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कोई रचनाकार किसी दूसरे रचनाकार का विकल्प हो ही नहीं सकता- डॉ० भावना

कोई रचनाकार किसी दूसरे रचनाकार का विकल्प हो ही नहीं सकता- डॉ० भावना

डॉ० भावना हिंदी की ग़ज़ल में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। आप एक ग़ज़लकार, ग़ज़ल आलोचक एवं संपादक के रूप में लगातार सक्रिय हैं तथा साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। महिला दिवस के अवसर पर हिंदी की इस उल्लेखनीय महिला रचनाकार के साथ युवा आलोचक ज़ियाउर रहमान जाफ़री ने इनके लेखकीय एवं व्यक्तिगत जीवन तथा ग़ज़ल के विभिन्न पक्षों को लेकर एक अच्छी बातचीत की। प्रस्तुत है उनका पूरा संवाद।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- आप उस सफ़र के बारे में बताएँ, जहाँ से आपने ग़ज़ल लिखना शुरु किया।
डॉ० भावना- दरअसल जब भी ग़ज़ल लेखन की शुरुआत की बात चलती है तो मन में कोई फूल-सा खिल उठता है। वह वक्त शायद 1986-87 का रहा होगा! मैं अपनी माँ डाॅ० शांति कुमारी तथा अपने दो बड़े भाइयों के साथ शिवहर (बिहार का अति पिछड़ा जिला) में रहा करती थी। मेरी माँ उन दिनों शिवहर बालिका उच्च विद्यालय की प्रधानाध्यापिका थीं। हम लोग वहाँ छोटी रानी साहिबा कैंपस में स्थित किराए के मकान में रहते थे। बड़ी रानी साहिबा की पौत्री हमेशा अपने संबंधियों से मिलने आया करती थीं। उस समय मैं आठवीं कक्षा में थी। मेरी मुलाकात रानी साहिबा की पौत्री से हुई और उन्होंने अपने ग़ज़ल प्रेम की बात मुझसे कही। हालाँकि उनकी रुचि साहित्य में नहीं थी परंतु ग़ज़ल सुनना उन्हें बेहद प्रिय था। उनके इस प्रेम ने मुझे भी ग़ज़ल सुनने को प्रेरित किया और मैं रेडियो पर अक्सर ग़ज़ल सुनने लगी। 'ऐ मेरी ग़ज़ल जाने ग़ज़ल', 'तू मेरे साथ ही चल या ऐसे गुमसुम क्यों रहते हो, किन सोचो में गुम रहते हो' इत्यादि। बाद के दिनों में हमने रामचंद्र विद्रोही, जयप्रकाश मिश्र जी के साथ मिलकर ग़ज़ल की बारीकियों को सीखना शुरू किया। बहुत कोशिश के बावजूद हम क़ाफ़िया, रदीफ़ से अधिक नहीं सीख पाये। 2013 में ग़ज़ल के छंदशास्त्री दरवेश भारती जी से दूरभाष पर मेरी बातचीत हुई और मैंने उन्हें अपनी कुछ ग़ज़लें भी भेजीं। सच कहूँ तो ग़ज़ल के अरूज को समझने में उनके द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'ग़ज़ल के बहाने' का बड़ा योगदान है। इसके बाद से ग़ज़ल के प्रति मेरी दीवानगी जुनून की हद तक पहुँच गयी। मैंने गालिब, मीर, फैज, फिराक, दाग़, दुष्यंत के साथ-साथ समकालीन ग़ज़लकारों को भी मनोयोग से पढ़ा। धीरे-धीरे मेरी ग़ज़लें भी निखरने लगीं।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- साहित्य की इतनी सारी विधाओं में ग़ज़ल ने ही आपको क्यों मुतासिर किया?
डॉ० भावना- साहित्य की इतनी सारी विधाओं में मुझे ग़ज़ल ने सबसे ज़्यादा मुतासिर किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। दरअसल ग़ज़ल सांकेतिकता को महत्व देती है। जब ग़ज़ल में संकेत से बात कहे जाने की परंपरा शुरू हुई, उस समय ग़ज़ल राज दरबारों की भाषा हुआ करती थी, जहाँ संकेत से बातें करना ही उचित था। लेकिन इस संकेत से बात करने पर ग़ज़ल की कहन और ख़ूबसूरत होती चली गई। इसे लोग शेरों की मज़बूती के लिए इस्तेमाल करने लगे। ग़ज़ल एक वार्णिक छंद है। ये दोहे की तरह मात्रा के दीर्घ ,लघु रूप के प्रति अति कठोर नहीं है। यहाँ कभी-कभी दीर्घ रूप को गिराने की छूट भी होती है, जिसकी वजह से यह दोहे की अपेक्षा ज़्यादा मुलायम और लचीली होती है। और यही लचीलापन ग़ज़ल को संगीतात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीय भी बनाती है। ग़ज़ल का प्रत्येक शेर एक कविता है।

