Ira Web Patrika
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

अंजू केशव की कहानी '24 कैरेट'

अंजू केशव की कहानी '24 कैरेट'

"एक-एक पैसे की वैल्यू होती है हम मिडिल क्लास वालों के लिए और तुम....", बात अधूरी छोड़ कर चुप हो गया नीरज।
"मैं कुछ नहीं जानती। मुझे तो इस बार रोज़ चाहिए। मैं भी आज देखूँगी कि तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी क्या अहमियत है!" बात खत्म करते-करते नेहा नें नीरज को टिफिन पकड़ा दिया।

"सुनो आज तो मुझे रोज़ चाहिए ही चाहिए।" उखड़ गई नेहा और नीरज की शामत आ गई।
सोलह सालों में जिसने कभी ख़ुद से कोई तोहफ़ा न दिया, उसके लिए क्या रोज़ डे और क्या प्रपोज़ डे लेकिन इस बार तो मांँग कर लूँगी। यही सोचकर पीछे पड़ गई नीरज के।
"मेरे लिए क्या सौ-दो सौ रुपये फालतू के खर्च नहीं कर सकते, वह रुआँसी हो रही थी।
"एक-एक पैसे की वैल्यू होती है हम मिडिल क्लास वालों के लिए और तुम....", बात अधूरी छोड़कर चुप हो गया नीरज।
"मैं कुछ नहीं जानती। मुझे तो इस बार रोज़ चाहिए। मैं भी आज देखूँगी कि तुम्हारी ज़िंदगी में मेरी क्या अहमियत है!" बात खत्म करते-करते नेहा ने नीरज को टिफिन पकड़ा दिया।
"यार! इतना प्रेशर मत डाला करो मेरे ऊपर। मैं तो यूँ ही...." नीरज ने बाइक स्टार्ट करते हुए कुछ कहा तो नेहा ने बात बीच में काट दी और आवाज़ में ज़रा बल दे कर कहा, "रोऽऽज़"।

बात जहाँ हुई थी, वहीं खत्म हो गई और नेहा रोज़ के कामों में लग गई। बरसों से जानती है नीरज को। उसे इन बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। न उसकी कभी इगो हर्ट होती है, न कोई कांप्लेक्स जगता है। जानती है नेहा कि एक-एक रुपया दाँत से पकड़ने वाला नीरज एक रोज़ के लिए सैकड़ों रुपये कभी खर्च नहीं करेगा। हाँ, अगर खाने-पीने या दूसरी कोई मतलब की फ़रमाइश हो तो वो नहीं टालता। रोमांस की एक लकीर तक उसे कहीं से छू कर नहीं गई है। उसे स्वीट वाले डायलॉग्स भी नहीं आते और कभी ज़बान पर कोई बुरी बात भी नहीं आती। काम करती हुई नेहा लगातार नीरज के बारे में सोचे जा रही थी।

शादी की पहली रात पर रेड रोज़ दिया था नीरज ने। तब मालूम नहीं था कि ये पहला और आखिरी रोज़ होगा। खैर, नेहा का दिन भी रोज़मर्रा के काम निबटाने में गुज़र गया। दिनभर कुछ काम और कुछ बेकाम ख़यालों में डूबती-उतराती रही वो और अपनी ही कही बात भूल गई। शाम को नीरज वापस आया और नेहा के हैरत की हद न रही, जब उसने बैग से निकालकर एक ताज़ा-ताज़ा रोज़ उसकी तरफ़ बड़ी अदा से बढ़ाया। ये अलग बात थी कि रोज़ रेड नहीं था। सफ़ेद और गुलाबी रंग के धूप-छाही रंग का एक फ्रेश रोज़ था। नेहा और उसकी चौदह साल की बेटी दोनों की आँखें फटी रह गईं नीरज के हाथ में रोज़ देखकर।
नेहा को तो लगा जैसे हवाओं में उड़ रही है। काफी देर तक रोज़ को निहारती रही। इतने साल हो गए नीरज के साथ रहते। उसकी हर अच्छी-बुरी बातों को जानती है अब वो। अनगिनत खट्टे-मीठे लम्हे जिये हैं उसने नीरज के साथ लेकिन फिर भी उसकी किसी अदा पर भी ये कमबख्त दिल धड़कना नहीं भूलता। मन-ही-मन में मन को हौले से एक चपत लगाई उसने और रोज़ को बालों में लगाने का उपक्रम करने लगी लेकिन ये कोशिश भी रहने दी। बड़ी-सी डंडी बालों में अटक रही थी और वो अभी रोज़ को कोई नुकसान नहीं पहुँचाना चाहती थी इसलिए टेबल पर रखे गुलदान में क़रीने से रख दिया।

