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डॉ० सुषमा त्रिपाठी की कहानी 'प्रसाद'

डॉ० सुषमा त्रिपाठी की कहानी 'प्रसाद'

बारह वर्ष का अनुराग अभी स्कूल से आकर लेटा ही था कि उसके कानों में फुसफुसाहट आ पड़ी,सुनो भाभी! ये अनुराग अब भी तुम्हारे ही गले की घण्टी बना रहेगा? आख़िर कब तक यह यहीं तुम्हारे सर का बोझ बना रहेगा?'

बारह वर्ष का अनुराग अभी स्कूल से आकर लेटा ही था कि उसके कानों में फुसफुसाहट आ पड़ी,सुनो भाभी! ये अनुराग अब भी तुम्हारे ही गले की घण्टी बना रहेगा? आख़िर कब तक यह यहीं तुम्हारे सर का बोझ बना रहेगा?' यह सब सुनकर भी शीतला माँ चुप ही रहीं। उनकी आवाज़ नहीं सुनाई दी। बुआ अलबत्ता लगातार बोले जा रही थीं। 'अब तो इसे इसकी माँ के पास भेज ही दो।तु म्हारे पास भी दो बच्चे हैं, उनकी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दो।बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना मामूली बात नहीं है। अभी से अपने बच्चों का ध्यान रखोगी,तभी उनकी, तुम्हारी, भैया सबकी ज़िन्दगी बन पाएगी। अनुराग का क्या भरोसा? न जाने किस....'बस! बस करो दीदी! आगे कुछ न कहना। अपनी ही छाती का अमृत पिलाया है मैंने। उसकी देवकी न सही, यशोदा माँ तो हूँ ही।‘ इसे सुनते ही अनुराग  का हृदय  विचलित हो उठा, 'तो क्या यह मेरी माँ नहीं हैं? फ़िर मेरे माता-पिता कौन हैं? कहाँ हैं? कैसे हैं और क्यों उन्होंने मुझे यहाँ इनके पास छोड़ा?'

      किशोर वय का वह बालक आँसुओं से भीगी तकिया में अपना मुँह छिपाए न जाने कब सो गया। लगभग घण्टे भर बाद शीतला माँ की मिश्री सी मीठी बोली ने उसे जागने पर विवश कर दिया। माँ का कोमल स्पर्श उसके मन को लुभा गया, 'बेटा अन्नू! स्कूल से आकर चुपचाप सो क्यों गये? खाना भी नहीं खाया मेरे लाल ने?' तब तक शीतला के दोनों बच्चे अहम और अस्मिता भी आकर उसे गुदगुदाने लगे। 'भैया!उठो न! देखो बुआ मिठाई लाई हैं और मम्मा ने बुआ के लिए बिहारी के यहाँ की आइसक्रीम भी मँगाई थी, वह भी फ्रिज़ में रखी है। आपको देने के बाद ही मम्मा हम लोगों को देगी। ज़ल्दी उठो। '

        अनुराग उठते ही बाथरूम में जाकर अपना मुँह धो आया था लेकिन उसकी ऑंखें अभी भी लाल थीं। भभराया हुआ चेहरा उसके दुखी मन की चुग़ली कर रहे थे। अहम और अस्मिता उसे खींच कर माँ के सामने ले गये। शीतला उसे देखते ही मिठाई, आइसक्रीम देना भूल उसे दुलराने लगीं 'क्या हुआ मेरे लाल को? स्कूल में डाँट पड़ी क्या? इसीलिये रोते रोते सो गया मेरा बच्चा? यही बात है न! या किसी से झगड़ा हुआ है? 'हथेलियों में उसका चेहरा लेकर चूमती रही 'क्यों रोया मेरा बच्चा? मैं कल आऊँगी तुम्हारे स्कूल।' और इस पर अनुराग हँस पड़ा। उदासी के बादल छँट गये। बात जहाँ की तहाँ रह गई। न जाने कितनी बार शीतला माँ ने उसे दुलराया होगा, प्यार भी किया होगा, लेक़िन आज अनुराग को न जाने क्यों ममता फिसली हुई लग रही थी।

