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समकालीन हिन्दी ग़ज़ल : स्त्री विमर्श- अनामिका सिंह

समकालीन हिन्दी ग़ज़ल : स्त्री विमर्श- अनामिका सिंह

स्त्री केंद्रित ग़ज़ल को जन केंद्रित ग़ज़ल के साथ एकाकार कर देने से एक सार्थक उपसंहार का सृजन होगा और ग़ज़ल की कालजयी भूमिका तय होगी। जड़मूल्यों से विद्रोह की ग़ज़ल समय की बड़ी माँग है और स्त्री प्रसंग में तो यह सबसे बड़ी माँग है।

समकालीन हिन्दी ग़ज़ल अपने भाषा-पक्ष एवं बिम्ब-प्रतीकों की सांगो-पांग समृद्धि के साथ निरन्तर विकास के नये आयाम स्पर्श कर रही है। भाषा की सरलता और समकालीन सन्दर्भों में आवश्यक हस्तक्षेप, इन दो आधारभूत विशेषताओं के चलते समकालीन ग़ज़ल जनप्रिय बनी है। हिन्दी ग़ज़ल की एक समृद्ध परम्परा कबीर, महाप्राण निराला, बलबीर सिंह 'रंग' से चलती हुई यहाँ तक पहुँची है। आज समकालीन ग़ज़ल को लेकर जो सकारात्मक परिवेश बना है, उसमें दुष्यन्त, अदम गोंडवी, बल्ली सिंह चीमा, शमशेर, अमर नदीम से लेकर रामकुमार कृषक, ज्ञानप्रकाश विवेक, हरेराम समीप, के०पी० अनमोल, रंजना गुप्ता, विनय मिश्र, रामनाथ बेख़बर, विजय स्वर्णकार, डॉ० ब्रह्मजीत गौतम, डॉ० भावना, सीमा अग्रवाल, संध्या सिंह, सीमा विजयवर्गीय, आराधना प्रसाद, सोनरूपा विशाल आदि जैसे तमाम आवश्यक साहित्य-सेवियों के सार्थक अवदान से सँभव हो सका है।

भारतीय और वैश्विक समाज की बात की जाए तो आनुपातिक आरोह-अवरोह भले ही हों किन्तु रोज़मर्रा का जीवन हो या कोई भी क्षेत्र, हर छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा फैसला, पितृसत्ता के अधीन लिया जाता रहा है। हालांकि हमें इस बात को स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि पितृसत्ता के पोषण में आधी आबादी स्वयं संलग्न है। बात कड़वी है मगर है! इस पर चर्चा फिर कभी।
बहरहाल, यह आलेख समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में स्त्री विमर्श पर केन्द्रित हो रहा है।

हालांकि कहने-सुनने में अटपटा अवश्य लगता है लेकिन इस सच से मुँह नहीं फेरा जा सकता कि अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो स्त्री को देह भर समझने वालों की कमी नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो देह व्यापार के कारोबार का अस्तित्व ही नहीं होता। देह व्यापार और इसको प्रश्रय देने वाले इसी समाज के नुमाइंदे हैं। सुविख्यात पत्रिका 'सारिका' के देह विशेषांक में प्रकाशित रामकुमार कृषक जी की ग़ज़ल के कुछ शेरों में उस वर्ग की आत्यंतिक पीड़ा बड़ी शिद्दत से दर्ज़ हुई है-

भूख का कैसे खुलासा हम करें
जिस्म अक्सर जिस्म को खाता रहा

इक समाजी कोढ़ अपनी ज़िंदगी
कोढ़ हमसे ज़िंदगी पाता रहा


यूँ तो हज़ारों क़िस्से और अफ़साने ग़लीज़ कही और समझी जाने वाली इन गलियों में हर रात जन्म लेते हैं। झूठे सब्ज़बाग दिखाने वाले तमाम सफ़ेदपोशों के जीवन में इनकी उपस्थिति होती है किन्तु यह मानसिक न होकर दैहिक होती है। कोई इन सबंधों को सार्वजनिक जीवन में अपनाने और स्वीकारने का साहस स्वप्न में भी नहीं करता। इसी विषयवस्तु पर ख्यात आलोचक वीरेंद्र आस्तिक जी इस पीड़ा को यूँ पंक्तिबद्ध करते हैं-

