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अनिता रश्मि की कहानी 'रिश्ते यूँ ही नहीं खोते'

अनिता रश्मि की कहानी 'रिश्ते यूँ ही नहीं खोते'

माँ ने पायल से कहा था, "इस रिश्ते का कोई वजूद है? क्या नाम देगी? कभी किसी ने पूछा तो खुलकर बता पाएगी? और कभी अलग होना पड़े, उसकी किसी चीज़ पर हक़ रहेगा, दावा कर पाएगी? बच्चे को बाप का नाम दे...?"

उसकी आँखें! एक जोड़ी आँखें! उसकी आँखों में बहुत ज़्यादा कशिश, मुस्कुराती-खिलखिलाती आँखें हैं उसकी, सब कहते। कुछ सुनती-गुनती, कुछ बतियाती। बहुत-बहुत बोलते नयन! सागर-सी गहराई, नमकीन और नदी-सी चपलता, मिठास, दोनों एक साथ उन आँखों में। स्नेह से लबालब भरी आँखों से जब वह किसी को देखती, कुछ लोग धोखा खा जाते।

सुमंत भी खाया था। उसे लगा, यह युवती, जो पार्क में मेडिटेशन और जॉगिंग करती है, ज़रूर मुझे बेहद चाहती है। उसके नेत्रों ने चुगली खाई है। पार्क में वह ठीक साढ़े पाँच बजे सुबह पहुँच जाती। सुमंत भी पाँच पंद्रह या पाँच बीस पर वहाँ वाकिंग कर रहा होता। जब भी पास से गुज़रता, वह पतली-दुूबली, आकर्षक नयन नक्शवाली पायल, एक नज़र उठाकर अवश्य देखती। दो महीने, दस दिन से यह सिलसिला चल रहा था लेकिन अभी तक एक बात नहीं हुई थी। 'हाय! हैलो!' तक नहीं।

बस समंदर में नदी-सा मिल, वह एक सपना पालने लगा था। पायल की स्वप्निल, प्यारी आँखों में उसे प्यार का छलकता सागर नज़र आ गया था। इन चक्षुओं का क्या करे पायल, कितने तो धोखा खा चुके हैं। सुमंत की एक्टिविटि से उसके मन की थाह पा चुकी थी। इंकार भी नहीं कर पा रही थी। जब इज़हार ही नहीं, इंकार कैसा? वह आँखें चुराने लगी हमेशा की तरह। जब-जब कंफ्यूजन महसूस किया, बस आँखें चुराने लगती। अब मन भारी पड़ रहा था। न चाहते हुए भी उधर खिंची चली जाती।

छः फुटे सुमंत का चौकोर चेहरा, घने काले बालों के बीच सफेद मोटी धार-सी रंगाई, एक कान में छोटा-सा टाॅप, वृषभ कंधे और केशरी-सी मर्दानी चाल, जगह-जगह से फटी टाइट जिंस-टीशर्ट में कसा बदन अक्सर उसके सपनों में आता और सपनों से उसे जगा देता। एक दिन पायल अनुलोम-विलोम कर रही थी कि पीछे एक आहट-सी हुई। पायल पलटकर देखने लगी। सुमंत था। उसने बैठने की अनुमति माँगी। पायल का मुँह खुला का खुला। मुँह में दही जम गया। इतनी चुप रहनेवाली वह नहीं थी। बल्कि वाचालों की गिनती में ही आती थी, आज पता नहीं क्या हुआ! सुमंत ख़ुद ही बैठ गया।
"कहाँ से हैं आप?"
उसने जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा।
"मैं आपको मेन रोड के कमला पी० जी० से डेली काॅलेज आते-जाते देखता हूँ।"
पायल के कान की लवों और गालों के गेहुँए रंग में रोली घुल गया। सर झुक गया। फिर भी पूछा, "आप मेरा पीछा करते हैं?"
"हाँ भी कह सकती हो, न भी...।" उसके कान ने सुना।
इच्छा हुई, तीखा जवाब दे मारे। वह कह रहा था "..मैं भी वहीं पास के ब्वाॅयज हाॅस्टल से आपके काॅलेज जाता हूँ।"
उसकी निगाहें सीधे सुमंत की निगाहों पर गिरीं। थोड़ा-सा गुस्सा, थोड़ी चिढ़, थोड़ा आश्चर्य और बहुत सारा वही। उसकी आँखों का जादू।
वह अपलक देखता रहा, चित्र लिखित-सा। थोड़ी देर में, "मैं भी वहीं पढ़ता हूँ। आपसे एक साल सीनियर।"
पढ़ाकू पायल ज़ोर से चौंकी।
"अब तक कभी दे...।" वह और कुछ कह नहीं सकी।
"आँख उठाकर चलतीं, हंडरेड परशेंट देख पातीं मिस...।" कस्बे के संस्कार और स्नेहिल आँखों के ताब की मारी पायल कुछ कह नहीं सकी।