          किशोरावस्था मानव जीवन की वह अवस्था होती है जब मन कच्ची माटी सा होता है। इस माटी पर जिसका जैसा चित्र अंकित हो जाता है, वह जीवन भर नहीं मिटता। अनुराग को यह तो क़त्तई याद नहीं कि उसकी आँखें शीतला माँ की गोद में खुलीं या कहीं अन्य स्थान पर? लेक़िन उसे यह ज़रूर याद है कि जब अहम माँ का दूध पीता था तो कभी-कभी वह भी माँ का दूध पीने की ज़िद किया करता था। उस समय वह पाँच या छह वर्ष का रहा होगा।

      रामपुर की घनी बस्ती में शीतला का घर था। वह सहारनपुर से यहाँ आई थी। उसकी प्रथम सन्तान छठी वाले दिन ही नहलाये जाते ही अकड़ गई थी। नीली होती जाती देह वाले उस नवजात को बचाने के लिए डॉक्टर्स ने अनेक उपाय कर डाले, परन्तु सभी उपाय विफल हो गए। शीतला की छातियों से अजस्र  अमृतरस  बह रहा था लेकिन उसके दुख का पारावार न था। पूरा शरीर ज्वर और पीड़ा से ऐंठ रहा था। दूध निचोड़ने, तुलसी गमले में डालने का क्रम चल रहा था कि उसी समय शीतला की बचपन की सहेली रसना की माँ कीर्ति(जिसे शीतला मौसी कहती थीं) आ गईं। उनकी गोद मे दो या तीन दिन का बच्चा था। आते ही उन्होंने उसे शीतला की गोद में डाल दिया 'लो!इसे पिलाओ दूध! अब से, आज से यह तुम्हारा हुआ। इसको जन्म देते ही तुम्हारी सहेली; मेरी बेटी रसना ईश्वर को प्यारी हो गई। उसकी अन्तिम इच्छा थी कि इसे तुम दूध पिलाकर पाल लोगी। हालाँकि तुम्हारे बच्चे के न रहने के बारे में उसे पता न था, परन्तु तुम्हारे पुत्र जन्म की ख़ुश खबरी उसे मिल गई थी। वह बहुत ख़ुश थी भी। लेकिन विधाता को जो मंज़ूर था वो हुआ। देखो तो तुम्हारी छाती से लगकर कैसे आराम से सो गया है। ठीक भी है न 'माई मरे न मौसी जिये।‘ यह बच्चा तुम्हारी पहली संतान कहलायेगा। कहते-कहते मौसी का गला भर्रा गया था। वह कहती रहीं और शीतल ने बच्चे को कसकर छाती से चिपका लिया।

         कीर्ति और शीतला की माँ दोनों पक्की सहेलियाँ थीं। शीतला अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान, जो धनाढ्य एवं प्रतिष्ठित परिवार से थी, जबकि कीर्ति साधारण परिवार से थी। उसकी तीन सन्तान दो बेटी व एक बेटा था। सामाजिक स्तर भिन्न होने पर भी दोनों परिवारों में घनिष्ठ मित्रता थी। कीर्ति की पहली सन्तान रसिका फ़िर रंजन बेटा पुनः बेटी रसना थी। रसिका का विवाह रत्नेश से हुआ था। वे दोनों शहरी क्षेत्र में रहते थे। दोनों ही नौकरी पेशा थे। रसना पढ़ाई में तेज थी। लेक़िन क़स्बे में पढ़ाई की बहुत अच्छी व्यवस्था न थी। अतः रसना अपनी बड़ी बहन के घर चली गई थी। रत्नेश सुबह 9 बजे जाते थे और रसिका भी 10 बजते-बजते स्कूल चली जाती थी। रसना स्कूल से 3 बजे तक लौट आती थी। दो घण्टे उसे अकेले रहना पड़ता था। कहानी की नींव शायद वहीं से पड़ी।