प्यार करते हो तो तुम चलो साथ मेरे
एक बस्ती हूँ गंदी रहो साथ मेरे

जंग मैनें बहुत की है मैं दामिनी हूँ
इन दरिन्दों से तुम भी भिड़ो साथ मेरे

अविवाहित युवतियाँ मायके में अपने पिता और भाइयों की मर्ज़ी अनुसार संचालित होती हैं। उस समय उनके ज़ेहन में यह उम्मीद होती है कि विवाहोपरांत उनका अपना अस्तित्व होगा लेकिन होता इसके बिलकुल विपरीत है। ससुराल में मायके से भी अधिक बंदिशों में स्वयं को समायोजित करने हेतु वह विवश होती है। गोपाल विनोदी जी इस पीड़ा को बहुत ही मार्मिक अंदाज़ में प्रस्तुत करते हैं-

सोच रही थी इक दिन होगी मेरी अपनी हस्ती भी
पता नहीं था परकोटे में बँधुआ जीवन होता है

डिजिटल युग में ख़त-ओ-किताबत गुज़रे ज़माने की बात हुई मगर कभी तो यह अस्तित्व में थी। पुत्रियों के ब्याह में दहेज़ हेतु मकान, खेत तक बिक जाते हैं। ऐसे ही एक नंगे दृश्य को वे शब्दों का पैरहन देते हैं और यह शेर 2019 में लिटरेरी सोसाइटी ऑफ इंडिया, नई दिल्ली द्वारा वर्ष का श्रेष्ठतम शेर घोषित होता है।

किस पते पर बाप को ख़त भेजती
मेरी शादी में मकाँ तो बिक गया

हम उस परिवेश का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहाँ का सूत्र वाक्य है कि बेटी 'जा तो डोली में रही हो मगर ससुराल से निकलना तो अर्थी पर ही निकलना' और इस घुट्टी को पीकर वह कितनी ही मानसिक, शारीरिक यातनाएँ झेलती रहती है। उसके समक्ष दो 'घरों की लाज' का यक्ष प्रश्न सोते-जागते रहता है। अभिभावक भी अधिकांशतः कम्फर्ट ज़ोन में रहना चाहते हैं कि घर-गृहस्थी में चलता रहता है। वे कोई दृढ़ निर्णय लेने पर विचार ही नहीं करते। हाँ, वह निर्णय तब लेते हैं, जब बेटी जला दी जाती है या वह इन परिस्थितियों से हताश होकर ख़ुद फंदे पर लटक जाती है। इतना होते ही अभिभावक और समाज खुलकर फ्रंट पर आ जाता है। कुछ रुपयों पर दोनों पक्षों में राज़ीनामा हो जाता है। ऐसी ही परिस्थितियों पर लोगों को जाग्रत करने हेतु एहतराम इस्लाम जी कहते हैं-

जिनके आगे हैं बेटियाँ वो भी
बेटियों के लिए नहीं लड़ते

सेक्स वर्कर्स पर लांछन लगाने वाले लोग वही हैं, जो उनकी सेवाएँ लेते हैं, ज्योति मिश्रा इस कड़वे सच को कहने का जोखिम लेती हैं-

उतरे हैं कोठे से कहते औरतें हैं बदचलन
साफ़ कपड़ों में चमकते ख़ानदानी आदमी

घुट के मर जाएगी देवी जो बना दोगे तुम
माँ भी इंसान है इंसान उसे रहने दो

स्त्रियों को देवी कहकर अति महिमामंडित भी किया जाता है। पारिवारिक इकाई की धुरी और न जाने किन-किन विशेषणों से नवाज़ा जाता है और उन्हें पैर की जूती तक कहा और समझा जाता है। डॉ० रंजना गुप्ता इस तल्ख़ सच्चाई को कलमबद्ध करती हैं-

तुम्हारी जीत है औरत, तुम्हारी हार है औरत
मगर तुमको हमेशा ये लगा बेकार है औरत

बहुत ही तंग दिल है बेरहम मर्दों की ये दुनिया
कभी समझे उसे जूती, कभी बाज़ार है औरत

स्मृतिशेष वसु मालवीय स्त्री जीवन का निचोड़ कैसे बयान करते हैं-

वो तो कठपुतली है बाबू
ख़ुद अपनी चुगली है बाबू

तुम उसको ठंडा कहते हो
कितने दिन उबली है बाबू

आवश्यक नहीं कि हर दुख शब्दों से ही बयान किया जाए। चेहरे के भाव हर्ष, विषाद आदि को अनकहे ही व्याख्यायित कर देते हैं। यह बात दीगर है कि चेहरा पढ़ने की संवेदना हर किसी में नहीं होती। प्रख्यात ग़ज़लगो हरेराम 'समीप' जी के दो शेर स्त्री जीवन का पूरा कैनवास ही हैं-