ग़ज़ल में हम गंभीर से गंभीर बात सिर्फ दो मिसरों में कह देते हैं और वह लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाती है। ग़ज़ल में रुचि रखने वाला हर व्यक्ति यह जानता है कि ग़ज़ल की बाहरी और भीतरी दो संरचना होती है। बाहरी संरचना में हम रदीफ और क़ाफ़िया की पाबंदी को लेकर शेर के वज्न को जाँचने-परखने की कोशिश करते हैं, वहीं भीतरी संरचना में विचार संवेदना, कल्पनाशीलता इत्यादि के द्वारा हम शेर कहते हैं। आज की ग़ज़लें अपने विषय संबधी विविधताओं की वजह से हिंदी कविता के समानांतर जगह बनाने की ओर अग्रसर हैं। आज की ग़ज़लों में विधवाओं की समस्या से लेकर भूमंडलीकरण, पर्यावरण , ग्लोबल वार्मिंग, जनसंख्या विस्फोट, विकलांगता विमर्श इत्यादि ज्वलंत मुद्दों को भी शामिल किया जाने लगा है। ग़ज़ल गागर में सागर भरने की प्रवृति की वजह से पाठक को सीधे-सीधे अपनी तरफ खींचने में पूर्ण समर्थ है। यही वजह है कि मैं साहित्य की सारी विधाओं में ग़ज़ल की ओर मुखातिब हुई।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- लेखक अपने आपको एक कृति में भी अभिव्यक्त कर सकता है, आख़िर ऐसी क्या वजह रही कि शब्दों की क़ीमत, अक्स कोई तुम-सा, धुंध में धूप जैसी कई लगातार कृतियों की रचना आपको करनी पड़ी?
डॉ० भावना- आपने ठीक कहा कि लेखक अपने आपको एक कृति से भी अभिव्यक्त कर सकता है। परन्तु मेरी अब तक अक्स कोई तुम-सा, शब्दों की क़ीमत, चुप्पियों के बीच, मेरी माँ में बसी है, धुंध में धूप सहित पाँच ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हैं। कोई भी रचनाकार अपनी रचना के द्वारा अपने समय को लिखता है और लगातार ख़ुद को माँजता है। यह सही है कि गुलेरी जी अपनी एक कहानी के द्वारा ही याद किये जाते हैं तथा दुष्यंत अपने एक मात्र ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' की वजह से हिंदी ग़ज़ल में नयी लकीर खींचने में सफल हुए। पर आज का जो समय है, उसमें सिर्फ एक कृति से हम अपने आपको अभिव्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि हर दिन, हर पल एक नया चैलेंज हमारे सामने आकर खड़ा होता है और अलग-अलग समस्याओं का हमें सामना करना पड़ता है। दुष्यंत जब अपनी ग़ज़लें कह रहे थे, उस समय आपातकाल था और उसके विरोध में उन्होंने अपनी ग़ज़लें कहीं। लेकिन आज का जो समय है, उसमें हम प्रत्येक दिन अलग-अलग समस्याओं से दो-चार होते हैं। कभी सूखा हमें तबाह करता है तो कभी बाढ़ की विभीषिका हमें झेलनी होती है। कहीं अत्यधिक कीटनाशक के प्रयोग से मनुष्यों को भयंकर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।अभी ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पहाड़ स्खलन होने लगे हैं। आज कई ऐसी समस्याएँ हैं, जो हमारे सामने मुँह बाए खड़ी हैं। ऐसे में एक संग्रह के बाद इतिश्री कर देना, अपने दायित्व से मुँह मोड़ना है।
मेरे विचार से हम जब तक लिखने में समर्थ हैं, हमें अलग-अलग समस्याओं को केंद्र में रखकर अपनी रचनाएँ लिखते रहना चाहिए और अपनी रचनाधर्मिता के द्वारा समाज के मार्गदर्शन का सतत प्रयास भी करते रहना चाहिए।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- ग़ज़ल के कुछ आलोचकों का विचार है कि आपकी कृति 'मेरी माँ में बसी है' के शीर्षक में अधूरेपन का एहसास होता है। आप क्या कहेंगी इस पर?