कैसे पूरी तरह उधर खिंच गई, उसे एहसास तक नहीं हुआ। आहिस्ते-आहिस्ते, बहुत हौले-से वह मन के क़रीब आ चुका था। फिर तो दिन सुनहला, रातें रुपहली। मन के बसंत के खिलने के बावजूद उसे पता था, वह उस सिटी में पढ़ने के लिए आई है। उसने अपने लक्ष्य को भूले बिना सुमंत से मिलना जारी रखा। प से प्रारंभ होने वाले दोनों शब्द परवान चढ़ते रहे, पढ़ाई और प्रेम।

कैम्पस सलेक्शन होने पर सुमंत की ख़ुशी से ज़्यादा पायल को ख़ुश देखा जा सकता था। साथ ही, वह एक वर्ष पहले काॅलेज से निकल जाएगा, यह ग़म भी खाए जाता था। धीरे-धीरे पायल ने महसूसा शिद्दत से, उसकी दौड़ मियाँ की मस्जिद तक वाली हो गई है। क़दम कहीं और सायास उठाने की कोशिश करती, व्यर्थ। जब उठे क़दम, पहुँच जाए सुमंत के द्वार। पायल को मो० रफी के गाने सुनाकर कोई भी बेमोल ख़रीद सकता था और सुमंत ने वही किया। धीरे-धीरे पहले जां, फिर जाने-जां, फिर जाने-जानां।

एम० बी० ए० की फाइनेंस, एच० आर० की स्टूडेंट कब बिजनेस, मार्केटिंग के स्टूडेंट की शरीके-हयात बन गई, उस बहाव में उसे पता ही नहीं चला।

****

साल पर साल गुज़र रहे थे। ईश्वर को भी शायद नदी का यह बहाव पसंद था, दोनों को एक ही शहर में नौकरी लग गई। सब कहते हैं, वक्त के पंख होते हैं। लेकिन इन दोनों को लगता, मीठा समय अपनी पूरी मिठास के साथ हौले-हौले बीत रहा है। मिश्री की तरह धीरे-धीरे घुल रहा है, कर्पूर की तरह नहीं। घर में ब्याह के लिए दबाव बनने लगा था। माँ-पापा का मानसिक दुराव पायल ने देखा था। कभी पटरी नहीं बैठी। माँ की हर कोशिश व्यर्थ हो जाती। पापा कभी माँ के मित्र नहीं बन पाए, हमेशा पति ही रहे। उठो, तो उठो। बैठो तो बैठो वाला रिश्ता। माँ ने बहुत दिन मन से निभाया। घुट्टी में पीकर जो आई थी सीख नानी की, कैसे जगहँसाई कराती। लेकिन इधर उसकी खीज साफ झलकते हुए देखी थी पायल ने। हरसंभव प्रयास करती माँ को हारते देख ही चुकी थी। पापा उनसे किसी भी स्थिति में ख़ुश नहीं दिखलाई पड़ते। सबसे मीठी बोली पर माँ से खार खाए रहते। पैर की जूती समझते हों जैसे। बस देर रात के अँधेरे में सामान्य मुस्कान होती चेहरे पर। माँ इससे भी चिढ़ी नज़र आने लगी थी।