तेरे चेहरे से सब उजागर है
कोई तकलीफ तेरे भीतर है
____________

वो आँखें धो के हँसती आई बाहर
कोई आया है उसके मायके से

जीवन इतना व्यस्त और संघर्षमय है कि सबके अपने-अपने दुख हैं और यदि इसे स्त्रियों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो दृश्य और कष्टकारक हैं। क्या ही वजहें रहती हैं, जब जग सोता है तो कोई क़लम किसी आँख पर लिखती है कि

रात भर आँखों ने सींची बात कोई अनमनी
और दिन बिस्तर से दिन भर कैक्टस चुनता रहा

अकारण कुछ नहीं होता, सीमा अग्रवाल जी का यह शेर किसी स्त्री विशेष के लिए न होकर समस्त आधी आबादी की पीड़ा का प्रतिनिधित्व करता है। यदि स्त्री जीवन में सब हरा ही हरा होता तो ऐसी अभिव्यक्ति जन्म ही नहीं लेती।

'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' कहने को भले ही कह दिया गया है लेकिन अमल में यह सिर्फ़ पूजास्थलों और निर्जीव प्रतिमाओं तक महदूद रह गयीं लेकिन ग़ौर करें तो यहाँ भी सवाल उठता है कि अव्वल तो नारियों को पूजना ही क्यों हैं? सामान्य इंसान की तरह ट्रीट क्यों नहीं किया जाना है? उनको देवी बनाना, मानना और सुविधानुसार कहना ही क्यों है? मुट्ठी भर लोग ही होंगे, जो सच में सम्मान या सहकार की भावना रखते हैं अन्यथा जो सच है वह डॉ० भावना ने अपने शेरों में कह ही दिया है-

बड़ी ही खोखली लगती वहाँ सम्मान की बातें
जहाँ औरत की हर चर्चा बदन पर आके रूकती है

बताओगे भला क्या तुम मरद की जात जो ठहरे
मुझे मालूम है दुनिया मुझे क्या-क्या बुलाती है

स्त्री मन कोमल बेशक होता है किन्तु वह उतनी ही दृढ़निश्चयी भी होती है। यदि एक बार मन में कुछ ठान ले तो वह उसे कर भी गुज़रती है। एक जिरह सामाजिक, पारिवारिक, वैयक्तिक, लिंगभेद व्यवस्था के ख़िलाफ़ उसकी स्वयं से चलती रहती है और वह एक निष्कर्ष पर भी पहुँचती है, जो उसके स्वयं के आत्मविश्वास को और पुख्ता करता है। इसी सन्दर्भ में सोनरूपा विशाल जी कहती हैं-

आज ख़ुद से जिरह हो गयी
मेरे भीतर सुबह हो गयी
________

ख़ुद पे जब भी किया यक़ीं मैंने
रुख़ हवाओं का मोड़ कर रक्खा

हमारे समाज में स्त्री का सजना-सँवरना तभी तक स्वीकार्य है, जब तक उसका पति जीवित है। इसके इतर यदि वह बिंदी, काजल या किसी भी सौंदर्य प्रसाधन का प्रयोग करती है तो उस पर घर-बाहर छींटाकशी होती ही होती है। कुछ अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो लैंगिक विभेद मानव मस्तिष्क में जस का तस है। सिक्के का दूसरा पहलू भी है कि कुछ स्त्रियाँ बग़ैर साज-सज्जा के कम्फर्ट फ़ील करती हैं तो भी उन पर कटाक्ष होते हैं। स्त्री-जाति की जिजीविषा में तो कोई कमी नहीं किन्तु वह घर-बाहर की रुसवाइयों के ख़ौफ़ से अपने सपनों की उड़ान पर ठिठक जाती है और यदि वह धारा के विपरीत जाकर कोई फ़ैसला लेती भी है तो अधिकांशत: उसे इसकी भारी क़ीमत चुकानी होती है। इन्हीं तमाम विसंगतियों पर अंजु केशव के कुछ शेर-