डॉ० भावना- आपने सही कहा कि मेरी कृति 'मेरी माँ में बसी है....' को लेकर कुछ आलोचक यह कहते हैं कि इसका शीर्षक अधूरा-सा है लेकिन अगर आप उसके आवरण पर गौर करेंगे तो आप पाएँगे कि 'मेरी माँ में बसी है....' के बाद 3 डाॅट हैं और यह 3 डॉट यह दिखाते हैं कि माँ के भीतर कई चीज़ें समाहीत हैं, जैसे कि छाया, मंज़िल, शक्ति, आशा ,आवाज़, चुनौती, नदी इत्यादि। मतलब एक माँ में कई सारे गुण समाहित हैं, जो इसमें कवर के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है और जहाँ तक मुझे याद है कि आपने ही कहीं इस संग्रह की समीक्षा करते हुए कहा था कि यह अपनी तरह का पहला संग्रह है, जहाँ कवर में मुँह दिखाई की परंपरा की शुरुआत हुई है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- हिंदी ग़ज़ल में अब तक दुष्यंत का कोई विकल्प नज़र नहीं आता। 'साये में धूप' की रचना 1975 में हुई। तबसे लेकर अब तक लगभग 50 वर्षो में कोई एक कृति भी उस जोड़ का न आना, क्या हिंदी ग़ज़ल के प्रति आपको आश्वस्त करता है?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल में अब तक दुष्यंत का कोई विकल्प उभरकर नहीं आता प्रतीत होता है, यह बात कुछ हद तक सही भी है और कुछ ग़लत भी। मेरे विचार से कोई भी रचनाकार किसी दूसरे रचनाकार का विकल्प हो ही नहीं सकता क्योंकि हर रचनाकार अपने समय को लिखता है। मैंने पहले ही कहा कि दुष्यंत जब लिख रहे थे तो उस समय आपातकाल का दौर था और उस वक्त जनता के दुख, दर्द ,आक्रोश, बेचैनी को लिखने वाला कोई नहीं था। दुष्यंत हिंदी कविता से आते थे और इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी कविता का फलक बहुत बड़ा है। उन्हें पता था कि अगर इस कथ्य के साथ मैं हिंदी ग़ज़ल में लेखन करता हूँ तो क़ामयाबी मिल सकती है। उन्होंने 'साये में धूप' की भूमिका में स्वयं कहा है कि वह हिंदी और उर्दू के पचड़े में न पड़ते हुए हिंदुस्तानी जुबान में शेर कहना पसंद करते हैं। उन्होंने आम जनता की सारे दुखों, तकलीफों को समझा और उसे ज़ुबान दी। वे अच्छी तरह से जानते थे कि हिंदुस्तान के जनमानस का रुझान हमेशा छंदों की ओर रहा है। दुष्यंत से पहले हिंदी ग़ज़ल में इस तरह के कथ्य के साथ लेखन नहीं हुआ था। अतः जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया और दुष्यंत रातों-रात हिंदी ग़ज़ल के प्रवर्तक ग़ज़लकार बन गए। लेकिन यह कहना कि अभी तक दुष्यंत का कोई विकल्प नहीं है, मुझे मुनासिब नहीं लगता क्योंकि सभी रचनाकार अपने तरीके से अपने समय को लिखने के लिए प्रतिबद्ध हैं और ऐसा कर भी रहे हैं। यह तो काल निर्धारण करेगा कि किसकी कितनी क्षमता है और किसकी पहुँच कहाँ तक जा पाती है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- हम कई लेखकों को सिर्फ इसलिए जानते हैं कि उनकी रचना हमारे सिलेबस में है। आपकी ग़ज़लें भी पाठ्यक्रम में शामिल हैं। एक लेखक का पाठ्यक्रम में शामिल होना कितना महत्वपूर्ण होता है?
