मेरे साथ तो होते कैसे
साथ जब था ही नहीं मेरे मुकद्दर मेरा

क्यों नहीं ख़्वाब से बाहर भी निकलते हो कभी
चीख कर पूछता भीतर का सुख़नवर मेरा

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ग़ज़ल- चार 

आपको माना कि बारिश चाहिए
बादलों को पर गुज़ारिश चाहिए

क्या ही लेना है इसे कुछ भी जले
तीलियों को सिर्फ आतिश चाहिए

है तो औरत ही भले सीता ही है
तो उसे भी आज़माइश चाहिए

कर तो सकते आपका हम काम हैं
पर किसी की तो सिफारिश चाहिए

आईने की ज़िद अगर है टूटना
पत्थरों को कैसी कोशिश चाहिए

दोस्ती चाहे चिरागों से न हो
पर अँधेरों से तो रंजिश चाहिए

योजनाओं से न चलती सिर्फ ये
है सियासत इसको साजिश चाहिए

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ग़ज़ल- पाँच 

जो नहीं ये बेज़ुबानी जाएगी
मेरी चुप फिर हाँ ही मानी जाएगी

है न सस्ती इतनी कि हर बात पर
अपनी इज्ज़त ख़ानदानी जाएगी

ऐश के संग फ़र्ज भी कुछ हो अदा
वरना तो आलाकमानी जाएगी

कर्म जितनी चाहे पगड़ी बाँध ले
बनके किस्मत चौधरानी जाएगी

पाट में दो वय के मध्यम वर्ग-सी
हर दफ़ा पीसी जवानी जाएगी

हैं भले ही कोट के अंदाज़ अलग
शादी में तो शेरवानी जाएगी

बेटा है बेचैन पापा चैन में
सोचकर ये कल ही नानी जाएगी

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