किसी की जान का क्या रब्त इससे
किसी के माथे पर बिंदी नहीं है
___________

चाहती हैं चाँद तारे तोड़ लाना औरतें
हसरतें पर आज भी रुसवाइयों में कैद हैं

स्त्री को हज़ार हिदायतों और नसीहतों के जाल में बांधकर रखना और दरियादिली का महज़ आडम्बर करना समाज की रिवायतें रही हैं। राहुल शिवाय इस दोमुहेंपन को अपने शेर में कुछ इस तरह उजागर करते हैं-

क़ैद कर उसको कफ़स में, वह जहां से कह रहा
वो उड़े हमने कभी भी काटे उसके पर नहीं

स्त्री शिशु भ्रूण हत्या पर वह आगे कहते हैं-

वंश को अपने बचाना चाहते हैं किस तरह
गर्भ होगा ही नहीं, जब लड़कियाँ मर जाएँगी

कितनी ही स्त्रियाँ कठपुतलियों-सा जीवन जीने को विवश हैं। अव्वल तो विद्रोह वह करती ही नहीं और यदि करती भी हैं तो उन्हें तमाम विशेषणों से नवाज़ा जाता है। बनी-बनाई व्यवस्था से इतर यदि उन्होंने एक साँस भी ली तो सबसे पहले उसके यौनिक चरित्र पर हमले किये जाते हैं। सीमा विजयवर्गीय जी इस संचालन का पुरजोर विरोध दर्ज करती हैं-

बनाकर आईना ख़ुद को मुझे कब तक लिखोगे तुम
कहानी है नई मेरी इसे ख़ुद ही कहूँगी मैं

पूर्व से लेकर अभी तक स्त्री की वास्तविक स्थिति में अपेक्षित परिवर्तन नहीं हुआ। परिवर्तन हुआ है, जो प्रतीत होता है, यथार्थ की तहें उघारी जाएँ तो वह यथास्थिति से ही कुछ क़दम बढ़ पायी है। आज भी आम पुरुष मानसिकता में या पुंसवादी स्थापनाओं में उसे वस्तु मात्र समझा-माना गया। महाअतीत में द्रौपदी का जुए में दाँव पर लगा दिया जाना हो या उत्तर आधुनिक काल में निर्भयाओं, श्रद्धाओं, नताशाओं, अंकिताओं के साथ हुई अमानुषिक बर्बरता हो, इस तथ्य की गवाही देते कई उदाहरण अपने इंसाफ़ के हक़ के लिए चश्मेबरह हैं। प्रख्यात ग़ज़लगो ओमप्रकाश यती जी कहते हैं-

जुआ खेला था तो ख़ुद झेलते दुश्वारियाँ भी
भला उसके लिए क्यों द्रौपदी ख़तरे में पड़ती है

निर्भया, श्रद्धा, नताशा अंकिता बन जाएगी
क्या पता कब कौन लड़की पीड़िता बन जाएगी

आज स्त्री विमर्श के सेमिनार विमर्श न होकर इवेंट बन गए हैं। भव्य आयोजनों में स्त्री स्वतंत्रता की कितनी ही बातें कर ली जाएँ किन्तु उनकी कष्टप्रद अनुभूतियों की समानुभूति अभी दूर की कौड़ी ही है। कितनी अजब बात है कि स्त्री यदि प्रेम को नकार दे तो समाज में इस 'न' को स्वस्थ तरीके से नहीं लिया जाता, तमाम एसिड अटैक और मर्डर इसके ताज़ा उदाहरण हैं। घर ,बाहर कहीं ऐसी जगह नहीं है, जहाँ बेटियाँ महफूज़ हों। कितनी कशमकश में यह शेर हुए होंगे, जब के० पी० अनमोल जी को कहना पड़ा कि वहशी निगाहें बदन पढ़ना तो जानती हैं पर मन पढ़ना हमें नहीं आया-

ना बोला तो मुँह पर फेंकेगा एसिड
प्यार कहाँ है! ये तो फिर बलवाई है
_____________

जानते वहशी निगाहों से हैं बदन पढ़ना
सीख पाये ही नहीं हम किसी का मन पढ़ना

अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो ऊपर से लक-दक दिखते स्त्री जीवन में घर की चारदीवारी में और समाज में तमाम तरह की ट्रोलिंग, हैरेसमेंट, मेंटल और फिजिकल वायलेंस होता आया है, जिससे शायद ही कोई स्त्री अछूती रही हो। यह सहन करने की प्रवृत्ति कहीं न कहीं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इस तरह के एक्ट को बढ़ावा ही देती है। इसके ख़िलाफ़ मुखर होकर बोलने को प्रेरित करते डॉ० राकेश जोशी जी के शेर-