डॉ० भावना- अच्छा सवाल है। दरअसल जब हम किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं तो हमारी पहुँच ज़्यादा से ज़्यादा विद्यार्थियों के पास होती है और यह विद्यार्थी जब उन रचनाओं का पाठ करते हैं तो कहीं न कहीं उसका संचार उसकी अगली पीढ़ियों तक भी होता है। तो अगर मैं इसे एक वाक्य में कहूँ कि पाठ्यक्रम में लगने भर से किसी भी रचना की पहुँच काफी दूर तक जाती प्रतीत होती है तो उसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- आपको हालिया दिनों में ही बिहार सरकार का 'महादेवी वर्मा पुरस्कार' मिला है। किसी पुरस्कार से लेखक को कितना संबल मिलता है?
डॉ० भावना- यह सच है कि हाल के दिनों में मुझे 'महादेवी वर्मा पुरस्कार' से सम्मानित किया गया है। मेरे ख़याल से जब कोई रचनाकार को उसके साहित्य में किये गए कार्य की वजह से सम्मानित किया जाता है तो कहीं न कहीं उसकी रचनात्मक ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है और उसे अब तक के साहित्य में किए गये कार्य के प्रति थोड़ा संतोष होता है। मेरे ख़याल से जब भी कोई सरकारी या गैर सरकारी पुरस्कार किसी रचनाकार को प्राप्त होता है तो उसके भीतर एक ऊर्जा का संचार होता है। साथ में उसे इसका भी संतोष होता है कि उसके द्वारा किये गये कार्य को मान्यता मिल रही है और वह साहित्य के फ़लक पर एक उद्देश्य के साथ अपनी जगह बनाने में क़ामयाब हो रहा है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- आपकी कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें भी आयी हैं, ख़ासकर 'कसौटियों पर कृतियाँ' और 'हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम'। इन पुस्तकों के बारे में बताएँ। आपकी नज़र में ग़ज़ल की कसौटियाँ क्या हैं?
डॉ० भावना- 'हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम' मेरी एक आलोचनात्मक कृति है, वहीं 'कसौटियों पर कृतियाँ' समीक्षात्मक। पुस्तक 'कसौटियों पर कृतियाँ' में मैंने 35 महत्वपूर्ण ग़ज़ल-संग्रहों की समीक्षा की है। कसौटी मेरे ख़याल से किसी भी रचना का नीर-क्षीर विवेचन करना होता है और जब हम किसी भी रचना को उसकी कसौटी पर कसते हैं तो ग़ज़ल में सबसे पहले उसके शिल्प पक्ष को देखते हैं क्योंकि शिल्प के बगैर कोई भी ग़ज़ल, ग़ज़ल हो ही नहीं सकती है। किसी भी रचना को पहले उसकी बुनावट और बनावट में ग़ज़ल का स्वरूप धारण करना होगा। इसके बाद हम उसका कथ्य देखते हैं और कथ्य के बाद फिर उसकी ग़ज़लियत। यूँ कहिए कि उसकी ग़ज़लों में कसावट को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेते हैं कि ग़ज़ल अपने कहन या फिर संपूर्णता में किस तरह की है और ग़ज़लकार ने ग़ज़ल को साधने में कितनी महारत हासिल की है। कसौटियों पर कृतियाँ में मैंने बस इसी को ध्यान में रखकर उसकी विवेचना की है। जहाँ तक मेरा मानना है कि अभी जहाँ ग़ज़ल है, वहाँ सिर्फ और सिर्फ उसकी आलोचना करके हम कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर लेंगे क्योंकि जब हम किसी चीज़ की सिर्फ और सिर्फ आलोचना करते हैं तो कहीं न कहीं वह पूर्वाग्रह से ग्रसित होता है। कोई भी चीज़ अपनी संपूर्णता में बिल्कुल ही ख़राब हो ही नहीं सकती। कुछ न कुछ अच्छाई उसमें ज़रूर होती है। बस हमें उस पर ध्यान रखना होता है कि कितनी चीज़ें उसमें से अच्छी निकलकर आ रही हैं। जहाँ अच्छाई है, वहाँ बुराई का होना तय है और जहाँ बुराई है, वहाँ अच्छाई भी ज़रूर होती है। बस हमें अपने नज़रिए से उन चीज़ों को देखना होता है और उसका विवेचन करना होता है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- हिंदी साहित्य के इतिहास की किसी भी पुस्तक में हम ग़ज़ल पर तज़किरा कब तक पाएँगे?