            रसना के वहाँ रहने से रत्नेश व रसिका को भी सहायता मिल जाती थी।थकी-हारी रसिका को गृह कार्य में भी सहायता मिल जाती थी।रसिका कॉलेज में लिपिक पद पर थी।कभी कभार उसे देर भी हो जाती थी।लेकिन पड़ोस के लोग भी अच्छे थे।इसलिये रसिका रत्नेश एकदम निश्चिन्त थे।

        रसना को आये हुये 2-3 वर्ष हो गये थे। अब वह कक्षा 9 की छात्रा थी। रूप-सौंदर्य सिर चढ़कर बोलने की तैयारी में था। गली मोहल्ले के लोगों में उसको देखने की ललक बढ़ गई थी। यह और  बात है कि रसना इन सबसे अनभिज्ञ थी। इस बीच उसकी माँ आती थीं। उन्होंने बताया था कि शीतला का विवाह होने वाला है।

रसिका और शीतला पक्की सहेलियाँ थीं। अब शीतला की शादी होने जा रही थी। अभिजात्य परिवार में बेटी 25-26 वर्ष की हो जाने पर भी ब्याही जाती थीं और यह बुरा भी नहीं माना जाता था। जबकि मध्यम वर्ग में 15-16 में ही बेटियों की शादी कर दी जाती थी। शीतला के विवाह में सम्मिलित होने के लिए रसिका अपने पति सहित गई थी। रसना की परीक्षा के कारण उसे अकेले छोड़ना पड़ा। और यही उसके जीवन हेतु दंश बन गया।

        उस दिन रसना स्कूल से आकर घर में अपने बिस्तर पर लेटी थी। पड़ोसी गुड्डू जिसे वह भैया कहती थी, बर्फ़ माँगने आ गया। रसना जैसे ही दरवाज़ा खोलकर बर्फ़ फ्रिज से निकालने रसोई में गई, तभी गुड्डू ने दरवाज़ा बन्द कर रसना को पीछे से दबोच लिया। कमज़ोर रसना ने हाथ पैर तो मारे, लेक़िन स्वयं को बचा न सकी। ऊपर से भयभीत करने के लिये उसे पूरे परिवार को मार देने की बात भी कही। रात तक वह सो न सकी। पूरी रात रोते हुए बीती। अगला दिन और भी भयानक था। आज भी बर्फ़ माँगने के बहाने दरवाज़ा खुलवाया और गुड्डू के साथ हाशिम जिसे वह चाचा कहती थी, आ गया। रसिका भयभीत हिरणी सी अर्ध मूर्छित सी हो गई। लेकिन उन नरपिशाचों ने मनमानी कर ही डाली। अगले दिन वह घर से बाहर ही नहीं निकली। भयभीत रसना मुँह सिल कर रह गई। उन दुष्टों ने बहन बहनोई ही नहीं, पूरे परिवार को ख़त्म कर देने की धमकी जो दी थी, 'अगर कभी कहीं किसी से कुछ भी कहा, तो खानदान भर में कोई नाम लेवा न बचेगा। हम लोगों को जेल-वेल से डर नहीं लगता। 'भयाक्रांता रसना पेड़ पर चढ़ी लता होकर भी पीली पड़ने लगी थी।

हार कर रसिका ने माँ को आने को कहा। कीर्ति जब घर आई तो रसना को देखकर

चिन्ता में पड़ गई। रसिका ने बताया, 'माँ! यह खाना ठीक से नहीं खाती। इसे हल्का ज्वर भी हो जाता है। हो सके तो ठीक से इलाज़ कराइये। 'कीर्ति ने एकान्त पाते ही रसना से जब पूछना प्रारम्भ किया,तो वह मन की बात छिपा न सकी। सहानुभूति और प्रेम की आँच दुखों की जमी बर्फ़ को पिघला ही देती है। अवयस्क बेटी के गर्भ वती होने की बात कीर्ति ने ताड़ लिया था। भयभीत बेटी की पीड़ा को माँ भी न समझ सके तो प्रभु का कोप ही मानो। अगली ही सुबह गुड्डू औऱ हाशिम को देख,समझ वह अपनी विवशता पर मन ही मन रो पड़ी। वह उन दरिन्दों से पार पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। फिर सबसे पहले बच्ची की जान बचानी थी और गर्भ की भी चिन्ता थी।

