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दयाराम वर्मा की कविताएँ

दयाराम वर्मा की कविताएँ

देशप्रेम से ओतप्रोत
दुश्मन को ललकारते
ओजस्वी शब्द
स्वर लहरियों पर हुलसित
राग-रागिनी हैं शब्द
सप्त स्वरों का गुंजन भी
मधुर मिलन लय-स्वर शब्द


पोस्टमार्टम

नुकीले और तेज़ औज़ारों से
हर रोज़ मैं उधेड़ता हूँ उनकी चमड़ी
वज़नी प्रहारों से खंडित करता हूँ
कठोर कपाल!
और मांस के लोथड़े काट-काट कर
अंतड़ियों और पसलियों तक को
भेद डालता हूँ

बिखरे अंगों और कटे लोथड़ों में
फँसे पीतल के कुछ टुकड़े
या ख़ंजर के गहरे घाव
जमे हुए रक्त के थक्के
या उदर में अधपचा भोजन
मदद करते हैं मेरी
पोस्टमार्टम रिपोर्ट बनाने में

राम, रहीम, जॉन और करतार
हर एक को मैंने चीर डाला
ख़ुर्दबीन तले हर अंग परख डाला
लाल रक्त, सफ़ेद अस्थियाँ
हृदय, फेफड़े या पसलियाँ
कहीं कोई भेद नहीं

फिर वह कौनसा अंग है
चुन देता है मज़हबी दीवारें
बाँट देता है मानव से मानवता
इंसान से इंसान को
शहर से बस्ती, खेत से खलिहान को

मगर
माँ के अश्रुओं की उफनती पीड़ा
बेवा के चेहरे पर खींचा सन्नाटा
और यतीम की आहत निगाहों के
स्याह अँधियारे
क्या राम, रहीम, जॉन
या करतार के संदर्भ में जुदा हैं!

धर्म, भाषा, नस्ल की नींव पर
हर बार एक नई दीवार उगती हुई
फैल जाती है
अमरबेल की तरह ख़ूनी पंजे गड़ाए
गाँव-गाँव, शहर-शहर, देश-देश

फिर किसी भीड़ का उन्माद
किसी सरफिरे का जुनून
फिर कोई खंजर, फिर कोई धमाका
लपकते शोले, दहकते मकान
छलनी शरीर, बिखरे अंग
रक्तरंजित लाशें
पोस्टमार्टम, रूदन और सन्नाटा

नर कंकालों के इस ढेर पर
कौनसा द्वंद्व होगा सार्थक
कौनसे मूल्य होंगे स्थापित!
मेरे सवाल वीरान हवेली से
प्रतिध्वनि की भांति लौट आते हैं

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जॉम्बी

जब तुम सुनते हो
केवल अपने मन की बात
दिन-रात
छद्म प्रचार मचानों पर
कैटवॉक करते शातिर विचारपुंज

कथा-वृत्त प्रति कथा-वृत्त
उतर जाते हैं
तुम्हारे दिलो-दिमाग में
फैल जाते हैं नस-नस में
घुल जाते हैं खून में
तुम नहीं सुन पाते

चक्रवत पसरी विवश- दरिद्रता
महसूस नहीं कर पाते
नस्लवाद-जातिवाद संतप्त
रूहों की घुटन

उद्वाचन नहीं कर पाते
बेरोजगारी, मंहगाई, घोटाले
भ्रष्टाचार, धार्मिक उन्माद
शासकीय बहरापन, राजसी हठधर्मिता

तुम नहीं देख पाते
दिन-दहाड़े लुटते-नुचते तन-बदन
धधकती इमारतें
पलभर में भस्मीभूत
जीवन-पर्यंत संचित सपने

तुम महसूस नहीं कर पाते
ज़िंदा जलते
इंसानी जिस्मों की गंध
और नहीं सुन पाते
शरणार्थी शिविरों से उठती सिसकियाँ

बिना तलवार, बिना तराजू
जस्टीसिया
आँखों पर पट्टी बाँधे खड़ी है

क्योंकि तुम सुनते हो
केवल अपने मन की बात
जॉम्बी के ड्राईंगरूम में
सब न्यायोचित है

  1. उद्वाचन= सांकेतिक शब्दों का अर्थ समझना
  2. जस्टीसिया= प्राचीन रोम में न्याय की देवी को जस्टीसिया कहा गया है, जिनके एक हाथ में तराजू, दूसरे में दुधारी तलवार है और आँखों पर पट्टी बंधी होती है
  3. जॉम्बी= एक मृत व्यक्ति के पुनर्जीवन के माध्यम से निर्मित एक (काल्पनिक) भूत-प्रेत, जिसमें इंसान जैसी संवेदनाएँ नहीं होतीं