डॉ० भावना- यह हिंदी ग़ज़ल का दुर्भाग्य है कि हिंदी साहित्य के इतिहास लिखने में इसे अभी तक उपेक्षा का ही सामना करना पड़ा है। डॉ० रामचंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास हो या डॉ० नगेंद्र का। किसी ने भी छान्दस विधा के रूप में हिंदी ग़ज़ल की चर्चा तक करना मुनासिब नहीं समझा जबकि हिंदी ग़ज़ल इनके इतिहास लिखने के पूर्व से ही काफी लोकप्रिय विधा रही है। हाँ, डॉ० मोहन अवस्थी ने हाल ही में अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य के इतिहास' में हिंदी ग़ज़ल पर एक पृष्ठ लिखा है, जो सुखद है। धीरे-धीरे ही सही हमें मान्यता मिल रही है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- समकालीन हिंदी ग़ज़ल की कुछ पॉजिटिव और कुछ निगेटिव बातें बताएँ।
डॉ० भावना- गोपालदास नीरज का यह वक्तव्य कि यदि शुद्ध हिंदी में ग़ज़ल लिखनी है तो हमें उसका वह स्वरूप तैयार करना होगा, जो दैनिक जीवन की भाषा और कविता की भाषा की दूरी को मिटा सके। मैं उनके इस कथन से बिल्कुल सहमत होते हुए यह कहना चाहूँगी कि ग़ज़ल न ही संस्कृतनिष्ठ भाषा को पसंद करती है और न ही अत्यधिक उर्दू फ़ारसी वाली शब्दावली को। ग़ज़ल एक बेहद मुलायम भाषा से निर्मित होती है, जो अपने प्रवाह के अनुसार शब्द स्वयं ढूँढ लेती है, जैसे पहाड़ों से उतरती हुई नदी हहराती हुई अपना रास्ता स्वयं बनाती चलती है। हिंदी ग़ज़लकार को भाषा के प्रति सचेत रहना चाहिए। हिंदी ग़ज़ल आज सबसे लोकप्रिय विधा है। चूँकि यह संकेतों से बात करने की हिमायती है इसलिए इसे आज के संश्लिष्ट समय में अभिधा में बात करने की छूट मिलनी ही चाहिए। यह समय की माँग है और ग़ज़लकार इसे अपना भी रहे हैं। समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन को, जो विधा आत्मसात करती है, वही जीवित रहती है पर शिल्प से समझौता मुझे कत्तई स्वीकार नहीं।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- ग़ज़ल के लिए शिल्प, कथ्य और भाषा का क्या महत्व है?
डॉ० भावना- मैंने पूर्व में ही इस प्रश्न की बाबत कुछ बातें विस्तार में बताई हैं। संक्षेप में ,आप इस प्रकार समझ सकते हैं- ग़ज़ल के लिए शिल्प उसका शरीर है, तो कथ्य उसकी आत्मा। जिस प्रकार शरीर और आत्मा को साकार रूप में आने के लिए माँ के गर्भ की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार कथ्य और शिल्प को भाषा के गर्भ में पल्लवित पुष्पित होना होता है ताकि ग़ज़ल में ग़ज़लियत क़ायम हो सके।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- जब कोई स्त्री के नज़रिये से आपकी रचना का मूल्यांकन करता है तो आपको कैसा लगता है?