दब-दब कर जीते हो जीवन, सहकर अत्याचार सभी
सब कुछ सहना, कुछ न कहना, अच्छी बात नहीं है
______________

इस दुनिया में केवल लड़की से पूछो
कितना मुश्किल होता है लड़की होना

आज का युग बाज़ारवाद का युग है। हर चीज़ यहाँ मुनाफ़े की दृष्टि से ही देखी-परखी जाती है। भावनात्मक अपंगता के काल में विज्ञापनों में स्त्री देह को वस्तु की भाँति भुनाया जा रहा है। अब यहाँ प्रति प्रश्न स्त्रियों पर भी उठते हैं कि वह क्यों अर्थोपार्जन हेतु देह को माध्यम बना रही हैं! सुदेश कुमार मेहर का शेर है-

सोचता हूँ मैं कि आख़िर किस अपाहिज सोच ने
सारे विज्ञापन रचे हैं औरतों की देह पर

खिलखिलाती, सकुचाती, ज़िंदादिल, पनीली आँखों वाली शोख़ लड़कियों का ऐसा होना आसान नहीं था। इन सबका संघर्ष और जिजीविषा अतुल्य है। सभी के पास इस समाज के आरोपित संघर्षों की एक लंबी फेहरिस्त है। रामा मौसम जी लिखते हैं-

वो तिनके-सी चाहे दिखती हैं मनके-सी
सबने झेले तूफ़ानों के आघात कभी

आगे राजीव कुमार कहते हैं-

दिल की करे तो आज भी कहता है ज़माना
लड़की को ख़ानदान की परवाह नहीं है

अवधेश प्रताप सिंह 'संदल' की पीड़ा है-

अजब औरत है कुछ कहती नहीं है
कहाँ किसने उसे कितना सताया
_____________

अब यकीं करना नहीं ऐ बेटियो तुम
आदमी ये आदमी है कौन जाने

कामकाजी महिलाओं की तो और गाढ़ी स्थिति है कि वे घर में होती है तो कार्यस्थल की ज़िम्मेदारियाँ दिमाग़ को मथती रहती हैं और दफ्तर में होती हैं तो उनका मन मस्तिष्क घर में अटका रहता है। अशोक कुमार फुलवारिया जी ने ऐसी ही स्थिति पर कहा है-

चूल्हा-चौका, फ़ाइल-बच्चे, दिन भर उलझी रहती है
वो घर में और दफ़्तर में आधी-आधी रहती है

ए० एफ० नज़र यानी अशोक कुमार फुलवरिया का एक और कुछ इसी तरह का बयान है-

क़तरा-क़तरा मोती बनकर निकला आँखों की सीपी से
सात समुंदर सातों दरिया आँखों में भर लाई बिटिया

प्रेमरंजन अनिमेष जी बड़े कड़े शब्दों में पितृसत्ता को कठघरे में खड़ा करते हैं कि क्यों स्त्रियों पर हमेशा पुरुषों का एकाधिकार रहा-

ये धर्म, ये इतिहास बनाये गये कैसे
माँ हो के भी क्यों इनकी बपौती रही औरत

इस सबके बावज़ूद कुछ ऐसी साहित्यिक रचना ग़ज़ल के रूप में हैं, जो उन लैम्प पोस्ट अथवा माइल स्टोन पर तवज्जो दिलाती हैं, जिन्हें स्त्रियों ने अपने सशक्तीकरण के उदात्त संघर्षों से निर्मित किया है। मसलन योगेंद्र दत्त शर्मा जी की ग़ज़ल की कुछ शेर-

कई सदियों पुराने पेड़ को झकझोर आई है
वो बाधाओं को कोसों दूर पीछे छोड़ आई है

वो औरत है, उसे जरख़ेज़ धरती ही सुहाती है
वो हर बंजर ज़मीं की हर परत को गोड़ आई है

नये युग की है वो, परहेज़ है उसको ग़ुलामी से
वो पाबंदी के सारे सख़्त बंधन तोड़ आई है

वो आई है बहरसूरत, पड़ेगा फ़र्क क्या इससे
कि बे-आवाज़ आई है या करती शोर आई है

उजाले उसके क़दमों में बिछे हैं करने अगवानी
वो पहले ही अंधेरों की सतह को फोड़ आई है