फिर वह दिन भी आया, जब माँ ने अपना हारमोनियम पोंछकर बरामदे में रख दिया था। दूसरे दिन ख़ाली शाम में जैसे ही उसने आलाप लिया था, अद्भुत गुणी माँ के इस हुनर पर क़स्बाई मानसिकता ने ज़ोरदार वार किया था। हारमोनियम टूटकर आँगन में बिखरा पड़ा था, पापा माँ के सामने खड़े गुस्से से काँप रहे थे। माँ टूटकर रोई थी, बिखरकर भी। साथ में पायल भी।

पचपन की माँ अब भी अपने मन का करने के लिए स्वतंत्र नहीं थी। पापा बाहर चले गए थे। कहाँ, किसी को नहीं पता। चार दिन बाद वापसी हुई थी उनकी। उसी दिन लिया पायल ने एक निर्णय, जिसकी भूमिका किशोरावस्था से ही उसके अंदर आकार ले रही थी। उसी निर्णय का फल था, वह शादी के लिए हाँ नहीं कर रही थी।

****

फिर तो...। बुआ आई थी उससे मिलने। उसका फ्लैट, सजावट, गाड़ी देख कितनी ख़ुश हुई थी।
"तेरा तो कायाकल्प हो गया रे! अच्छा हुआ तू इस महानगर में पढ़ने आई। अपना फ्लैट, अपनी गाड़ी, वाह पायल!" उन्होंने अपने पटियाला सूट, प्लाजो और गाॅगल को ध्यान में रखते हुए आगे कहा, "बेटा, तू तो एकदम माॅर्डन हो गई। मैं भी शादी के बाद ही माॅर्डन हो पाई। नहीं तो वहाँ वही बहन जी जैसी। तुम भी तो वहाँ ढीली-ढाली कुर्ती-सलवार में...और आज देखो, लो वेस्ट जिंस, बैकलेश टाॅप में हीरोइन को मात दे रही हो।"

बुआ के भी धनाढ्य क़स्बाई मन में कसमसाहट-सी भरी कि वे भी जगह-जगह से फटी जिंस और कपड़ों को बचाते हुए कसा हुआ टाॅप पहन लें, जिससे पेट का बड़ा-सा गोरा हिस्सा बाहर दिखता रहे। थुलथुल है तो क्या हुआ, फैशनेबल तो कहलाएँगी। वह ख़ूब शौक़ से बुआ को कभी यहाँ, कभी वहाँ घुमाती रही।

मुश्किल हुई तब, जब एक शाम वह बुआ के साथ घूमकर लौटी और उसे पता नहीं था कि सुमंत टूर से कल की बजाय आज ही लौट आया है। कुछ ख़्वाहिशों, कुछ ख़्वाबों के साथ। वह बेडरुम में गई, सुमंत बेड से उतर उससे लिपट गया। तब तक फ्लोरल पारदर्शी पर्दे को हटा, बुआ अंदर आ चुकी थी। बुआ की सारी आधुनिकता रखी रह गई। क़स्बा उन पर हावी हो गया। वे हड़बड़ाकर बाहर निकलीं, तत्काल अपने भाई को रिंग कर दिया।

उधर से कुछ देर तनिक आवाज़ न आई पर उसे पता है, ज़ोर से कुछ टूटा "छनाक!", उसने आवाज़ साफ सुनी। थोड़ी देर बाद पापा के गरजने का शोर मोबाइल के बाहर भी शोर मचाने लगा। उन्होंने बुआ के माध्यम से ही अल्टीमेटम दिया, "उसे लेकर अभी के अभी लौटो।"
घर में यहाँ से वहाँ तक सनाका खिंचा रहा। उसने लौटने से साफ मना कर दिया। पापा के फोन पर भी पायल ने साफ कह दिया। वह जानती थी, आज बस, आज ही वह कह पाएगी।
"आपके, हाँ! आपके कारण ही मैंने यह डिसिजन लिया था। चाहती थी, कुछ दिनों बाद जाकर ख़ुद बताऊँगी। पर टाइम से पहले...।"
पापा समझदार थे, तुरंत समझ गए। गालियों से स्वागत किया, "उ मरदूद है कौन? साले की माँ-बहन है कि नहीं, मिलूँगा तो शैतान की अँतड़ी निकाल..."
"... आप मिल चुके हैं पापा! हम लोग एक बार साथ वहाँ आए थे।"
उधर थोड़ी देर की खामोशी फिर, "वो...वो लड़का? लफँगा!"
पापा की क़स्बाई गालियों और मानसिकता से वह पहले से परिचित।
"अब लौटने की कोई गुंजाईश नहीं है पापा। साढ़े चार साल बीत गए हमें साथ रहते हुए।"
उधर की बरसात, "मैं...मैं कहता था तुम्हें, मत भेजो महानगर में पढ़ने। पर नहीं...।"

