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मधु शुक्ला के गीत

मधु शुक्ला के गीत

ये महज संयोग है या लेख विधि का
टूटता यूँ ही नहीं घेरा परिधि का
मैं बनाती राह खुद पगडंडियों सी
आ मिली हूँ आज पनघट से तुम्हारे।

एक- सहमा सहमा सारा जंगल

बजा-बजा कर डमरूँ देखो
बेच रहे हैं स्वप्न मदारी

नीले ले लो, पीले ले लो
सपने छैल छबीले ले लो
ले लो कुछ मौसमी फुहारें
कुछ कागज की झीलें ले लो
झोली भर लो इन सपनों से
हाँक लगाते बारी-बारी

कितने मोहक कितने सच्चे अ
बके रंग बहुत हैं पक्के
इनकी चमक-दमक के आगे
चाँद सितारे हक्के-बक्के
पलकों में दो-चार सजा लो
गिरवी रख अपनी लाचारी

बिना भाव के बिना मोल के
बड़े कीमती वादे ले लो
ले लो इज्जतदार मुखौटे
हीरे जड़े लबादे ले लो इस पाले से उस पाले में
लगी लुढ़कने आस बिचारी

पिछली सारी वचन बद्धता
गंगा जी में सिरा चुके हैं
पर उनसे क्या करें शिकायत
स्वाभिमान जो गिरा चुके हैं
कल के सारे चोर-लुटेरे
भेष बदलकर बने पुजारी

देख रही हैं गुम सुम चिड़ियाँ
बिखरे हैं लालच के दाने
इन भोले-भाले हिरणों को
आयेगा अब कौन बचाने
सहमा-सहमा सारा जंगल
साध रहे फिर तीर शिकारी

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दो- अंगारे दिन

देखे इन आँखों ने कितने
तीखे मीठे खारे दिन
सोच रहे हैं गुमसुम बैठे
देहरी और दुवारे दिन

कभी बर्फ-सी शीतल सिहरन
कभी धूप-सी चुभन लिये
क्या दिन थे वे तितली जैसे
कोमल-कोमल छुवन लिये

रखे हुए हैं अब हाथों में
ज्यों जलते अंगारे दिन

सरक रही है सर-सर, सर-सर
रेत समय की मुट्ठी से
गुम हो गये कहाँ सब अक्षर
आते-आते चिट्ठी से

पलट रहे हैं झोली अपनी
क्या जीते क्या हारे दिन

सूने तट पर खड़ा अकेला
देता मन आवाज किसे?
बीते कल की बात हुई वो
ढूँढ़ रहा तू आज जिसे

लौट चले जब दूर क्षितिज को
हारे थके बिचारे दिन

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तीन- हम ललित निबंध हो गये

गीतों के बंद हो गये
पोर-पोर छन्द हो गये

पलट रही पुरवाई पृष्ठ नये मौसम के
तोड़ रहे सन्नाटे कोकिल सुर पंचम के
गहरे अवसादों में, ठहरे संवादों में
घोल रही हैं सुधियाँ राग नये सरगम के
प्रीति की यूँ बाँसुरी बजी
प्राण घनानन्द हो गये
पोर - पोर छन्द हो गये

शब्द लगे अँखुआने फिर सूनी शाखों में
अर्थ लगे गहराने महुँआई आँखों में
बौराये भावों में, मौसमी भुलावों में
वायवी उड़ानों के स्वप्न लिए पाँखों में
मन ने आकाश छू लिया
हम ललित निबंध हो गये
पोर-पोर छन्द हो गये।

भरमाते हैं मन को मृगजल इच्छाओं के
भटक रहे पाने को छोर हम दिशाओं के
अनबूझी चाहों के, अन्तहीन राहों के
सम्मोहन में उलझे जंगली हवाओं के
खुद को ही खोजते रहे
कस्तूरी गंध हो गये ।
पोर-पोर छन्द हो गये ।

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चार- मैं समय की धार में

मैं समय की धार में बहती अचानक
आ लगी हूँ रेत-सी तट से तुम्हारे ।
रेत में कुछ शंख भी हैं सीपियाँ भी
कैद इसमें वक्त की अनुभूतियाँ भी
भूल कर अपनी धरा अस्तित्व अपना
आ टिकी हूँ बेल-सी वट से तुम्हारे।

भटकती फिरती तटों पर दिन-दुपहरी
लौट आयी प्यास की मारी टिटहरी
छोड़कर मेघों भरा आकाश सारा
चाह में दो बूँद की घट से तुम्हारे।

मौसमों का दूर तक आभास कब था?
हाथ में आठों प्रहर मधुमास कब था?
शब्द-लय- सुर-ताल- नव रस-छन्द लौटे
बाँसुरी में आज बँसवट से तुम्हारे।

ये महज संयोग है या लेख विधि का
टूटता यूँ ही नहीं घेरा परिधि का
मैं बनाती राह खुद पगडंडियों सी
आ मिली हूँ आज पनघट से तुम्हारे।

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वसंत जमशेदपुरी

18 December 2024

सारे गीत अप्रतिम

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रचनाकार परिचय

मधु शुक्ला

ईमेल : madhushukla111@gmail.com

निवास : भोपाल (मध्य प्रदेश)

जन्म स्थान- बैसवारा लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.)
शिक्षा- एम.ए. हिन्दी एवं संस्कृत, बी.ए
सम्प्रति- संस्कृत शिक्षिका (शास. कस्तूरबा कन्या उ.मा.वि., टी.टी. नगर, भोपाल)
लेखन विधा- गीत, ग़ज़ल, मुक्त छन्द रचना, कहानी समीक्षायें एवं विविध विषयों मे लेख।
प्रकाशन- देश की प्रायः सभी पत्र पत्रिकाओं-कादम्बिनी, नया ज्ञानोदय, अवरोह, समान्तर, पहला अन्तरा, आदि में रचनाओं का प्रकाशन, जनसत्ता, कलरव, वार्षिकांक, छपते छपते, साहित्य भारती आदि में रचनाओं का प्रकाशन।
प्रसारण- आकाशवाणी, दूरदर्शन द्वारा समय समय पर कविताओं का पाठ एवं प्रसारण, म.प्र. साहित्य अकादमी-भोपाल, उ.प्र. हिंदी संस्थान-लखनऊ एवं साहित्य अकादमी-देहरादून द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलनों में काव्यपाठ एवं आलेख वाचन। देश के कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों द्वारा काव्य पाठ।
विशेष- साथ ही 'नवगीत के नये प्रतिमान', 'गीत बसुधा', 'शब्दायन' जैसे नवगीत संग्रहों में सहभागिता ।
सम्मान-
• म.प्र. लेखकसंघ का कमला चौबे सम्मान, सन् 2008
• कला मंदिर साहित्यिक संस्था भोपाल द्वारा पाण्डुलिपि सम्मान, सन् 2012 नटवर गीत सम्मान, सन् 2012
• कदाम्बिनी पुस्तक उत्सव का साहित्य सम्मान, सन् 2014
• डॉ० शिवबहादुर सिंह भदौरिया स्मृति सम्मान-2015
सम्पर्क- 6, साँई हिल्स, कोलार रोड, भोपाल (म.प्र.) - 462042
दूरभाष- 0755-2492685,
मोबाइल- 09893104204