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सुधा गोयल की कहानी 'मीरा'

सुधा गोयल की कहानी 'मीरा'

तुम्हारे प्रति अपराधी हूँ मीरा, लेकिन ऐसा एक सप्ताह पूर्व न था। मैं स्वयं को बेहद समझदार समझ बैठा था। मुझे स्वयं पर अभिमान हुआ था। इसका कारण खोजता हूँ तो लगता है कि मैं अकेला ही नहीं, तुम भी कहीं ज़रूर दोषी हो। तुमने मेरी इतनी तारीफ़ की, मेरी विद्धता की इतनी कायल हुई कि मैं स्वयं को बहुत बड़ा विद्वान समझ बैठा।

आज तुम्हें मीरा कहकर संबोधित कर रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम मीरा नहीं हो। तुम भी जानती हो कि तुम्हारा नाम मीरा नहीं है। ना सही, नाम से क्या फ़र्क पड़ता है। मीरा हो या गीता, कुछ नाम बड़े भावात्मक होते हैं। न चाहते हुए भी अपने लिए ऐसे प्रतिमान गढ़ लेते हैं, जिनके विषय में व्यक्ति सोच भी नहीं पाता। तुमने भी कहाँ सोचा होगा कि एक दिन मैं तुम्हें मीरा कहकर संबोधित करूँगा।

मीरा, तुम्हें कुछ सोचकर ही संबोधन दिया है। धीरे-धीरे तुम स्वयं समझ जाओगी और तुम्हें लगेगा कि इससे सही नाम कोई और हो ही नहीं सकता था। मेरी भावनाओं को भी तुम समझ सकोगी कि वे भावनाएँ, जो पिछले एक सप्ताह से मुझे उद्वेलित किए हुए हैं, जो मुझे देखकर रही हैं। मैं एक ऐसी आत्म प्रवचना में भटक गया था, जिसके बारे में जितना ही अधिक सोचता हूँ, उतना ही आत्मग्लानि से हृदय फटा जाता है।

तुम्हारे प्रति अपराधी हूँ मीरा, लेकिन ऐसा एक सप्ताह पूर्व न था। मैं स्वयं को बेहद समझदार समझ बैठा था। मुझे स्वयं पर अभिमान हुआ था। इसका कारण खोजता हूँ तो लगता है कि मैं अकेला ही नहीं, तुम भी कहीं ज़रूर दोषी हो। तुमने मेरी इतनी तारीफ़ की, मेरी विद्धता की इतनी कायल हुई कि मैं स्वयं को बहुत बड़ा विद्वान समझ बैठा। लेकिन इसमें तुम्हारी भी कोई ग़लती नहीं है। तुमने जैसा महसूस किया, वैसा ही कहा। तुम मुझे अपना अभीष्ट कहा करती थी और अभीष्ट सारी कमज़ोरी के ऊपर हुआ करता है। तुमने मेरे दोषों की ओर कभी भी इंगित नहीं किया, बस गुणों को ही उजागर करती रही। शायद तुम्हें नहीं मालूम की अधिक मिठाई खाने से अजीर्ण हो जाया करता है। तुम भी पूर्ण समर्पित रही। समर्पण देना जानता है, लेना नहीं।

हाँ, मैं बता रहा था कि ठीक सात साल बाद एक सप्ताह पहले मैं तुमसे मिलकर लौटा हूँ। तुम्हारे पास जाते समय मेरे मन में कितना उत्साह था। सात सालों का वियोग पल भर में मुट्ठी में सिमट जाने वाला था। तुम्हें याद होगा मीरा, तुम्हारे सामने ही तुम्हारी भाव संवेदनाओं को मैं हँसी में उड़ा दिया करता था। कोरी भावुकता का नाम देकर तुम्हारा पागलपन बताया करता था। प्यार बेहद घटिया और सस्ती मानसिकता है, जो कर्मपथ में बाधा डालती है। मेरा यह दर्शन बड़ा ही शुष्क और निष्ठुर था। यह मेरा दर्शन नहीं, शायद वहम था। मैं तुम्हें चाहने लगा था लेकिन प्रकट नहीं करता था। तुम्हें देखकर मेरे मन में भी कुछ होने लगता पर एक कठोर आवरण के तहत मैं सब कुछ दबा जाया करता था। एक दिन भावावेश में तुमने कहा था कि किशन ज़रा अपना हाथ देना। मैंने अपना हाथ तुम्हारी और बढ़ा दिया था। तुमने आहिस्ते से मेरा हाथ चूमा था, मानो गुलाब की कोमल पंखुड़ियों को हवा के मादक झोंके ने सहला दिया हो। अचानक मेरी हथेली पसीने से भीग गई थी। फिर भी उन पलों में मैंने स्वयं को संयत किया और कहा- "यह सब क्या बकवास है?"