पापा ने साफ कहा था, "मत भेजो। देखती नहीं, महानगर की छोरियाँ कैसे-कैसे देह उघाड़ू कपड़े पहनती है। कैसे अजीबो-गरीब ढंग से बोलती हैं, रहती हैं। इसके भी पर निकल जाएँगे।" बाद में माँ के बारंबार के अनुनय को टाल नहीं सके थे। "हमारी पायल ऐसी नहीं है।" चुपचाप वह उनका गर्जन-तर्जन सुनती रही।
माँ का फोन आया थोड़ी देर बाद।
"नहीं माँ, मैं नहीं लौटनेवाली। वैसे बता दूँ, मेरे इस डिसिजन के पीछे तू भी है। कभी तो मुँह खोलती। तुम दोनों ने मुझे डरा दिया था।"
पाँचवे दिन दो बातें एक साथ हुईं, सुमंत कैलिफोर्निया के लिए निकल गया, रात बारह तक माँ-पापा पहुँच गए।
माँ ने उसका हाथ थाम, रोना शुरू कर दिया।
"कुछ तो सोच, क्या कहेंगे लोग?"
"क्या हम तेरा ब्याह नहीं करते?"
उसने माँ को रोने दिया। जानती है, उसके बाद ही माँ की अव्यवस्थित भावनाएँ क़ाबू में आएँगी। पापा अप्रत्याशित रूप से शांत! अर्थात तूफान आने वाला है। पहले हवा मंद-मंद चल ले।
"कब की रे तूने शादी? बताना भी सही नहीं लगा तुझे।"
वह उसकी टेढ़ी मांग में सिन्दूर ढूँढने लगी। लाली की एक रेख नहीं। झटपट बीच वाली मांग की जगह को उलट दिया, वहाँ भी नहीं। फटाफट केशों को उलटती-पलटती पागल हो गयीं।
"तू सिंदूर भी नहीं लगाती?"
"माँ!" पायल ने माँ के दोनों कंधे थाम लिये।
"हमने मैरेज नहीं किया है माँ।"
माँ गिरते-गिरते बची।
"मैरेज में हम दोनों बिलीव नहीं करते।"

फिर तो पापा नामक तूफान ने सारी कायनात ध्वस्त करने की क़सम उठा ली। सारे कीमती ग्लास, काँच का टेबल टाॅप, नाजुक चेयर, पेपरमैसी की खूबसूरत कलाकृतियाँ ज़मींदोज़। पायल चुपचाप देखती रही। माँ तो बेहोश-सी थी।
"आज से सारा रिश्ता..." उन्होंने एक और बाउल को ज़मीन पर दे मारा, "छनाक!"
"तुम्हारी जितनी हानि हुई है, सबकी भरपाई कर दूँगा...जल्द!"
वे रुके नहीं। पायल कहती रही, "पापा, अभी कहाँ जाएँगे? ट्रेन तो दोपहर को मिलेगी। टिकट भी नहीं हो पाएगा।"
उनकी कर्कश आवाज़ गूँजी, "बस!!!"
और नक्काशीदार मेज पर रखे सितार की मिठास फर्श पर, बिखर गया सितार। कितने शौक़ से सुमंत ने ख़रीद कर गिफ्ट किया था।
सबकुछ ने सबकुछ को सन्नाटे में डूबो दिया। पायल बेसब्री से सुमंत के लौटने का इंतज़ार करने लगी।