डॉ० भावना- सच कहूँ तो बहुत बुरा लगता है। लेखक लेखक होता है, वो स्त्री-पुरुष नहीं होता। जब नारी आज हर क्षेत्र में क़दम से क़दम मिलाकर साथ चल रही है, बाहर के काम सम्भाल रही है, चुनौतियों का सामना कर रही है, ऐसे में उसकी मात्र 'नारियों' से तुलना करना एक घिसी-पिटी सोच है। पुरुष और नारी दोनों के अनुभव आज एक जैसे हैं इसलिए रचनाओं की विषय-वस्तु भी एक जैसी है। लेखन की भी महिलाओं को भरपूर आज़ादी है और पुरुषों के साथ नारी-विमर्श की भी। मेरी पुस्तकों में, आलेखों में, आलोचनाओं में, समीक्षाओं में पुरुष लेखकों की भरपूर शुमारी है। फिर भी मेरे समग्र लेखन को कोई महिला ग़ज़लकार के नज़रिये से देखे तो बुरा लगना स्वाभाविक है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- हिंदी ग़ज़ल के कुछ नाम, जो आपको भरोसा दिलाते हों।
डॉ० भावना- यह सवाल सबसे कठिन है। जिनका नाम छूटता है, वही नाराज़ हो जाते हैं पर एक साथ सभी का ध्यान हमें रहे ही, मुमकिन नहीं है। हाँ, उनमें से कुछ ज़रूरी नाम मैं आपको बता रही हूँ। अनिरुद्ध सिन्हा, वशिष्ठ अनूप, हरेराम समीप, विज्ञान व्रत, ओमप्रकाश यती, ज्ञान प्रकाश विवेक, कमलेश भट्ट कमल, विनय मिश्र, धर्मेंद्र गुप्त 'साहिल', विनोद गुप्ता 'शलभ', डाॅ० राकेश जोशी, दिनेश प्रभात, प्रेम किरण, जियाउर रहमान जाफ़री, के० पी० अनमोल, पंकज कर्ण, अभिषेक सिंह, राहुल शिवाय, सोनरूपा विशाल, गरिमा सक्सेना, मालिनी गौतम, अविनाश भारती, कुमार विजय इत्यादि।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- मंचों के माध्यम से हिंदी ग़ज़ल का कितना भला हो सकता है?
डॉ० भावना- मंचों के माध्यम से हिंदी ग़ज़ल का भला होता हुआ मुझे नहीं दिखाई पड़ता है। क्योंकि मंच की अलग दुनिया है और पत्र-पत्रिकाओं की अलग। मंच पर शोहरत के साथ वाह-वाही और पैसे मिलते हैं। पैसों के लिए लोग सस्ती रचनाओं का पाठ करने लगे हैं, जो बेहद दु:खद है। पहले ऐसा नहीं था। आज मंच का हाल बहुत बुरा है। याद रखिए, सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। लेखन का ग्लेमराइजेशन उचित नहीं है। कुछ इश्किया शायरी की और उसे तरन्नुम में गा करके रातों-रात स्टार हो जाना भले आसान हो पर स्थायी नहीं। हमें स्थायी सफलता के लिए कठोर साधना करनी होती है और दिन-रात की सतत मेहनत से ही अपनी मंज़िल को पाया जा सकता है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- कुछ छात्र आपकी ग़ज़लों पर शोध कर रहे हैं। जब आप पहली बार पी० एचडी का हिस्सा बनीं तो आपको कैसा महसूस हुआ?
डॉ० भावना- पी० एचडी का हिस्सा होना किसी भी रचनाकार के लिए गौरव का विषय है। जब हमारी रचनाएँ शोध का विषय बनती हैं तो हमारी रचनाओं का कैनवास काफी बड़ा हो जाता है। उसकी अच्छाई और कमियाँ दोनों की समान रूप से चर्चाएँ होती हैं। मुझे जब पहली बार पता चला कि मेरी ग़ज़लों पर शोध हो रहा है तो बेहद ख़ुशी हुई। लिखने की सार्थकता भी यही है।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- क्या आपको नहीं लगता कि ग़ज़ल के शोध के नाम पर सिर्फ एक-दूसरे की कॉपी हो रही है?
डॉ० भावना- यह बात सही है कि साहित्य की हरेक विधा में शोध के नाम पर आजकल एक-दूसरे की कॉपी की जाती है, जो बेहद अफ़सोसजनक है। मुझे लगता है कि नये विषय और नये रचनाकार पर शोध होने से स्वतः कॉपी पेस्ट का मामला समाप्त हो जाएगा और शोध कार्य के लिए मेहनत करनी ही होगी।