         अगले ही दिन वह बेटी को ले आई। डॉक्टर से जाँच कराने पर पता चला कि गर्भ  5 माह का है।  इसलिए गर्भपात सम्भव नहीं। कीर्ति ने अत्यल्प समय में ही निर्णय ले लिया और इलाज़ के लिए अपनी नेपाल में रहने वाली अंतरंग सखी इंदु, जो अविवाहिता प्रौढ़ा थीं, के पास चली गई।

वहाँ कीर्ति ने इंदु को सब कुछ स्पष्ट बता दिया और सहायता की बात की। इंदु ने स्वयं एक लेडी डॉक्टर से गर्भपात करने के लिए अनुनय-विनय की। किन्तु इसे असम्भव बताने पर उसकी सेवा, खानपान पर ज़ोर दिया। इधर कुछ दिन रुक कर कीर्ति अपने घर वापस लौट आई। परिवार में गम्भीर बीमारी के इलाज़ की बात बताई।

        यहाँ आकर कीर्ति ने गुड्डू व हाशिम के बारे में जानकारी की। वे अपराधी प्रवृत्ति के धनाढ्य लुहार थे। एक छोटे कारखाने में उनका दिन रात काम होता दिखता था। शरीर से भी वे दोनों ही हट्टे कट्टे नौजवान थे। कुल मिलाकर उसे यह अंदाज़ हो गया कि वह इन लोगों से भिड़ने में असमर्थ है। थाना पुलिस का हाल किसी से छिपा नहीं। वह मन मसोस कर रह गई। लेकिन उसे भगवान पर अटूट विश्वास था और मुसीबतों से जूझने का हौसला भी

यहाँ इंदु के घर रहकर रसना का स्वास्थ्य ठीक होने लगा। इंदु सदा ही उसे प्रसन्न रहने को कहती। ख़ुद भी उसे हँसाने का प्रयास करती रहती थी। किन्तु जिसका मन ही स्वस्थ न हो उसका तन कहाँ तक स्वस्थ रहेगा?

          दसवें महीने के पहले सप्ताह में उसने पुत्र को जन्म दिया। इधर शीतला ने भी सातवें महीने में ही एक कन्या को जन्म दिया। कन्या बेहद कमज़ोर थी। चार ही दिन बीते थे कि बच्ची को बचाया नहीं जा सका और उसकी मृत्यु हो गई।

शीतला की छातियों में दूध उतर आया था। उसे ज्वर भी हो गया। दूध को निचोड़ कर निकालने उसे गमले में डालने की प्रक्रिया चल ही रही थी, कि तभी यह घटना घटी।

         कीर्ति 4 दिन के बच्चे को लेकर आई औऱ उसे शीतला की गोद में डाल दिया, 'लो बिटिया औऱ पिलाओ दूध।  आज से यही तुम्हारा बेटा है।इसे जन्म देते ही इसकी माँ को ईश्वर ने अपने पास बुला लिया। इसे तुम्हारी गोद मिल गई। अब यह पल जाएगा। तुम भी ख़ुश रहो और यह भी नया जीवन पाये। 'शीतला हिचकिचाहट भरी आवाज़ में बोली, 'मौसी यह किसका बच्चा है? कहीं कोई लेने आया तो?' 'कोई नहीं आएगा। मेरा विश्वास नहीं है क्या? बताऊँगी फिर कभी'और कह कर वह चली गई।

