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बचपन की चोरी- अंजू केशव

बचपन की चोरी- अंजू केशव

गर्मियों में जब पूरा परिवार दोपहर की नींद का मजा ले रहा होता तो माँ के बनाए हुए अचार चुरा कर खाना प्रिय शगल था। क्या आनंद था उसमें आहाहा! भुलाए नहीं भूलता। एक बार तो इस चोरी के चक्कर में, नए बने अचार की पूरी की पूरी बरनी ही ऊँचाई से गिरा कर तोड़ दी और बरनी के साथ अचार का भी सत्यानाश कर दिया।

अब बचपन की चोरी को चोरी कहना भी कहाँ तक उचित है भई.... शरारत कहिए,, मुसीबत कहिए, गनीमत कहिए पर चोरी तो मत कहिए। अब कौन सा संविधान की मर्यादा भंग कर दी जो पेड़ से दो-एक अमरूद तोड़ लिए या पेड़ से गिरी हुई अमिया बटोर ली। रहे-रस्त कभी किसी के बगीचे के सुंदर फूल पे दिल मचल गया और सबकी नज़रें बचा, चाहरदीवारी कूद गए तो भई ऐसा कौन सा ट्रैफिक का नियम तोड़ दिया। है कि नहीं ....। 
 
याद नहीं कि बचपन में कभी किसी चीज की कमी हुई हो लेकिन पता नहीं क्या स्वाद था श्रीवास्तव जी के कैंपस के उन अमरूदों में जिन्हें हम, स्कूल जाते हुए तोड़ा करते। आधी बाउंड्री चढ़ जाते उसके लिए और आहट होते ही कूद कर भागते। न यूनीफॉर्म की चिंता न वक्त की हड़बड़ी... और अमरूद भी क्या थे? अभी-अभी पेड़ की शाखों पर अवतरित, कोपलों की गोद से सर निकाल दुनिया को झाँक लेने के उतावलेपन में मस्त, हवाओं की लय पर थिरकते , आँवले की साइज के अमरूद, जो सूरज की सुनहली किरणों के साथ चमक कर बिल्कुल कंचे की तरह दिखाई पड़ते और हम जबरदस्ती उन्हें पका हुआ घोषित कर तोड़ने पर आमादा हो जाते।इतना ही नहीं उनके कसैले स्वादों से रूह में जो मिठास फैलती, वो अद्वितीय होती। गर्मियों में जब पूरा परिवार दोपहर की नींद का मजा ले रहा होता तो माँ के बनाए हुए अचार चुरा कर खाना प्रिय शगल था। क्या आनंद था उसमें आहाहा! भुलाए नहीं भूलता। एक बार तो इस चोरी के चक्कर में, नए बने अचार की पूरी की पूरी बरनी ही ऊँचाई से गिरा कर तोड़ दी और बरनी के साथ अचार का भी सत्यानाश कर दिया। फिर तो जो क्लास लगी कि पूछें मत।नवरात्रों में तीन-साढ़े तीन बजे सुबह उठ कर सहेलियों के साथ सबके कैंपस से फूल इकट्ठा करने को अब चुराना थोड़ी न कहेंगे। मेहनत का काम था भई। कभी सुबह-सुबह लाख टके की नींद तोड़ कर उठे हों तो जानेंगे। ये अलग बात है कि पढ़ाई के नाम पर कभी पाँच बजे भी न जगे।
 
फूलों की चोरी की बात हो और सावन याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है? सावन का नाम लेते ही मेरे जहन पर अधखिले, अधखुले दिनों की छवि उभर आती है। आसमान पर काले बादलों की अंगड़ाई और बारिश की बूंँदों का सामूहिक पावस गीत, मन को आह्लादित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। भीगे-भीगे दिन और सनसनाती रातों की याद, या फिर मेघों को आमंत्रण देते मेंढकों का सस्वर स्वागत गान, क्या कुछ याद नहीं आता सावन के साथ और अगर दिन सोमवार हो फिर तो कहने ही क्या? सुबह मुँह अँधेरे ही उठ कर सहेलियों के साथ फूलों के लिए जंग शुरू हो जाती। हालाँकि मैं व्रत नहीं रखती थी लेकिन घर की पूजा-पाठ में सबसे सहयोगात्मक किरदार मेरा ही होता था। माँ एक धार्मिक स्वभाव की महिला थीं। बहुत सारे उपवास किया करती थीं और मेरा उन्हें भरपूर समर्थन मिलता था। रात को पूजा के बाद हमें फलाहार के प्रसाद मिला करते जो दिव्य स्वाद से परिपूर्ण होते। चाहे जितने भी फल या मिठाइयाँ खा लो लेकिन क्या मजाल कि वो फलाहार वाला स्वाद मिल जाए। जब थोड़ी बड़ी हुई तो क्लास की लडकियाँ, जो उपवास में होती थीं, उनका एक अलग ही रौब देखने को मिलता था और यही वो बात थी जिसनें मुझे भी उपवास के लिए प्रेरित किया। फिर क्या था? हो गया मेरे भी उपवास का किस्सा शुरू। माँ कहतीं कि आज स्कूल मत जाओ। बाकी कोई दिन हो तो माँ की आज्ञा सर आँखों पर लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था कि व्रत रखा हो और अपनें इस दिव्य-रूप-दर्शन से सखाओं को वंचित रखा जाए। स्कूल पहुंँच कर सबसे ज्यादा तवज्जो इसी बात पर होती कि मेरे व्रत की  मुख्य खबर जनता तक कैसे पहुँचाई जाए और उससे भी मुश्किल था सबको ये यक़ीन दिलाना कि हाँ! मैनें भी व्रत रखा है।कमज़ोरी, थकन, चक्कर आना... क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाए जाते लेकिन उपवास को प्रचारित किए बगैर चैन नहीं मिलता। खैर से स्कूल में उपवास का झंडा बखूबी फहराने के बाद घर वापसी होती तो वहाँ पूज्य पिताजी के साथ की जंग बाक़ी होती थी। क्योंकि उन्हें मेरा व्रत रखना पसंद नहीं था इसलिए वो गिन-गिन कर मेरी पसंद की डिशेज बनवाते और वैसे तो उनकी खाने में नुक्तचीनी की आदत बहुत ज़्यादा और ज़बरदस्त थी लेकिन उस दिन एक-एक चीज़ के जो क़सीदे काढ़े जाते कि बस पूछो मत। ऊँची आवाज़ में खानें की तारीफ़ होती ताकि बात मेरे कानों तक ज़रूर पहुंँचे और मेरे सब्र का बाँध टूट सके। होता भी वही था। भूख की ये जंग पिताजी जीत ही जाया करते थे। खाने और न खाने की जद्दोजहद में फँसा दो प्रहर का उपवास तीसरे प्रहर के अंत तक दम तोड़ देता और मैं अपने मनपसंद खानों पर टूट पड़ती और इस तरह सोमवार के व्रत का उपसंहार, सोमवार को ही पारण-भोजन के रुप में हो जाता था किंतु खुशी इस बात की होती थी कि तब तक स्कूल के सहपाठियों के सामनें तो सिक्का जम ही गया होता था।
 