तुमने नज़र उठाकर मेरी और देखा, मानो मेरे सवाल का उत्तर मुझसे ही माँग रही हो। तुम्हारी आँखों में जाने कैसा भाव था! मैं आँखें मिलाने का ताव न ला सका। मेरी आँखें स्वतः ही झुक गयीं। तुम चली गई और मेरे सोचने के लिए काफी कुछ छोड़ गई।

तुम्हारे सामने मैं चाहे कितना ही कठोर बना रहा पर एक चुंबकीय आकर्षण में मैं तुम्हारी ओर खिंचा जा रहा था। तुम्हें मझधार में उतरने से रोक रहा था।चक्रवातों के विषय में बता रहा था। पर स्वयं मझधार की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था। जिस दिन तुम न आतीं, मेरा मन तुम्हें देखने के लिए छटपटाता रहता। मेरे क़दम तुम्हारे घर की ओर मुड़ते। कुछ क़दम चलकर ठिठक जाते और मैं भारी क़दमों से वापस लौटा आता। कठोरता का जो मुखौटा मैंने पहना था, उसे हटाकर तुम्हारे समक्ष आना मैं किसी भी प्रकार उचित नहीं समझता था।

तुम्हारी निगाहों में मैं कायर और बुद्धू था, शर्मीला था। तुम जब मुझे बुद्धू कहती तो मन होता, तुम्हारे कान पड़कर उमेठ दूँ, तुम्हारी चुटिया खींच दूँ या फिर तुम्हें पकड़ कर झिंझोड़ दूँ। तुम्हें बता दूँ कि मैं वह कुछ नहीं, जो तुम समझती हो।

मैं सोचा करता था कि तुम्हारा प्यार उम्र का उफान है, एक वेगवती धारा है। अल्हड़ धारा, जो आने वाले तूफान को नहीं देखती। बस उछलती कूदती आगे बढ़ती जाती है। समय आते ही स्वयं इस धारा का प्रवाह एक निश्चित दिशा ले लेगा। मैं तुम्हें तरह-तरह से समझाना चाहता था पर तुम जान-बूझकर भी कुछ समझना नहीं चाहती थी या फिर मेरी परीक्षा ले रही थी। मेरी साधना डगमगाने लगी थी।

मैंने स्वयं को पढ़ाई में झोंक दिया पर कहाँ झोंक पाया! किताब सामने खुली रहती। पृष्ठों के काले अक्षरों के बीच गुलाब-सा खिला तुम्हारा चेहरा झाँकने लगता।तुम्हारी तरफ से कितना ही मन हटाने का प्रयास करता, तुम उतना ही मेरे मन पर अधिकार जताया करती। मेरी उपेक्षा का तुम पर कोई असर नहीं था। तुमने केवल देना जाना था, लेना नहीं।

सब कहते हैं कि प्यार आदान-प्रदान का नाम है, आदान-प्रदान न हो तो प्यार-बेली सूख जाया करती है। गोपियों के विरह वर्णन को पढ़, मैं हंसा करता था। विरह केवल औरतों के हिस्से की भावना है। शायद इनके दिमाग़ के ऊपरी हिस्से में कोई टंकी लगी है, जो वक़्त-बेवक्त झरती रहती है पर तुम तो प्रेम की एकांत साधिका थीं।

अचानक मेरी बदली हो गई और मैं तुमसे बहुत दूर चला आया। आते समय तुम ख़ूब रोयीं, सूखकर काँटा हो गईं। तुमने खाना-पीना सब छोड़ दिया। जाते समय मुझे भी लगा था कि मैं अपने प्राण यहीं छोड़े जा रहा हूँ। एक ख़ालीपन का एहसास लिए मैं नई जगह आ गया। मैं मन ही मन सोचता कि मेरे जाने के बाद एक स्वप्न की तरह तुम अपना अतीत बिसरा दोगी। शुरू में थोड़ा कष्ट होगा, बाद में सब ठीक हो जाएगा।

तुम्हारे पत्र अनवरत आते रहे, जिनमें जाने-अनजाने कितने सवाल होते। कभी सेहत ठीक रखने का होता, कभी समय पर खाने और सोने की ताकीद। बड़ी उत्सुकता से मैं तुम्हारा पत्र खोलकर पढ़ता।कुछ बूँदें अनायास ही पत्र की इबारत को गीला कर जातीं। उत्तर लिखने बैठता और एक कविता रच जाती। तुम्हें शिकायत रहती कि मैं तुम्हारे पत्रों के उत्तर नहीं देता पर मैंने तुम्हारे पत्रों के एक नहीं, कई-कई उत्तर लिखे। बस तुम उन्हें पढ़ नहीं पाईं। जब भी तुम्हारी स्मृति मुझे मथने लगती, मैं तुम्हारे पत्र पढ़ने लगता फिर उत्तर लिखने बैठ जाता।

