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आलोचना के सिरमौर नामवर सिंह जी से एक मुलाक़ात- डॉ० कविता विकास

आलोचना  के सिरमौर नामवर सिंह जी से एक मुलाक़ात- डॉ० कविता विकास


नामवर  सिंह जी ने आलोचना के पहलुओं पर अपने जो विचार दिए और कुछ बिंदुओं पर बात-चीत की शैली में हमारे भी विचार जाने। यह मुलाक़ात और उनके दिशानिर्देश हिंदी के शिक्षकों के लिए मील का पत्थर साबित हुए। वे यादें इसलिए भी अमर हो जाती हैं जिनमे व्यक्ति विशेष से कुछ सीखने को मिला हो और उन पर ध्यानपूर्वक अमल किया गया हो। हमारे आदर्श रहे हिंदी साहित्य के लोकप्रिय आलोचक-साहित्यकार को आज भी याद करके सर श्रद्धा से झुक जाता है।

यादों की सीपियों में से कुछ संस्मरण के मोती इतने अज़ीज़ होते हैं कि चाह कर भी हम उन्हें अपने से जुदा नहीं कर पाते हैं। ऐसे संस्मरण जीवन से जुड़े होते हैं। इतने प्रेरक कि कोई भी सीख ले ले, इतने जीवंत कि लगता है यह उनकी ही कहानी है। इसलिए तो समय के साथ धुँधली होती अनेक यादों में भी वे अपनी चमक,अपनी स्पष्ट छवि बनाए रहते हैं। अपने संस्थान में संस्कृति व कला विभाग की प्रमुख होने के कारण समय-समय पर अनेक कार्यक्रम करवाने पड़ते थे  मसलन, वाद- विवाद, परिचर्चा, लोक नृत्य, पेंटिंग आदि। विशेष दक्षता हासिल करवाने के लिए विद्यार्थियों को इनके एक्स्पर्ट जो शहर में हों या बाहर, उन्हें बुलवाना भी पड़ता था। अध्यापन कार्य से इतर ऐसे अवसर सबके किए आकर्षण के केंद्र होते थे जिनमे बड़ी संख्या में शिक्षक और विद्यार्थी उपस्थित रहते थे। शिक्षा से जुड़े ऐसे ही एक कार्यक्रम में कमिटी मेम्बर्ज़ ने एक बार हिंदी साहित्य के नामचीन आलोचक नामवर सिंह जी को आमंत्रित करने का फ़ैसला किया। हिंदी विभाग में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी क्योंकि एक बार पहले भी उनके आने का कार्यक्रम बना था लेकिन अचानक कुछ व्यस्तता के कारण नामवर सिंह जी नहीं आ पाए थे।

उस विशेष दिन का इंतज़ार आख़िर ख़त्म हुआ। सेमिनार हॉल की साज-सज्जा देखते ही बनती थी। संचालन की ज़िम्मेवारी मेरी थी। मैंने बड़े - बड़े लोकप्रिय व विशेष अतिथियों के आने पर संचालन किया है, कोई डर या झिझक नहीं हुई कभी। लेकिन, उस दिन जाने क्यों अंदर से डर लग रहा था। कहीं कोई अटपटा सवाल न पूछ दूँ! प्राचार्य महोदय ने इस झिझक को समझते हुए कहा कि डरने की ज़रूरत नहीं है। बहुत नेक इंसान हैं वो,उनके कॉलेज के दिनों की पहचान है। मैंने अपने एक सहकर्मी पर यह ज़िम्मेदारी सौंपने के लिए सर को अनुरोध भी किया लेकिन उन्होंने यह अनुरोध नहीं स्वीकार किया। अंततः मैंने मन बना लिया कि अब मुझे मुस्तैदी से यह काम करना है। नामवर सिंह जी को हमने हिंदी के मुर्धन्य आलोचक, सम्पादक,वक़्ता और विद्वान के रूप में जाना है। वे शीर्षस्थ शोधकार, समालोचक,निबंधकार, उपन्यास लेखक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्य थे। ठीक ११ बजे नामवर सिंह जी ने अपने दो शिष्यों के साथ विद्यालय परिसर में प्रवेश किया। परम्परा के अनुसार बैंड पार्टी ने बैंड की धुन और अन्य विद्यार्थियों ने गुलाब की पंखुड़ियों की उनपर वर्षा करते हुए स्वागत किया, तत्पश्चात उन्हें सेमिनार हॉल में लाया गया। स्वागत के प्रोटोकॉल पूरे किए जा रहे थे। मैं आदतन कुछ उनकी पंक्तियाँ तो कुछ अन्य कवियों की या फिर स्वयं अपनी लिखी कविताओं को उद्धृत करते हुए पूरे आत्मविश्वास से संचालन में लगी हुई थी। पुष्प गुच्छ भेंट और प्राचार्य के स्वागत भाषण के बाद नामवर सिंह जी के बोलने की बारी थी। नामवर सर ने अपनी कृतियों पर कहा, आलोचना की बारीकियाँ विद्यार्थियों को समझायी और हिंदी साहित्य में आधुनिक प्रवृत्तियों पर चर्चा की। मैंने दर्शकों को उनके बारे में बतलाते हुए कहा, ''आधुनिक कविता की व्यावहारिक आलोचना की लोकप्रिय किताब, 'कविता के नए प्रतिमान' लिखने वाले नामवर अनेक दशकों तक ख़ुद हिंदी साहित्य के प्रतिमान बने रहे हैं। 'आलोचना' में सम्पादकीय लिखने के अलावा लम्बे समय तक अगर उन्होंने कुछ नहीं भी लिखा तो भी अपने कुशल वाचन और व्याख्यान के कारण प्रासंगिक बने रहे।

