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नीरजा हेमेन्द्र की कहानी 'यह शाम का समय है'

नीरजा हेमेन्द्र की कहानी 'यह शाम का समय है'

कभी-कभी मैं सोचता कि बच्चे जब माता-पिता की बात नहीं मानते, उनके अनुभवों का लाभ उठाना नहीं चाहते तथा जीवन के प्रमुख निर्णय विवाह इत्यादि अपनी इच्छा से कर लेते हैं तो जीवन की दुश्वारियों को फेस क्यों नही कर पाते? असफल होने पर माता-पिता को दोष क्यों देते हैं?

शाम के छः बज रहे हैं। कार्यालय का समय समाप्त हो गया है। सभी कर्मचारियों की भाँति मैं भी घर जाने की तैयारी में हूँ। मेज पर पड़ी फाईलों को समेटकर उन्हें यथास्थान रखने के पश्चात् मैं कार्यालय से बाहर निकल पड़ा। जून का महीना था। सूर्य ढलने लगा था किन्तु हवाएँ अब भी गर्म थीं। यद्यपि तपिश कुछ कम हो गयी थी। मैं धीरे-धीरे कार्यालय के पार्किंग की ओर बढ़ रहा था। अपने दुपहिया वाहन को निकालकर लंच का डिब्बा व पानी की बोतल डिग्गी में रखकर स्कूटर स्टार्ट कर गेट की ओर बढ़ गया।

इकत्तीस वर्ष हो गए मुझे इस सरकारी कार्यालय में काम करते हुए। अगले वर्ष मेरी सेवानिवृत्ति है। इतने वर्षों तक मैंने इस कार्यालय में वरिष्ठ लिपिक के पद पर कार्य किया है। देखते-देखते उम्र का एक बड़ा हिस्सा मैंने इस कार्यालय में व्यतीत कर दिया और मुझे इस बात का आभास न होने पाया कि एक स्वस्थ युवा अवधराम यहाँ नौकरी करने आया था और अब लगभग साठ वर्ष का उच्च रक्तचाप व मधुमेह से पीड़ित बूढ़ा घर जाएगा।

आज ही कार्यालय में मेरी सेवानिवृत्ति के फार्म भरे गये हैं। उसी समय से विगत दिन किसी चलचित्र की भाँति बरबस मेरी स्मृति पटल पर घूमने लगे हैं। मेरा स्कूटर घर की ओर बढ़ता जा रहा है और मेरी स्मृतियों में विगत क्षण समाते जा रहे हैं। युवा दिनों का बात है, तब मेरे पास स्कूटर नहीं था। मैं सायकिल से चला करता था। उन दिनों जेब में इतने पैसे भी नहीं हुआ करते थे। किन्तु जीवन में सुकून बहुत था।

वे दिन बादशाहों के जीवन की भाँति हुआ करते थे। उन दिनों की याद आते ही मेरे चेहरे पर मुस्कराहट फैल गयी। विगत् स्मृतियों को दरकिनार करते हुए मैंने मार्ग में पड़ने वाली सब्जी की दुकान से सब्जियाँ खरीदीं। बनिये की दुकान से रसोई के लिए कुछ सामग्री ली। आज जब मैं कार्यालय के लिए निकलने लगा था तो पत्नी ने आवश्यक वस्तुओं की एक पर्ची पकड़ा दी थी। ऐसी पर्चियाँ तो वह बहुधा पकड़ा दिया करती है। सब्जी-तरकारी तो लगभग प्रतिदिन ही लेकर जाना रहता है। ये सब कुछ करना मेरी दिनचर्या व स्वभाव में सम्मिलित है।