तुम सोच रही होगी कि मैं यह सब क्यों बता रहा हूँ! यह सब मुझे बहुत पहले बता देना चाहिए था पर मीरा, वक़्त तो अब आया है। मन पर रखे बोझ को उतार फेंकना चाहता हूँ। हाँ, मीरा तुम्हारे पत्रों के उत्तर न दे सका और एक दिन तुम सचमुच मिलने चली आईं। मैं तुम्हें देखता रह गया। तुम्हारा रूप-रंग ऐसा तो नहीं था। पाले से कुम्हलाई कमलिनी-सी तुम मुझे विक्षिप्त किये दे रही थीं। मुझे स्वयं के प्रति आत्मग्लानि हो रही थी। मेरे कारण तुम्हारी ऐसी स्थिति, काश! मैं तुम्हें अपना पाता! तुम्हें नहीं मालूम था मीरा कि मेरी शादी बचपन में हो चुकी थी। तब, जब मैं शादी के मायने भी नहीं जानता था। मेरी पत्नी गाँव में रहा करती थी।शादीशुदा होकर मैं तुम्हें कैसे अपना सकता था! बचपन की शादी को तोड़ने की हिम्मत मुझमें न थी। दो नावों पर पाँव रखकर चलना मेरे लिए संभव न था।

किसी प्रकार समझा कर तुम्हें वापस भेजा था। तुम्हारी शादी के बारे में तुम्हारे पिताजी को पत्र लिखा और मैं स्वयं तुम्हारे लिए लड़के तलाश करने लगा। तुमने चलते समय कहा था, "किसन, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी। मैंने तुम्हें अपना आराध्य माना है। तुम्हारी ख़ुशी मेरी ख़ुशी है। तुम्हारे आदेश का पालन करना मेरा फ़र्ज़ है। तुम चाहोगे कि मैं जीवनभर जलती रहूँ, जलती रहूँगी ।बस एक बार जलती शमा को देखने अवश्य आना।

मीरा, तुम ही नहीं जल रही थीं, मैं भी जल रहा था। तुम तो इज़हार कर चुकी थीं और मैं इज़हार नहीं कर पा रहा था। तुम्हारी शादी पर गया था। ख़ूब उत्साह दिखाया था। दौड़-दौड़ कर सारे कार्य किए थे। तुम्हारे परिवार में मैं एक अहम सदस्य की तरह था। शादी वाले दिन तो मेहंदी की कटोरी मेरे सामने रखकर बोली, "किशन, मेहंदी लगा दो। तुम्हारे हाथ से लगकर मेहंदी खिल उठेगी।"

उन हथेलियों पर मेहंदी तो क्या रचा पाता, हाँ न जाने मेरे कितने आँसुओं से तुम्हारी हथेलियाँ भीग गयीं। तीली उठाकर तुमने हथेलियों के बीच 'कृष्ण' लिखा था। मैंने मिटाना चाहा। तुमने कहा- "किशन, यह नाम तुम्हारा नहीं है। तुमने ही तो लिखने की आज्ञा दी थी और तुम ही मिटाने चले हो!"
भावावेश में मैं भूल गया था कि तुम्हारे होने वाले पति का नाम कृष्ण है, कैसा अजीब साम्य था!

बारात आई, तुम दुल्हन बनी और विवाह मंडप तक तुम्हें ले जाने की ज़िम्मेदारी मुझे मिली। मैं उन सभी सपनों को मिटाने में लगा था, जो अनचाहे मन की धरती पर उग आए थे। तुम्हें वेदी तक ले जाते हुए मुझे लगा था कि मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। तुम्हें नहीं पता मीरा कि तुम्हारे लिए वरमाला मैंने हीं गूंथी थी। अपनी भावनाओं के फूल उसमें चुन-चुन कर पिरो दिए थे। आँसू पलकों में आकर ठहर गए थे पर दिल से चाहा था कि तुम्हारा हर पल मंगलमय हो। तुम्हारा हाथ पड़कर वरमाला मैंने ही डलवाई थी।

एक बार फिर अग्नि परीक्षा का वक़्त आया। विदाई की वह बेला और तुम आशीर्वाद के लिए मेरे पैरों पर झुक गईं। मन हुआ कि तुम्हें दोनों हाथों से पकड़कर सीने से लगा लूँ। तुमने नज़र उठाकर मुझे देखा था। तुम्हारी आँखें अनवरत बह रही थीं। मेरी आँखें भी बरस पातीं कि तभी मैंने मुँह फेर लिया और तेज़-तेज़ क़दमों से चलता हुआ पोर्च में जाकर खड़ा हो गया।