शीतला ने उसे प्रभु का दिया प्रसाद मान कर सिर माथे लगा लिया। कीर्ति ने एक दिन बाद आकर शीतला के कान में फुसफुसाते हुए बता दिया कि यह तुम्हारी ही सखी रसना का बेटा है और वह इसे जन्म देकर प्रभु को प्यारी हो गई। जाते-जाते उसने इस बात को अन्य किसी को भी बताने को मना करते हुए क़सम दे दी थी। क्योंकि इससे उसकी बेटी की तो बदनामी होती ही, उसे भी बच्चे से उतना लगाव शायद न रह जाता। शीतला के पति व परिवार ने उसे हृदय से अपना लिया। शीतला जानती थी कि यदि यह बात खुल गई तो कीर्ति का भी परिवार बिखर जाता। उसकी सहेली इंदु ने उसे  अपना लिया था। यहाँ कीर्ति ने रसना की मृत्यु हो जाने की बात बताई थी। शीतला ने तो रसना का चित्र ही मन से मिटा दिया था। अब यह अनुराग उसका बड़ा बेटा था। अहम और अस्मिता छोटे भाई बहन। आज अनुराग ने जो बात सुनी थी औऱ जिसे सुनकर वह परेशान था, वह बस यही थी कि वह शीतला का बेटा नहीं है। किशोर मन को मथने के लिए यह बहुत था।

 उसे नहीं मालूम था कि माँ कैसी होती है। उसने तो शीतला को ही माँ के रूप में देखा, जाना, पहचाना था। उनका वात्सल्य रस ही तो उसकी धमनियों में रक्त बन कर बह रहा था। अहम और अस्मिता भले ही आज सगे नहीं हैं लेकिन सगे से कम भी तो नहीं लगे। फिर उसका मन इतना बेचैन क्यों है?

वह कहाँ जाये, क्या करे,किससे पूछे? बेचैनी बढ़ती जा रही थी। सारा संसार आज उसे पराया लग रहा था। इतने पर भी उसके धैर्य ने साथ न छोड़ा। उसे ईश्वर पर विश्वास था और प्रतीक्षा थी उनके  दिए निर्णय की। 3/4 वर्ष बीत गए, न तो शीतला माँ के प्रेम में शंका हुई और न ही उसकी कहीं उपेक्षा होती दिखी। अब वह 17/18 वर्ष का सुशोभन युवक दिखता था। मन में फाँस अभी भी थी। समय की प्रतीक्षा थी।

        आज वह समय भी आ गया। घर  में नानी(कीर्ति)आई हुई थीं। शीतला लम्बे समय से अस्वस्थ थी। शीतला मौसी से पूछ रही थी, 'मेरे घर में सब कैसे हैं?' बात काटते हुये कीर्ति ने कहा, 'पहले ख़ुद को देखो। तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। इंदु तुम्हें इलाज़ के लिए पालपा बुला रही है। इलाज़ भी होगा, थोड़ा मन भी बदलेगा, तो शीघ्र स्वस्थ हो जाओगी। 'घूमने जाने की बात सुनकर अनुराग नानी (जिसे वह मौसी और नानी का सम्मिलित रूप मौनी कहता था) के चरण स्पर्श कर कब उठा,' मौनी माँ की सेवा के लिए मुझे तो जाना ही पड़ेगा। घूमने के नाम पर अहम और अस्मिता भी, 'हम भी चलेंगे,हम भी चलेंगे' चिल्लाते हुए आ गए।

     'क्या मौसी आपने भी झूठ-मूठ की आग लगा दी। अब ये सब मेरी जान ही खा जायेंगे।' और बहला फुसला कर बच्चों को बाहर भेज दिया। 'अब बताओ मौसी! आप अचानक यूँ ही तो नहीं आई होंगी। कुछ न कुछ....मौसी ने शीतला के होठों पर उँगली रख दी, 'क्यों बेटी! मौसी बिना कारण नहीं आ सकती?’ 'नहीं नहीं मौसी ऐसी बात नहीं है। ठीक है आप बैठो, मैं चाय लेकर आई।‘ मौसी ने मना कर दिया, 'बेटी के घर क्यों खाऊँ? पाप चढ़ता है।‘ 'क्या मौसी आप भी। ख़ैर, पालपा जाने की बात......शीतला के कानों में फुसफुसाने लगी थीं मौसी, 'दीवारों के भी कान होते हैं। मैं तो बस यूँ ही घूमने जाने की बात कर रही थी। 'बात आई गई हो गई।

         आज उसने जो कुछ देखा, सुना वह क्या था? अब वह काफ़ी हद तक समझदार हो गया था। अब कैशोर्य विदा हो रहा था। युवावस्था हौले-हौले तन-मन पर हावी हो रही थी।