रात को खाना खाते वक्त बेटी ने पूछा, "सच बताना पापा, फूटपाथ से ख़रीदा न रोज़? शाॅप के रोज़ तो ऐसे नहीं होते। रैप किये होते हैं और स्टाइलिश लुक देते हैं।" बेटी का सवाल सुन नेहा ने भी झटके से नीरज की ओर देखा। दोनों की नज़रें मिली और नीरज मुस्कराने लगा।
"बोलिए ना पापा, रास्ते से खरीदा है न!" बेटी उतावली हो रही थी।
"नहीं, रास्ते का नहीं है।" नीरज ने ज़ोर देकर कहा।
"अच्छा तो कितने का है बताइए?" बेटी ने अगला सवाल दागा। पापा मम्मी के लिए रोज़ लाये, ये बात उसे गुदगुदा भी रही थी और कंफ्यूज़ भी कर रही थी।
"न फूटपाथ का है, न शाॅप का है बल्कि पसीना बहाकर लाया हूँ इसे।" नीरज नें अदाकारी करते हुए कहा।
"मतलब...?" माँ-बेटी दोनों के मुँह से एक साथ निकला। घूर कर देखा उन्होंने नीरज को। कुछ तो घपला है फीलींग मजबूत होने लगी।
"मतलब क्या! रोज़ सूंघो, रोज़ की गुठलियाँ मत गिनो।" नीरज ने मुँह में निवाला डालते हुए पीछा छुड़ाने वाले अंदाज़ में कहा।
"रोज़ की गुठलियाँ...! रोज़ के पेटल्स होते हैं पापा, गुठलियाँ नहीं। अब सीधा-सीधा बता दो, क्या घपला है।" बेटी के धमकाने पर नीरज ने आँखें चौड़ी करते हुए उसे घूरने की एक्टिंग की। नेहा बारी-बारी से बाप-बेटी का चेहरा देखे जा रही थी।
"खाना खाने देंगी मुझे देवियों आप लोग!" नीरज को अपनी पोल खुलती हुई दिख रही थी सो उसने भूमिका बनाने की गरज से कहा लेकिन दोनों माँ-बेटी को खाना छोड़कर अपनी ओर खोजी कुत्ते-सा ताकता पाया तो उसे हँसी आ गई। मौन रहते हुए भी अपनी भौंहे उचका कर नेहा ने जैसे अपना सवाल दुहराया तो नीरज ने हथियार डाल दिए।

"ऑफिस से निकलते समय बाहर क्यारी में दिखा ये।" नीरज ने कहा तो दोनों के हाथ खाते-खाते रुक गये और आँखें चौड़ी हो गयीं।
"ऐसे क्या देख रही हो तुम दोनों?" नीरज ने बारी-बारी से दोनों को देखते हुए कहा, "चारों ओर देखकर झाड़ियों में बैठ कर, उँगलियों में काँटे चुभवा कर, इज़्ज़त को ताक पर रखकर, कितनी सावधानी से सबकी नज़रें बचा कर तोड़ा मैंने इसे। बहाया पसीना कि नहीं, बोलो!" पूरा तीसमारखाँ बनते हुए नीरज ने एक्शन इमोशन और सस्पेंस से भरा-पूरा वाकया बताया।

नीरज की बात सुनकर नेहा ने अपना सिर पीट लिया और बेटी के मुँह से तो जो हँसी का फव्वारा छूटा कि मुँह का सारा निवाला टेबल पर बिखर गया।
किचन समेटती हुई नेहा की सोच फिर से रफ्तार पर थी। उत्तर और दक्षिण की तरह मिज़ाज हैं दोनों के फिर भी उनकी अंडरस्टेंडिंग की मिसाल दी जाती है। नहीं है उसका पति दूसरे पतियों जैसा। मजनुओं वाले चोंचले नहीं हैं उसके स्वभाव में। कभी-कभी नेहा को बहुत बुरा भी लगता है और दिल भी दुखता है उसका। वो कहते हैं न कि 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता' लेकिन उसके सम्मान के ख़िलाफ़ एक शब्द न तो कभी ख़ुद के मुँह से निकले, न किसी और के, इसका ख़याल बख़ूबी रखता है वह। ऐसा ही है उसका नीरज। सीधा, सच्चा। थोड़ा अनगढ़ है लेकिन एकदम खरा। बिना मिलावट का, 24 कैरेट।

2 Total Review
S

Seema Singh

20 February 2025

बहुत क्यूट सी कहानी है। यही विशेषता है हिन्दुस्तानी शादियों की धरती अम्बर का अंतर होते भी जोड़े निभा जाते हैं रिश्ता।

D

Divakar Pandey

18 February 2025

बढ़िया कहानी

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

अंजू केशव

ईमेल : keshawanju@gmail.com

निवास : जमशेदपुर (झारखंड)

जन्मतिथि- 24 अप्रैल
जन्मस्थान- पटना (बिहार)
शिक्षा- स्नातकोत्तर (हिंदी)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, कविता, कहानी, लघुकथा आदि
प्रकाशन- 'सन्नाटे में शोर बहुत है' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं साँझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान/पुरस्कार- सृजन साहित्य सम्मान, मैथिली शरण गुप्त सम्मान
पता- 40, पी०एस०, रो नं०- 3, संकोशाई, डिमना रोड, जमशेदपुर (झारखंड)- 831012
मोबाइल- 8210046398