तुम कार में बैठकर चल दीं। कार मध्यम गति से अपने मंज़िल की ओर बढ़ रही थी। कुछ सिसकियाँ वातावरण को बोझिल बना रही थीं और मैं आगे बढ़ते कारवां को और धूल के गुबार को देख रहा था। तुम्हें विदा कर मुझे शांति मिलनी चाहिए थी पर मेरी झोली में अशांति आ पड़ी थी। तुम अपनी यात्रा पर और मैं अपने स्मृति पथ पर बढ़ रहा था।

सब कुछ इतनी तेज़ी से घटित हो गया। समय गुज़रता रहा, कैलेंडर पलटते रहे। मेरे कर्तव्य की इतिश्री हो गई थी। फिर कभी तुम्हारे घर लौटकर नहीं गया। जाता ही क्यों? कहते हैं वक़्त से बड़ा मरहम नहीं होता पर मेरा अनुभव उल्टा है। वक़्त से बड़ा नासूर भी कोई नहीं। तुम्हें उपदेश देता रहा, स्वयं को छलता रहा। तुम्हें भूलने का प्रयास करता और मेरे मन-प्राण तुम्हारी स्मृति में सुलगते रहते। तुम जैसे जाकर भी नहीं गई थी। तुम मेरे मन में ऐसी जगह स्थापित हो गई थी, जहाँ से तुम्हारी स्मृति का निकलना संभव न था।

यादों के दीप जलाए सात साल निकल गये। एक अजीब-सी चाह मुझमें भर्ती जा रही थी। काश एक बार तुम्हें पा लूँ। तुम पर मेरा अधिकार है। तुम केवल मेरे लिए हो। बस यही सब सोचता हुआ तुम्हारे घर पहुँचा। तुमने और तुम्हारे पति ने खुले मन से मेरा स्वागत किया। मैंने देखा कि मेरी एक तस्वीर ताख पर रखी है। नीचे धूप और अगर की गंध फैली है।

प्रश्न भरी आँखों से देखा। उत्तर तुम्हारे पति कृष्ण ने दिया- "आरती पूजा भगवान की तरह प्रतिदिन करती है"।
मैं अपनी पूजा आप देख रहा था। अभी भी इतनी श्रद्धा, इतना प्यार मैं तो कुछ और ही सोच कर आया था। प्रतिमा खंडित होने से बच गई। तुमने कहा था- " किशन मैं नहीं जानती कि मेरा क्या है। मैं तो सारा कुछ तुम्हें अर्पित कर चुकी हूँ। मिलन दैहिक चेतना ही नहीं, वैचारिक धरातल भी तो है। तन सभी को मिल जाते हैं पर मन कितनों को मिल पाते हैं?"

तुमने मुझे मन दिया था, विश्वास दिया था। आज फिर कमज़ोर होते-होते रोक लिया था। तुम सचमुच मीरा बनी अपने प्यार की ज्योति जलाए बैठी थीं। तुम्हें जलते हुए मैंने देखा था। प्रेम-दीवानी मीरा को मैंने नहीं देखा पर तुम्हारे मन में इस मीरा को पाया। कृष्ण ने भी अपना यह रूप नहीं देखा होगा। मैं लौट आया। थका-सा, बोझिल-सा, हताश हुआ। मुझे अपनी सोच बेहद बकवास लगी। मैं इतना कमज़ोर क्यों हो गया था! ‌मैं तुम्हारे विशुद्ध प्रेममय समर्पण को अपनी अंधी वासना से लील लेना चाहता था। यह मेरा अपराध बोध था।

मीरा मैंने प्रायश्चित किया है। वही सब तुम्हें बताने जा रहा हूँ। मैंने अपने मन का बोझ गीता पर उतार दिया। गीता मेरी पत्नी, जिसे तुमने भाभी संबोधन दिया है। तुम जानती हो, गीता अनपढ़ और गँवार है पर इससे क्या? तुम और गीता में ज़रा भी फ़र्क नहीं है। वह भी पूर्ण समर्पिता है। मैं ही धोखे में रहा। नारी हृदय की विशालता को न परख सका। गीता ने सब सुनकर कहा- "मीरा का काम भक्ति करना है, प्यार करना है, हर औरत मीरा है। यह तो कृष्ण ही जाने कि उसका समर्पण स्वीकार करें या न करें। दुखी क्यों होते हो? वह देवस्थान था। माथा टेककर लौट आए हो। हर व्यक्ति मंदिर से अपने घर लौटता है।"

तुम ही बताना मीरा, क्या मैं सचमुच अपने घर लौट आया हूँ? शायद नहीं....शायद हाँ।

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रचनाकार परिचय

सुधा गोयल

ईमेल : sudhagoyal0404@gmail.com

निवास : बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)

संपर्क- 290-ए, कृष्णानगर, डॉ० दत्ता लेन, बुलंदशहर (उत्तरप्रदेश)- 203001
मोबाइल- 9917869962