*ये गायब दौर की बातें है, अक़्सर याद याती हैं...
कि फिर हम, हम न होते हैं जमाना और होता है। 
 
.........घर के पिछवाड़े आम का बड़ा सा बगीचा और कच्चे-पक्के आमों से लदी डालियाँ। गर्मियों में सोए हुए परिवार को चकमा देकर, दबे पाँव चिटकनी खोल  घर से बाहर निकल जाना और आम के पेड़ों पर उधम मचाना, बड़े कमाल का अनुभव हुआ करता था। ज़मीन के पास से निकली शाखों पे चढ़ना उतना मुश्किल भी नहीं था और उस पर चढ़ कर, डालियों पर चप्पलें टांँग कर आम तोड़ना और पाॅकेट में भर लेना... सही बता रहे हैं - एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने से कम रोमांचक नहीं था यह अनुभव। ऐसी ही किसी दुपहरी में एक दिन पेड़ से गिरे कैरियों का, नीचे अंबार लगा कर, उनकी ढुलाई के जुगाड़ की ही चिंता में थे कि दो महाशय आते दिख गए। जो जहाँ था सब छोड़ कर भागना पड़ा तभी याद आया कि श्रीयुत चप्पल देव लोग तो उपर ही टँगे रह गए और उनके शिकवे भरे जेस्चर को भाँपते ही खुद पर लानत भेजने का एहसास जगने लगा। देखा तो दोनों महाशय अभी काफ़ी दूर थे 'तब तक चप्पल लाई जा सकती है', ऐसा सोच गंतव्य की ओर दौड़ पड़े और पेड़ पर चढ़ कर चप्पल उतार ली लेकिन अनुमान गलत साबित हुआ और पकड़ लिए गए। अब क्या, डर से बुरी हालत थी और घर तक शिकायत जाने का अंदेशा अलग। पर जेंटलमेन की जोड़ी नें डरा-धमका कर छोड़ दिया। अब तुर्रा ये कि घर भागने की बजाए, इकट्ठे किए हुए कैरियों के ढेर की तरफ़ इशारा कर पूछा कि क्या इन्हें ले जा सकते हैं तब उन भाई साहब लोगों का ध्यान उधर गया और न चाहते हुए भी उनके ठहाके निकल गए। फिर भेद खुला कि ये लोग कोई बगीचे के मालिक-वालिक नहीं हैं बल्कि पास के हाॅस्टल के लड़के हैं जो डरी हुई बच्ची को देख उसके साथ मस्ती कर रहे हैं..... तो कुछ इस तरह गुजरे बचपन की बेतरतीबी के आगे आज अगर करीने से सजी-सँवरी जिंदगी भी बोझिल सी लगने लगती है तो यूँ ही तो नहीं........
 
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रचनाकार परिचय

अंजू केशव

ईमेल : keshawanju@gmail.com

निवास : जमशेदपुर (झारखंड)

जन्मतिथि- 24 अप्रैल
जन्मस्थान- पटना (बिहार)
शिक्षा- स्नातकोत्तर (हिंदी)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, कविता, कहानी, लघुकथा आदि
प्रकाशन- 'सन्नाटे में शोर बहुत है' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं साँझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान/पुरस्कार- सृजन साहित्य सम्मान, मैथिली शरण गुप्त सम्मान
पता- 40, पी०एस०, रो नं०- 3, संकोशाई, डिमना रोड, जमशेदपुर (झारखंड)- 831012
मोबाइल- 8210046398