इस मध्य उसने इतना तो समझ लिया था कि उसकी माँ जीवित तो है। उसके साथ कुछ अनहोनी हुई है। लेकिन क्या, कहाँ? ये सारे यक्षप्रश्न उसे दंश मारते रहते थे।

        शीतला को राजयक्षमा रोग हो गया था। वह अपने बच्चों को भी अपने पास नहीं आने देती थी। लेकिन अनुराग नहीं मानता था। क्योंकि उसके लिये तो सारे संसार में एकमेव शीतला माँ हो थी, जो अपनी थी। यद्यपि आज यह रोग लाइलाज नहीं रह गया है, तथापि रोगी भयवश स्वयं को अपनों से दूर ही रखता है। यह भावना जो रोगी को अपनों से दूर  रहने की  बात मन में लाती है वही रोगी को तोड़ भी डालती है। लेकिन अनुराग....वह तो प्राणपण से सेवा में लगा रहता था। और तभी,

               'यह क्या? इतनी बीमार हो और मुझे ख़बर तक नहीं? मैं मर तो नहीं गई थी न!' मौसी के किंचित क्रोध मिश्रित वाक्य सुनकर भी....'दूर,दूर...दूर रहिए मौसी!' हाथ से दूर रहने को कहती शीतला की क्षीण आवाज़ मौसी को रोक न सकी। पास जाकर उसके सिर पर हाथ फिरती मौसी कह रही थीं, 'बेटा अनुराग! 2-4 जोड़ी कपड़े रख लो। हम शीतला के इलाज़ के लिए बाहर जाएंगे।' और वह माँ और मौसी  को लेकर पालपा जा पहुँचा।

       पर्वतीय क्षेत्र की शीतल शुद्ध हवा, उचित खान-पान, देख-रेख व दवाओं ने जादू का सा असर किया। शीतला दिन प्रतिदिन स्वस्थ होती गयी। उस दिन,

    तीनों महिलाएँ आपस में धीमे स्वरों में बात कर रही थीं। अनुराग सबके लिए चाय लाने बाहर गया था। जब वह लौट रहा था, तब उसने सुना, 'हाँ रसना! यही तुम्हारा शीतला को दिया गया प्रसाद है।' कान में पड़ते ही कुछ तो समझ गया अनुराग और शेष समझने की योजना बनाने लगा। चाय के ग्लास वापस कर जब वह लौटा तो, 'मौनी! मुझे आपने इनका प्रसाद क्यों कहा?' कीर्ति अवाक रह गई। हकलाते हुए, 'कौन, कहाँ, किसका, कैसा प्रसाद? शीतला ने तो.....’ 'नहीं मौनी! मैंने सुना भी और समझा भी। आप बता दें तो ठीक; अन्यथा मैं उनसे ही पूछ लूँगा कि मेरा उनका क्या सम्बन्ध है?' अनुराग की दृढ़ता कीर्ति को विचलित कर गई। 'देखो बेटा! तुम अपने काम से कम रखो। व्यर्थ की बातों में सिर न खपाओ।' हालाँकि बोलते हुए हाँफ रही थीं। उनकी देह का कम्पन उनके झूठ को उगले दे रहा था। औऱ तब,

 

      कीर्ति ने संयमपूर्वक पूरी घटना अनुराग को बता दी और प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगीं। अनुराग मौसी से कह रहा था,  'आपने उन दुष्कर्मियों को  छोड़ दिया, माँ को जीते जी मार दिया; पर मैं....मैं उन्हें सज़ा अवश्य दिलवाऊँगा। बस माँ को स्वस्थ होकर घर पहुँचने की देर है बस.....', 'न बेटा अब अपनी ज़िंदगी हलकान मत करो। सज़ा तो सुबूतों और गवाहों पर टिकी होती है। आज 17/18 वर्ष बाद कहाँ मिलेंगे सुबूत और गवाह? कैसे मिलेगा न्याय? छोड़ो,जाने दो बेटा!' कीर्ति की बात को दृढ़ता से काटते हुए, 'अगर भगवान की लाठी बेआवाज़ होती है तो उसका प्रसाद अनचाहे ही सही जीवन में मिठास घोल सकता है। आख़िर क्या दोष था इनका? उसकी अँगुली रसना की ओर थी। औरत होना ही क्या कुसूर बन गया? बस अब और नहीं। आप आशीर्वाद दें; मैं दुष्टों को पाताल से भी खोज लाऊँगा।' माथे पर हाथ मारकर वह कह उठा, 'यदि न कर पाया तो मेरा जीवन ही धिक्कार है।' कहते-कहते उसके नथुने फड़कने लगे, शरीर काँपने लगा था।