ज़ियाउर रहमान जाफ़री- अंत में यह बताएँ कि आप भविष्य में और क्या लिखने का इरादा रखती हैं। कभी आत्मकथा या उपन्यास भी लिखने का इरादा है क्या?
डॉ० भावना- भविष्य में क्या लिखना चाहती हूँ उसकी बाबत मैं कहना चाहूँगी कि मेरे भीतर बहुत कुछ कुलबुला रहा है। मुझे नहीं पता कि वह किस तरह से सृजित होगा। वे चीज़ें ग़ज़ल के फॉर्म में आएँगी या आत्मकथा, कहानी और उपन्यास के फार्म में पर इतना सच है कि मेरे भीतर एक अलग तरह की बेचैनी है और वह बेचैनी किसी सृजन के पहले का संकेत है।

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रचनाकार परिचय

ज़ियाउर रहमान जाफ़री

ईमेल :

निवास : नवादा (बिहार )

नाम- डॉ.ज़ियाउर रहमान जाफरी
जन्मतिथि-10 जनवरी 1978
जन्मस्थान- भवानन्दपुर,बेगूसराय, बिहार
शिक्षा- एम.ए. (हिन्दी, अंग्रेजी, शिक्षा शास्त्र)बीएड,पत्रकारिता, पीएचडी हिन्दी, यू जी सी नेट (हिन्दी )
संप्रति- सरकारी सेवा

प्रकाशित कृतियाँ-
1. खुले दरीचे की खुशबू- हिंदी गजल
2. खुशबू छू कर आई है- हिंदी गजल
3.परवीन शाकिर की शायरी- हिंदी आलोचना
4.ग़ज़ल लेखन परंपरा और हिंदी ग़ज़ल का विकास-हिन्दी आलोचना
5. हिंदी गजल :स्वभाव और समीक्षा - हिंदी आलोचना
6. चांद हमारी मुट्ठी में है- हिंदी बाल कविता
7. आखिर चांद चमकता क्यों है- हिंदी बाल कविता
8. मैं आपी से नहीं बोलती -उर्दू बाल कविता
9. चलें चांद पर पिकनिक करने- उर्दू बाल कविता
10. लड़की तब हंसती है- संपादन

पुरस्कार एव सम्मान-
आपदा प्रबंधन पुरस्कार,बिहार शताब्दी सम्मान,यशपाल सम्मान तथा शाद अजीबाबादी साहित्य एवं समाज सेवा सम्मान समेत पचास से अधिक सम्मान एवं पुरस्कार

संपादन एवं पत्रकारिता-
संवादिया( बाल पत्रिका)जागृति, निगाह, चल पढ़ कुछ बन, साहित्य प्रभा आदि में सहयोगी संपादक एवं दैनिक हिंदुस्तान समेत कई पत्र -पत्रिकाओं में पत्रकारिता। 

विशेष-
. आकाशवाणी पटना दरभंगा भागलपुर, डीडी बिहार,ई टीवी बिहार आदि से नियमित प्रसारण
. बाल कविता नासिक के पाठ्यक्रम में शामिल
. पीएचडी उपाधि हेतु कई शोधार्थियों द्वारा ग़ज़ल साहित्य पर शोध
. देश भर के कई सेमिनारों और मुशायरों में शिरकत

पता-
C/O-एस. एम इफ़्तेख़ार काबरी
(पेशकार )
शरीफ कॉलोनी,बड़ी दरगाह, नियर बीएसएनएल टॉवर,पार नवादा
ज़िला -नवादा(बिहार) 805112
मोबाइल-6205254255
मोबाइल -9934847941