उसे याद आ रही थी वह शाम, जब दोनों ने इस फ्लैट में प्रवेश किया था। रात ढल रही थी और घबराई, शर्माई, अपने में सिमटी बैठी थी वह। उसे माँ-पापा दिखलाई पड़ रहे थे। उसकी घबराहट देख, उसकी स्थिति समझ सुमंत चुटकुला सुनाने लगा था। बहुश्रुत चुटकुला कि एक वाइफ को जब हसबेंड ने प्रथम रात्रि में गाना सुनाने के लिए कहा, वह गाने लगी, "भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना।"
पायल के होंठों पर फीकी मुस्कुराहट आई थी। आगे सुमंत कह रहा था, "अब हसबेंड की बारी थी। हसबेंड गाने लगा, "माँ मुझे आँचल में छिपा ले/ गले से लगा ले/ कि और मेरा कोई नहीं।"
खिलखिलाकर हँस पड़ी थी पायल। और देखते ही देखते एक घंटे बाद सारी वर्जनाएँ, सारे संस्कार धराशायी। देह-राग जग पड़ा था। मन-तन में सितार की झंकार! माँ-पापा तट पर एक किनारे पड़े, तपती रेत पर। उसे तो बाद में ऐसा ही लगा था। फिर उसने सोचा था, "हम एडल्ट हैं, हमें अपनी मर्जी से लाइफ स्पेंड करने का पूरा राइट है।"

****

पुराने दिनों की जुगाली करता सुमंत अजीब-सी उहापोह में गुज़र रहा है, इन दिनों। वे कब क़रीब आए, कब एक साथ रहने का निर्णय लिया, कब निर्णय में विवाह की वेदी को शामिल नहीं करने का फैसला घरवालों की जिद पर भारी पड़ा, उसे अच्छी तरह याद है। ज़िंदगी अच्छी-भली गुज़र रही थी। इधर एक नया रोग-सा लग गया है उसे। जब देखो पायल के बारे में ही सोचता रहता है। पायल के पापा-माँ के यूँ नाराज़ लौट जाने की बात सुन, वह पायल का ज़्यादा ही ख़याल रखने लगा था।

नया सितार कैलिफोर्निया से लौटने के एक हफ्ते के अंदर ही ख़रीद लाया था। पर बहुत दिनों तक पायल ने उसे हाथ ही नहीं लगाया था। बाद में डेली रात को बजाने लगी थी। वह ख़ुश हो गया था, अब पायल फिर राह पर आ गई है। अब इधर हुआ क्या? वह समझ नहीं पाता।
पायल एक बात गौर करती है कि सुमंत उसे किसी से बात करते देख असहज हो उठता है। कहता कुछ नहीं लेकिन पहले वाली खुली हँसी खो जा रही है। कभी-कभी शून्य में कुछ तलाशा भी करता। पहले तो जुल्फ़ों में ही तलाशी चलती रहती। उसके लंबे बालों को सुमंत ने कटवाने नहीं दिया था। उसके घने लंबे केशों में उँगलियाँ फँसा, खेलते रहना उसका शगल था। घंटों चाँदनी रात में बाल्कनी में आती रुपहली चमक में डूबा वह उसके केशों से अठखेलियाँ करता रहता। ज़मीन पर ही बैठ वे घंटों एक-दूजे में डूबे रहते। ऑफिस से देर रात लौटने की थकावट दूर हो जाती।

झट सज-धजकर वे घूमने निकल पड़ते। लाँग ड्राइव पर जाने से पहले किसी रेस्तरां या ढाबे में डिनर। रात को लौटते, कभी दो, कभी तीन बजे। सुबह होती ग्यारह बजे। मुँह धोए बिना ब्रेकफास्ट। फिर एक साथ ब्रश करना, बाथ लेना, पूरी तरह से तैयार होकर साढ़े ग्यारह तक ऑफिस। डेली लंच ऑफिस में, डिनर बाहर। ब्रेकफास्ट में टोस्ट कुतरना या नुडल्स, मैगी-फैगी। वीकेंड में पार्टी, पब या मूवी। बस आनंद, इंज्वायमेंट! आनंद ही आनंद!