       शीतला अब स्वस्थ हो रही थी। अहम और अस्मिता को गले लगाकर वह रो पड़ी थी। अनुराग पर तो वह आशीषों की वर्षा करते नहीं थकती थी। अब निश्चिन्त होकर अनुराग अपराधियों की खोज में लग गया।

     कीर्ति की सहायता से उसने गुड्डू और हाशिम को शीघ्र ही ढूँढ़ निकाला। फ़िलहाल पता लगा कि गुड्डू की दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है और हाशिम भी एक घटना में अपना एक हाथ गँवा चुके हैं।अनुराग ने जब  18 वर्ष पूर्व की घटना का वर्णन किया तो वह अचम्भे में पड़ गया। उसने सिरे से इसे नकार दिया। लेकिन अनुराग की दृढ़ता और समझदारी ने उसे सच उगलने को मज़बूर कर दिया। इस पर जब उसे गुनहगार कहा तो दहाड़ कर, 'हाँ किया तो, क्या कर लोगे मेरा?' इस पर  अनुराग ने उसे थप्पड़ मारकर उसकी दाढ़ी नोच ली। कब्रिस्तान का भी पता लगा लिया और फ़िर शुरू उसकी अपने अस्तित्व की लड़ाई।

उसने सीधे मुख्यमंत्री पोर्टल पर जाकर प्रार्थना पत्र देकर न्याय की माँग रखी। सरकारी वक़ील ने डी एन ए टेस्ट रिपोर्ट पर हाशिम को उसका जैविक पिता सिद्ध कर दिया और इस पर मिला उसे मृत्युदंड। जज ने  फ़ैसला सुनाते वक़्त अनुराग से पूछा, 'बताओ इसे क्या दंड दिया जाय?' अनुराग ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया, इसने एक नहीं दो ज़िन्दगी ख़त्म की हैं आदरणीय! मृत्युदंड भी....', 'ठीक है अनुराग यह न्याय का मंदिर है। इसे मृत्युदंड मिलेगा ही और क्या चाहते हो?' 'और....और मुझे इच्छामृत्यु का प्रसाद दें श्रीमान!' जज स्तब्ध थे।, 'ऐसा क्यों?’ ‘जी! सन्तान यदि अपनी इच्छा से जन्म नहीं ले सकती तो मृत्यु ही सही।'

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2 Total Review
D

Divakar pandey

22 March 2025

बढ़िया कहानी है

रेखा श्रीवास्तव

19 March 2025

मर्मस्पर्शी कहानी। सबसे सराहनीय अनुराग का अंतिम कथन - "जी अगर संतान अपनी इच्छा से जन्म नहीं ले सकती तो मृत्यु ही सही।"

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रचनाकार परिचय

सुषमा त्रिपाठी

ईमेल : keshu180806@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

नाम- डॉ० सुषमा त्रिपाठी
जन्मतिथि- 20दिसंबर, 1951
जन्मस्थान- झाँसी, उत्तर प्रदेश
लेखन विधा- कविता, कहानी, लघुकथा, समीक्षा, बालगीत आदि।
शिक्षा- एम.ए., बी.एड.पीएचडी, साहित्यरत्न।
सम्प्रति- कहानी, कविता, समीक्षा लिख रही हूँ।
प्रकाशन- 4 कहानी संग्रह,1गीत-संग्रह,5 समवेत काव्य संकलन।
पता- ' मणि-दीप', 116/52, राणा प्रताप नगर, कानपुर।
मोबाइल- 8840734185