उसी तरह शेखर अस्तित्व की छोटी बहर की यह ग़ज़ल लड़कियों की अस्मिता को संबोधित है, जो उसकी कोमल ,माधुर्यपूर्ण उपादेयता को सारतः रेखांकित करने का प्रयास है-

गुलमोहर-सी लड़कियाँ
काँच घर-सी लड़कियाँ

शोख़ भी, गंभीर भी
सप्तस्वर-सी लड़कियाँ

खिलखिलाकर मुड़ गयीं
रहगुज़र-सी लड़कियाँ

ज़िंदगी है इक ग़ज़ल
तो, बहर-सी लड़कियाँ

खेत है सृष्टि अगर
तो नहर-सी लड़कियाँ

पगड़ियों से क़ीमती
हैं चुनर-सी लड़कियाँ

धूप का अस्तित्व हैं
ये सहर-सी लड़कियाँ

बहरहाल स्त्री केंद्रित ग़ज़ल की यह यात्रा तब पूरी होगी, जब वह स्त्रियों के भीतर पुंसवादी संस्कार व पितृसत्तात्मक मूल्यों के पवित्र स्वीकार्य के विरुद्ध उससे उन्मुक्ति का संसार रचेगी। जब ग़जलें अपने लहजे में स्त्रियों के बीच स्थापित उन रूढ़ संस्कारों और परंपरागत भावबोध को अपने वैचारिक संघर्ष के दायरे में लाएँगी, जिनसे पितृसत्तात्मक मूल्यों का पवित्र स्वीकार्य को शाश्वत आधार मिलता है। ग़ज़ल को पुरुष-व्यवस्था के तहत हज़ारों सालों से चली आ रही 'छद्म महिमामयी सनातनी संस्कृति' के प्रभामंडल के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए, जो 'औरत के लिए नैतिकता, मर्यादा और लज्जाशीलता निभाने का धर्म' है, जिसका बेहतर से बेहतर निर्वहन उनके गुणवत्तापरक आचरण का प्रमाण बनता है, धर्मांधता के ख़िलाफ़ बग़ावत से ही आत्ममुक्ति का मार्ग स्त्रियों के लिए ही नहीं बल्कि उन समस्त जन के लिए निकलता है, जो पितृसत्तात्मक मूल्यों की ज़ंजीर से जकड़े हुए हैं। स्त्री केंद्रित ग़ज़ल को जन केंद्रित ग़ज़ल के साथ एकाकार कर देने से एक सार्थक उपसंहार का सृजन होगा और ग़ज़ल की कालजयी भूमिका तय होगी। जड़मूल्यों से विद्रोह की ग़ज़ल समय की बड़ी माँग है और स्त्री प्रसंग में तो यह सबसे बड़ी माँग है।

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रचनाकार परिचय

अनामिका सिंह

ईमेल : yanamika0081@gmail.com

निवास : शिकोहाबाद (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 09 अक्टूबर, 1978
जन्मस्थान- इन्दरगढ़, ज़िला- कन्नौज (उत्तरप्रदेश)
माता- श्रीमती देशरानी
पिता- श्री श्रीकृष्ण यादव
शिक्षा- परास्नातक विज्ञान एवं समाज-शास्त्र, बी० एड
संप्रति- शिक्षा विभाग उत्तर प्रदेश में कार्यरत
लेखन विधाएँ- नवगीत, ग़ज़ल, छंद (वार्णिक एवं मात्रिक), आलेख आदि।
प्रकाशन- नवगीत संग्रह 'न बहुरे लोक के दिन' प्रकाशित। अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नवगीत, दोहे एवं ग़ज़लों प्रकाशन।
सम्पादन- सुरसरि के स्वर (साझा छंद संकलन), आलाप (समवेत नवगीत संकलन)। 'अंतर्नाद' साहित्यिक पत्रिका सम्पादन। 'कल्लोलिनी' साहित्यिक पत्रिका का सह सम्पादन।
पूर्व सम्पादक/संचालक- वागर्थ (नवगीत पर एकाग्र साहित्यिक समूह)
सम्पादक/संचालक- 'कंदील' (नवगीत पर एकाग्र साहित्यिक समूह)
संपर्क- स्टेशन रोड, गणेश नगर, शिकोहाबाद, ज़िला- फ़िरोज़ाबाद (उत्तरप्रदेश)- 283135
मोबाइल- 9639700081