दोनों ने पूछने, टोकने, रोकने की मनाही कर रखी थी पहले ही। शर्त्त में एक-दूसरे के मामले में दख़ल नहीं देने की बात सर्वोपरि थी। स्पेस देने की भी। कोई किसी की स्वतंत्रता में बाधक नहीं बनेगा, एक अघोषित समझौता यह भी था।
वह चाहकर भी सुमंत से पूछ नहीं पा रही थी, उसके चुप पड़ते जाने की वजह। ख़ूब-ख़ूब बतियाने, अनर्गल प्रलाप करने, हर बात-बेबात पर भी खिलखिला उठने वाले वे दोनों, एक आम गृहस्थ की तरह बिहेव करने लगेंगे, ऐसा उन लोगों ने कहाँ सोचा था!

माँ ने पायल से कहा था, "इस रिश्ते का कोई वजूद है? क्या नाम देगी? कभी किसी ने पूछा तो खुलकर बता पाएगी? और कभी अलग होना पड़े, उसकी किसी चीज़ पर हक़ रहेगा, दावा कर पाएगी? बच्चे को बाप का नाम दे...?"
बिफरकर बीच में ही माँ की बात काटी थी, "...माँ, इतने ढेर सारे क्वेश्चन से मत डराओ-उलझाओ मुझे। बस एक फ्री लाइफ की चाहत है मेरी, हमेशा से रही है। लव बड़ी बात है मेरी नज़र में। हम उसी के सहारे होल लाइफ बिता लेंगे। और हम अभी टेन इयर्स तक बच्चा प्लान नहीं कर रहे हैं, समझी! तुम्हारी तरह मैं एकदम जी नहीं सकती। नेवर!" इतना कड़ा बोल नहीं पाई थी, मन तो था, "दिल लगी दीवार से वाला ज़माना गया। अब देख-भालकर, सोच-समझकर, प्राॅफिट-लाॅस के गणित को परखकर लव किया जाता है माँ।"
और कुछ हुआ तो तुम्हारी तरह खूँटे से बँधी गाय नहीं बनने वाली मैं। देखती नहीं, कितनी आसानी से कपल्स अलग हो जा रहे हैं। यहाँ यह सब मैटर नहीं करता।"
आत्माभिमान से यह भी कहना चाहा था, "इतनी ज़्यादा इनकम है मेरी। सुमंत के मनी और ऐसेट की ज़रूरत नहीं मुझे।"
"पछताएगी पायल, बहुत पछताएगी।..."
"...चट मँगनी, पट ब्याह... झट तलाक...उफ्!" माँ की आवाज़ भर्रा गई थी।

उसे इन दिनों ये बातें ख़ूब याद आतीं। वह कभी खिलखिलाकर हँसती, अजीब नज़र से देखता सुमंत। एकाएक ब्रेक लग जाता उसकी हँसी पर। सबके बीच खिलखिलाती, वह सहज खिलखिलाहट होती लेकिन सुमंत असहज हो उठता। सितार की तारीफ कोई करता, वह उठकर चल देता। किसी की ओर गौर से देखती, सुमंत की आँखों के डोरे लाल हो जाते। प्रायः झुकी रहनेवाली उसकी आँखें एकाएक अचकचाकर झुक जातीं।

सुमंत कहता कुछ नहीं था अपनी जुबान से। बस, चेहरा और नज़रें बोल देतीं। पायल की बोलती आँखें चुप रहने लगी थीं। उसने सुमंत को शांत करने, सहज करने का पुराना तरीका निकाला। उसकी आँखों में डूबकर देखने की कोशिश करती। उसे अच्छी तरह पता है, उसकी आँखें अब भी...हाँ, अब भी वैसी ही हैं। स्वप्निल! प्यार में डूबीं, मदभरी!

