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फेसबुक की बतकही: आखिर क्यों?- डॉ०मीनू अग्रवाल

फेसबुक की बतकही: आखिर क्यों?- डॉ०मीनू  अग्रवाल

एक लघु कथा पढ़ी ,जिसमें एक कुत्ता उस सुरक्षाकर्मी की टाँग दबोच कर रखता है जिसने कैंपस में रहने वाली बच्ची से अनैतिक हरकत करनी चाही ।
बहुत संदेशात्मक कहानी लगी और अन्य पाठकों की तरह मेरा मन भी उस जानवर के प्रति कृतज्ञ हो गया और इंसान के विरुद्ध हो गया।

एक लघु कथा पढ़ी ,जिसमें एक कुत्ता उस सुरक्षाकर्मी की टाँग दबोच कर रखता है जिसने कैंपस में रहने वाली बच्ची से अनैतिक हरकत करनी चाही।
बहुत संदेशात्मक कहानी लगी और अन्य पाठकों की तरह मेरा मन भी उस जानवर के प्रति कृतज्ञ हो गया और इंसान के विरुद्ध हो गया।
फिर एक लेख मिला जहाँ चीटियाँ एक दूसरे को मुँह से मुँह मिलाकर किसी खाद्य सामग्री की सूचना प्रसारित करती चलती हैं जिससे सबका यथासंभव भला हो।

सर्वे भवन्तु सुखिनाः
कितने प्रेरणास्पद दोनों आलेख!!
पर दिमाग तो दिमाग है न;
बागी विचारों को भी जन्म देता है!
तो विचार उठा कि इंसान ने ऐसा व्यवहार क्यों कर किया ??
आखिर क्यों??
और दूर कहीं से एक शब्द कौंधा--
प्रतिस्पर्धा..
तो क्या यह भाव जानवरों में नहीं ??
और किस प्रकार की और कैसी प्रतिस्पर्धा उस चौकीदार की उसे बच्ची से?
समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान के विद्यार्थियों को यह तो विदित है की जीवन एक संघर्ष है - भोजन, पानी, आश्रय और प्रजनन के लिए!
और इनके लिए जातिगत (जाति से तात्पर्य विज्ञान सम्मत जाति, राजनीति वाली नहीं) प्रतिस्पर्धा रहती है; जानवर की जानवर से ( इंसान भी, विज्ञानुसार जानवर की श्रेणी में आता है)!
सिर्फ जानवर ,जीव जंतुओं में ही नहीं; वनस्पति में भी एक सीमा तक प्रतिस्पर्धा जीवन यापन में सहायक है पर भय अथवा ईर्ष्या के शामिल हो जाने पर आक्रामक हो जाती है।
पशुओं में इसके अनेक उदाहरण है-
मीरकट, एक नेवला प्रजाति ह ; इसमें एक माँ दूसरी मादाओं के अंडों को नष्ट कर देती है इस आशा से कि उसके बच्चों के प्रतिद्वंद्वी कम हो जाएँगे।
नर चिंपांजी के समूह, दूसरे क्षेत्र के अकेले विचरण करते नर को मारने की घात लगाए बैठते हैं, अपनी सीमा के बॉर्डर पर !!
बिल्लियों को अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए लड़ लड़कर लहूलुहान होते किसने नहीं देखा !!
चीटियों में भी आक्रामक प्रजातियाँ देखी गई हैं जो अन्य चीटियों का सामूहिक संहार करती हैं !
यही भाव मानव जाति में है !
किसी असमानता वश उपजी ईर्ष्या, आक्रोश के तहत दूसरे को नुकसान पहुँचाने को तत्पर हो जाती है (जो भाव शायद सामाजिक असमानता को लेकर उस चौकीदार के मन में उपजा हो और उसने बालिका को क्षति पहुँचानी चाही )।
इसके अलावा अपनी असीमित इच्छाओं की पूर्ति और संतुष्टि के लिए उत्पन्न अवचेतन द्वंद प्रतिस्पर्धा को जन्म देकर प्रतिद्वंदी पैदा कर देता है।
अब सवाल यह है कि
स्वयं को ईश्वर/प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना कहने वाले मानव को क्या उचित है ऐसा व्यवहार ??
क्यों न प्रतिस्पर्धा को स्पर्धा में तब्दील करें !!
स्पर्धा !!
जो अपनी योग्यता बढ़ाने का संकल्प है;
जो स्वयं की उन्नति की प्रेरक है ;
स्वयं के व्यक्तित्व को ऊँचा और गहरा बनाने की प्रक्रिया है किसी दूसरे को गिराये या छोटा दिखाएं बिना ;
जो मानसिक संतोष की जननी है;
जो अहंकार नहीं ,
अपितु,
हमारा स्वाभिमान है !!!!

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रचनाकार परिचय

मीनू अग्रवाल

ईमेल : meenu_ag1000@yahoo.co.in

निवास : दुबई (यू. ए. ई.)

नाम- डॉ० मीनू अग्रवाल 
जन्मतिथि- 1961 
जन्मस्थान- मुंबई(महाराष्ट्र)
शिक्षा- एम. बी. बी. एस., एम. डी.(बाल रोग विक्षेसाहगी)
लेखन विधा- आलेख, बाल साहित्य, कविता 
संप्रति- चिकित्सक (बाल रोग विशेषज्ञ)
प्रकाशन- विभिन्न साझा संकलनों एवं पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित 
पता- दुबई (यू.ए.ई.)
मोबाईल- +97 1508549410