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ढाई आखर

निर्विकार, मधुर, सावचेत
दया-करूणा भाव युक्त
दिलों को जीतते
इंसानियत को सींचते शब्द
हृदयवृत्ति-मनोवृत्ति
बदलने में सक्षम हैं शब्द

गुदगुदाते व्यंग्य बाण
हो सकते हैं प्रेम में पगे भी
या व्योम छूते अध्यात्म का
भक्तिरस में आकंठ शब्द
ममत्व-मंगल्य-मुदित
स्नेहिल धागों का इंद्रधनुषी संसार
है शब्द

देशप्रेम से ओतप्रोत
दुश्मन को ललकारते
ओजस्वी शब्द
स्वर लहरियों पर हुलसित
राग-रागिनी हैं शब्द
सप्त स्वरों का गुंजन भी
मधुर मिलन लय-स्वर शब्द

सार्थक या निरर्थक
अर्थपूर्ण या अर्थहीन
रूढ-यौगिक-योगरूढ शब्द
तत्सम-तद्भव-देशज
या विदेशज शब्द
बिग-बैंग की व्युत्पत्ति
सृष्टि का अनहद नाद है शब्द

विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क
सीमा में हैं मर्यादित
अतिकृत हुए तो
हुए अनिष्ट संहर्ता शब्द

शब्द-अपशब्द भी होते हैं
आत्मसम्मान बींधते
दिलों की- रिश्तों की- समाज की
समुदायों की- देश की
नीवों में रेंगते
सर्वस्व चटखाते-भटकाते
भ्रामक आवारा शब्द

लिपि से, लिखावट से
लहजे से, वेश से, भेष से
खान-पान से, नाम और काम से
यह हमारा वह तुम्हारा
बाँटते-परिभाषित करते
राजनीतिक व्याकरण से इतर

किसी की आँखों में झाँकना
और डूबकर बाँचना
ढाई आखर
प्रेम, इश्क, प्यार के शब्द

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सर्वद्रष्टा इतिहास

मिटाने चले हो तुम इतिहास
स्वयं से स्वयं का
यह कैसा उपहास!

जानते हो
इति+ह+आस
ऐसा ही-निश्चित रूप से था

और था जो निश्चित
अडिग, अमिट, शाश्वत
सही-ग़लत, मधुर या कष्टकर
था निश्चित

बहुत चयनात्मक
पा लेना चाहते हो छुटकारा
चाहते हो कर देना विस्मृत

दर-ओ-दीवार से
इमारतों से, गली-कूचों से
ग्रंथों-किताबों, दिलो-दिमाग़ से
इतिहास

लेकिन मत भूलो
इतिहास सृजन है तो संहार भी
नफरत है तो प्यार भी

मिटाया नहीं जा सकता
न झुठलाया- दुरस्त भी नहीं
समय के पदचिह्न
सर्वद्रष्टा है इतिहास

पेड़ों की छाल
चारकोल, हड्डियाँ, खाल-खून
जीवाश्मों में आवेष्टित
कार्बन कैलेंडर

अंतिम हिमयुग, नवपाषाण, कांस्य युग
कुदरती स्लेट पर
गुदा है इतिहास

वर्गभेद, वर्णभेद, नस्लभेद, दासता
शोषण-मुक्ति
क्रूर, विभत्स, करुण, मनोहर
दानवीयता बनाम मानवीयता
आत्मसम्मान, आत्मबोध

संघर्ष, क्रांति, प्रतिक्रांति
स्वतंत्र चेतना का
सतत विकास है इतिहास

राजवंशीय महिमामंडन
चाशनी में डूबी कपोल कथाएँ
बदरंग अतीत को ढांपती रंगीन चद्दर
आदर्शवाद का छद्म प्रचार
चरण वन्दना या प्रशस्तियाँ

नहीं,
केवल सच
कटु-सच का सपाट दर्पण
है इतिहास

**********


बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन

कांपते पहाड़ ने देखा
दूर तलहटी में फलता-फूलता एक कब्रिस्तान
एक से बढ़कर एक गगनचुंबी कब्र में
दफ़न होते
अपने पूर्वज, बंधु-बांधव, सखा-सहचर

और उनके साथ होते दफ़न
चीड़, देवदार, साल, सागवान, पलाश
लहराते बांसों की बस्तियाँ
झरनों का क्रंदन
तितली, भौंरे, बंदर, गिलहरी का प्रलाप
गौरेया की सिसकियाँ