थोड़ी देर देखता, निगाहें झुका लेता वह। सोचती थी, बिना बंधन के रिश्ते में पुष्प ही बिखरे होंगे। गुलाब की कलियाँ, बस! काँटों का ख़याल तक नहीं आया था।
रिश्ते को कैसे सँभाले, समझ ही नहीं पा रही थी। बेड पर एक साथ होते हुए भी साथ न होते वे। मधुमास की अवधि इतनी जल्दी खत्म हो जाएगी, कहाँ सोचा था उसने! चाहती रही, सोचती रही, वह अवधि कभी ख़त्म न हो।

उस दिन मयंक वाइफ और बेबी के साथ आया था। सितार सुनाने की फर्माइश की थी। वह न-नुकूर करती रही, वे नहीं माने। पायल ने एक निगाह सुमंत पर डाली। सितार उठा लिया। संगीत प्रेम माँ से विरासत में मिला था। माँ का तो दम तोड़ चुका था, पायल में जन्म लेकर बड़ा होता चला गया था। फिजां में नशा घुल रहा था। चाँदनी ढल रही थी। दोनों की जुगलबंदी से पहले अजब समां बँध गया था। सारी कायनात संगीत तथा चाँदनी की जुगलबंदी देख रही थी। मंद-मंद हवा बह रही थी। मीठी धुन बालकनी को गुलज़ार कर रही थी। मद्भिम रौशनी में नहाया हुआ था सब कुछ। एक जादुई समां!

मयंक सुमंत का फास्ट फ्रेंड! सुमंत हट न सका। सुन भी नहीं सका। उन तीनों के जाते ही सोफा-कम-बेड पर पलटकर लेट गया। पायल ने आवाज़ पर आवाज़ दी, नहीं उठा। पायल का मन रोना चाह रहा था। पर आँखें बस नम होकर जम गईं।
सुमंत को गिफ्ट की थी बहुत कीमती टाइटन की घड़ी। पहले ख़ूब शौक़ से पहनता था। अब कबर्ड में धूल खा रही है। आज बहुत दिनों बाद बाहर निकली। राउंड ग्लास टाॅप पर रंगीन, बेहद ख़ूबसूरत पत्थरों से भरे बाउल के साथ वह भी बिसुर रही है।
पायल ने महसूसा, वह माँ हो गई है। सुमंत पापा में तब्दील। हाँ, चीखता नहीं, चिल्लाता नहीं, मारता नहीं। लेकिन है पूरी तरह से पापा।

एक बार, बस एक बार उसने पायल से पूछा था, "तुम इतना प्रेम से प्रमोद को क्यों देख रही थी?"
"प्रेम से?" मैंने तो बहुत देर तक किसी की ओर देखना बहुत पहले ही छोड़ दिया है। काॅलेज लाइफ से ही।"
सुमंत कुछ और कहने के लिए उत्सुक हुआ। फिर शायद उसे वादा याद आ गया था, "नो कमेंट्स! नो आरग्युमेंट्स!! नो सफाई-वफाई!!!" वह चुप लगा गया।
पायल की इच्छा हुई, सुमंत चीखे, चिल्लाए। तोड़-फोड़ मचा दे। घर में भूचाल मचा दे। ऐसा भूचाल, जिससे मकान की चुप्पी टूटे। मकान घर बन जाए। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

वह पेट के बल सोए सुमंत को खड़ी हो देर तक देखती रही। उसके मन ने यह भी चाहा, वह खिलखिलाकर हँसे। खूब...खूब! पहले की तरह। या फिर चिल्लाकर रोए, माँ की तरह। हँसी या रुलाई जो भी हो, देर तक घूमती रहे फैन के साथ गोल-गोल...!