        मेरी इन बातों को वह बहुत ध्यान से सुन रहे थे और बीच-बीच में उनकी भाव-भंगिमा को देख कर लग रहा था कि उन्हें मेरा संचालन भा रहा था। लग रहा था प्राचार्य महोदय उन्हें मेरे बारे में कुछ बता भी रहे थे। जब मैंने कहा कि हिंदी साहित्य को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अनेक स्थानीय अकादमियों की स्थापना की है जो उनके नेतृत्व में फल-फूल रही हैं तो अचानक अपने स्थान से ही वह बोल पड़े, ''और आपको (यानि मुझे) भी बहुत जल्द किसी न किसी अकादमी से जोड़ा जाएगा। आपके प्राचार्य ने बतलाया है कि आप विद्यार्थियों की प्रिय शिक्षिका हैं और एक दक्ष लेखिका हैं। आज 'हिंदुस्तान' में आपका स्तम्भ भी आया है, ऐसा मुझे बताया गया।'' नामवर सिंह जी के ये वाक्य आज तक नहीं भूली हूँ। एक महान लेखक के मुँह से मुझ अदना के लिए प्रशंसा के दो शब्द कितने प्रभावशाली रहे, यह मैं ही जानती हूँ। किसी और के लिए यह संस्मरण भले ही अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने जैसे हों लेकिन उनके द्वारा दिल्ली में स्थापित नारायणी साहित्य अकादमी के झारखण्ड शाखा की प्रांतीय अध्यक्ष के रूप में मैंने एक लम्बा समय बिताया। इस दौरान नवोदित कवियों को प्रोत्साहित करना, गोष्ठी-सम्मेलन, चर्चा-परिचर्चा आदि करवाना मुख्यतः शामिल रहे हैं।

नामवर  सिंह जी ने आलोचना के पहलुओं पर अपने जो विचार दिए और कुछ बिंदुओं पर बात-चीत की शैली में हमारे भी विचार जाने। यह मुलाक़ात और उनके दिशानिर्देश हिंदी के शिक्षकों के लिए मील का पत्थर साबित हुए। वे यादें इसलिए भी अमर हो जाती हैं जिनमे व्यक्ति विशेष से कुछ सीखने को मिला हो और उन पर ध्यानपूर्वक अमल किया गया हो। हमारे आदर्श रहे हिंदी साहित्य के लोकप्रिय आलोचक-साहित्यकार को आज भी याद करके सर श्रद्धा से झुक जाता है।

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रचनाकार परिचय

कविता विकास

ईमेल : kavitavikas28@gmail.com

निवास : धनबाद (झारखण्ड)

सम्प्रति- राजकीय सेवा (शिक्षिका)
प्रकाशन- 'लक्ष्य' और 'कहीं कुछ रिक्त है' (कविता संग्रह), 'सुविधा में दुविधा' (निबंध संग्रह), 'बिखरे हुए पर' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित।
दस साझा कविता के और आठ साझा ग़ज़ल संकलनों रचनाएँ प्रकाशित।
हंस, परिकथा, पाखी, वागर्थ, गगनांचल, आजकल, मधुमती, हरिगंधा, कथाक्रम, साहित्य अमृत, अक्षर पर्व और अन्य अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लेख और विचार निरंतर प्रकाशित। दैनिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं और ई-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित। 'झारखंड विमर्श' पत्रिका की सम्पादिका और अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक के लिए अतिथि संपादन।
संपर्क- डी०- 15, सेक्टर- 9,पी०ओ०- कोयलानगर, ज़िला- धनबाद (झारखण्ड)- 826005
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