वह देखता है क़रीब आते हुए
एक जेसीबी मशीन
घबरा जाता है बचा-खुचा पहाड़
उसकी देह से लिपटे खिलखिलाते झूमते पेड़
सहम उठते हैं

उसके कंधों पर उछलते-कूदते मनमौजी झरने
हो उठते हैं भयाक्रांत
अमलतास पर गौरेया के झूलते घोंसले
डूब जाते हैं गहरे अवसाद में
मौत की आहट से उपजे सन्नाटे का मातमी डिर्ज
पसर जाता है चारों ओर

उस रोज़ वह सुनता है
दो नन्हे क़दमों की पदचाप अपनी गोद में
ख़ुशी से पहाड़ पिघलने लगता है
झरने बिखेरने लगते हैं

सुरमई संगीत
झूमने लगते हैं पेड़-पौधे, मदहोश हवाओं के संग
और सबके साथ तितली, गौरेया, गिलहरी, बंदर
लगते हैं फुदकने नाचने गाने

नन्हे बालक ने जी भरकर लुत्फ उठाया
वह तितली के पीछे भागा
पेड़ों की डाल पर झूला, बंदरों को रिझाया
झरनों तले नहाया

और शाम ढले जब वह लौटने लगा
पहाड़ ने पुकारा एक याचक की तरह
बच्चे, मेरे प्यारे बच्चे सुन!

मैं चाहता हूँ, तुम फिर आओ मेरी गोद में
लौट कर बार-बार

लेकिन देखो
वह एक मशीन आ रही है रेंगती हुई इस पार
हम सब का बनकर काल
उसे रोको मेरे बच्चे
फेंक दो उसे किसी गहरे गड्ढे में अन्यथा
अगली बार
पहाड़ का गला रुंधने लगा

लेकिन बालक ने न मुड़कर देखा, न कुछ कहा
पहाड़ ने फिर पुकारा
बच्चे, मेरे प्यारे बच्चे सुन!

इस बार चीड़- देवदार- बांस- पलाश
सभी पेड़-पौधे, सभी पशु-पक्षी
वे सभी जो इस ज़िंदा बस्ती के थे वासी
पुकार रहे थे समवेत
बच्चे, मेरे प्यारे बच्चे सुन!

लेकिन बालक बिना किसी प्रतिक्रिया के
तलहटी में मुर्दा मूक कब्रिस्तान की ओर
कहीं ओझल हो चुका था!

  1. डिर्ज और इसका प्रारंभिक रूप डिरिज, जिसका अर्थ है- शोक का एक गीत या भजन, मृतकों के लिए चर्च सेवा में इस्तेमाल किए जाने वाले लैटिन मंत्र के पहले शब्द से आया है।

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रचनाकार परिचय

दयाराम वर्मा

ईमेल : drv.excel@gmail.com

निवास : जयपुर (राजस्थान)

संप्रति- भारतीय वायुसेना में रेडियो तकनीशियन तथा राष्ट्रीय बैंक से मुख्य प्रबंधक पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति
लेखन विधाएँ- उपन्यास, कविता, लघुकथा, व्यंग्य, कहानी, संस्मरण इत्यादि
प्रकाशन- 'सियांग के उस पार' (उपन्यास), ब्रह्मपुत्र से सांगपो: एक सफ़रनामा (यात्रा-वृत्तांत)
उपलब्धियाँ- उपन्यास 'सियांग के उस पार' पर राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, दोईमुख, ईटानगर में शोध (एम फ़िल) वर्ष 2020, पंजाब नेशनल बैंक द्वारा वर्ष 2023 में यात्रा वृत्तांत 'ब्रह्मपुत्र से सांगपो' चयनित और सम्मानित।
सम्मान- ‘शब्द गुंजन उपन्यास सम्मान- 2018’, श्री विभगूंज वैल्फेयर सोसाइटी भोपाल, ‘सत्य की मशाल सम्मान’ 2019 (सत्य की मशाल साहित्यिक पत्रिका, भोपाल), ‘शांति गया स्मृति कृति प्रशस्ति पत्र’ 2019 (गया प्रसाद खरे स्मृति साहित्य, कला एवं खेल संवर्धन मंच, भोपाल), ‘स्व. मुखराम माकङ माहिर पुरस्कार’ 2022, श्री दिलीप जिंदल स्मृति 'भागीरथ भाष्कर कथाश्री अलंकरण-2022' (प्रज्ञा हिंदी सेवा संस्थान ट्र्स्ट, फिरोजाबाद)
निवास- विला संख्या- 77, महिमा शुभ निलय, चिमनपुरा, अजमेर रोड, जयपुर (राज.)- 302026