एक बात अजीब! जिस दिन सितार बज उठे थे डनलप पर, देह में, उस दिन वेलेन्टाइन डे था। आज सितार उपेक्षित पड़ गया है, तब भी वेलेन्टाइन डे। वह इस को-इंसिडेंट को समझ नहीं पा रही है। परन्तु समझने की कोशिश करती रही देर तक। वहीं दूसरे सोफे पर बैठ सुमंत की पीठ को देखते हुए।
उसे किसी भी कीमत पर रिश्ते को बचाने की ज़रूरत महसूस हुई। आज टूटते-फूटते रिश्तों की भरमार। ऐसे में रिलेशन को सँभालने के लिए कम से कम एक पक्ष को समझदारी दिखानी ही होगी।

'रिश्तों की तोड़-फोड़ एकाकीपन, अवसाद, तकलीफें बोती हैं। और फिर फसलें जहरीली होती जाती रही हैं।' पता नहीं कैसे उसके दिमाग में यह ख़याल करवट लेने लगा। वह खुद से मन ही मन बात कर रही थी, "नानी, दादी, चाची, माँ टेढ़े-मेढ़े अनगिन रिश्तों को अपने मजबूत कँधों पर सँभाल सबका जीवन सँवार देती थी। यूँ ही नहीं था वह सब। घर, घर तो था। मकान को घर बनाना पड़ता है न।" पायल के होठों पर बंकिम स्मित। माँ अक्सर बताती रहती थी यह सब। अभी वही अचेतन उसके सामने खुल रहा था।

सुमंत उसके प्रति पजेसिव है और इंसिक्योर भी। यह समझते उसे देर नहीं लगी। यह एक्स्ट्रीम लव की निशानी।
"यूँ प्यार भरे रिलेशन को खोया नहीं जा सकता। एक क़दम मैं बढ़ाऊँ, एक क़दम तुम। रिश्ते यूँ ही नहीं टूटते।" कहेगी ज़रूर।
रात मचल रही थी। करवट बदलती हुई पायल प्लान कर रही थी, अब और लेट नहीं। कल एक काम करना ही है। काउंसलर से हम दोनों की मिटिंग फिक्स करनी है।

सवेरे का ललहुन सूर्य पीताभ में बदलकर बेहद चमकीली रौशनी बिखेर रहा था। चारों ओर धूप की चटख खिलखिलाहट भर गई, तब पायल की आँखें खुलीं। वह खड़ी हुई। तभी सामने कमरे से हाथ पीछे किए हुए सुमंत नमूदार। पास आया। मुस्कुराया। और लाल गुलाब की एक मध्यम कली को थामे हुए नी पर बैठ गया। आँखों में आँखें डाल कहा, "विल यू मैरी मी पायल?"
"हाँ...हाँ...हाँ!"

अप्रत्याशित रहने के बावजूद वह चीख पड़ी। गुलाब की लालिमा दो उँगलियों से थाम ली। उसके कपोल रक्ताभ हो उठे। वह गले लग गई भीगी आँखों से।
"कल मैरेज के लिए कोर्ट में आवेदन देना है।" सुमंत की आवाज़ थी कि सितार की धुन?
"हाँ! एक और ज़रूरी काम, माँ-पापा को फोन लगाकर ख़ुशख़बरी देनी है। बुलाना है।" गुलाब को चूमते हुए कहा पायल ने।

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1 Total Review

अनिता रश्मि

21 February 2025

शुक्रिया कि मेरी कहानी को उचित स्थान दिया।

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रचनाकार परिचय

अनिता रश्मि

ईमेल : rashmianita25@gmail.com

निवास : राँची (झारखण्ड)

प्रकाशन- छः कथा संग्रह, दो काव्य संग्रह सहित चौदह पुस्तकें प्रकाशित।
हंस दलित विशेषांक, जनसत्ता दीपावली विशेषांक, ज्ञानोदय झारखंड विशेषांक, लोकमत उत्सव विशेषांक (चार बार), विश्व गाथा कहानी कथा विशेषांक, लेखनी.नेट कहानी विशेषांक सहित प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर विविधवर्णी रचनाएँ प्रकाशित।
विशेष- शोध प्रबन्धों में रचनाएँ शामिल। अंग्रेजी, बंगला, मलयालम, तेलुगू में रचनाएँ अनुदित। एक लघु फिल्म में अभिनय।
सम्मान/पुरस्कार- अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार-सम्मान। 
संपर्क- 1 सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, कुसई, डोरंडा, राँची (झारखण्ड)- 834002
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