कुछ स्मृतियाँ, कुछ वस्तुएँ समेटकर चलते-चलते घर आ गया। दरवाजे की घंटी बजाने से पहले ही पत्नी ने ’आ गये’ कहते हुए दरवाजा खोल दिया। ऐसा प्रतिदिन ही होता है। मैं गेट खोलकर स्कूटर रखता हूँ और वो ’आ गये’ कहते हुए दरवाजा खोल देती हैं।
एक ढर्रे में बँधा हुआ जीवन हो गया है। किसी तालाब में ठहरे हुए जल जैसा। किन्तु इस ठहरे हुए जल में कभी-कभी हलचल होती है। तीव्र हवाओं के चलने से या सहसा किसी अवांछित पत्थर के टुकड़े के गिरने से। जब भी ये हलचल होती है, उस समय मैं सोचता हूँ, इस हलचल से तो वो ठहरा हुआ जल कहीं अधिक अच्छा था। पत्नी सामान का थैला हाथ से लेते हुए रसोई में रखने चली गयीं। मैं हाथ-मुँह धोने बाथरूम में चला गया।

रसोई से बर्तनों के खटपट की आवाजें आने लगी थीं। पत्नी मेरे लिए चाय बना रही होंगी। हाथ-मुँह धोकर मैं बाहर आया तब तक मेरी चाय मेज पर रखी थी। मैं चाय पीने लगा। वहीं से मैंने रसोई में झाँक कर देखा। पत्नी सब्जियों को फ्रिज में रख रही थीं।
"सुनिये, अभी कौनसी सब्जी खाने में बना दूँ?" फ्रिज के पास खड़े-खड़े ही पत्नी ने आवाज लगायी।
"कुछ भी, जो तुम्हारी इच्छा हो।" मैंने कहा।
"मुझे तो सब ठीक लगती हैं। आप अपनी बताइए।" पत्नी ने कहा।
"ठीक है परवल बना लो।" मैंने बात खत्म करते हुए कहा। मेरे और पत्नी के बीच ऐसी बातचीत प्रतिदिन की है।
"हूँ...ठीक है।" कहते हुए पत्नी आयीं, उन्होंने मेज से चाय का प्याला उठाया तथा पुनः रसोई में चली गयीं। उनके पीछे-पीछे मैं भी रसोई में चला आया।

पत्नी जब भोजन बनाती हैं तो उन्हें मेरी सहायता की आवश्यकता पड़ती है। छोटे-छोटे काम कर, मैं उनकी सहायता कर देता हूँ। मसलन फ्रिज से सामान निकाल लाना, फ्रिज में सामान रख देना, सब्जियाँ धोकर दे देना, भोजन बन जाने के बाद उन्हें खाने की मेज पर लगा देना आदि।

मेरी पत्नी भी मधुमेह से पीड़ित हैं। उनके शरीर पर मधुमेह ने अपना दुष्प्रभाव शीघ्र ही डाल दिया है। परिणाम स्वरूप शारीरिक दुर्बलता, हाथ-पैर में दर्द आदि लक्षण दिखाई देने लगे हैं। अतः मुझे उनकी मदद करनी पड़ती है। भोजन तैयार हो गया था। पत्नी रसोई का काम समेट रही थीं। उनकी मदद कर मैं शयन कक्ष में आकर लेट गया। मैं साढ़े नौ बजे भोजन करता हूँ। भोजन में अभी समय था। अतः कुछ देर लेटकर मैं पीठ सीधी करना चाहता था। रसाई का काम समाप्त कर कुछ देर में पत्नी भी कमरे में आ गयीं। कुर्सी खींचकर वो मेरे पास बैठ गयीं। कमरे में सन्नाटा पसरा था।
"आज उसका फोन आया था।" पत्नी के स्वर सुनकर मैं चैतन्य हो गया। नेत्र यद्यपि अब भी बन्द थे।
"क्या कह रही थी?" मैंने पूछा। मैं अब भी उसी प्रकार नेत्र बन्द कर लेटा हुआ था।
"वही सब कुछ, पुराना। मुझसे नाराज़गी, आपसे नाराज़गी, पति से नाराज़गी, भाग्य से नाराज़गी। उसकी निराशा भरी बातें सुनकर ऐसा लगता है, जैसे मुझे हार्ट अटैक आ जाएगा।" मैं खामोशी से पत्नी की बातें सुन रहा था।
"दो-चार दिन व्यतीत होते हैं, मैं स्वयं को सम्हाल पाती हूँ कि तब तक पुनः उसका फोन आ जाता है। मैं बिखर जाती हूँ। इस प्रकार कब तक रह पाऊँगी?" पत्नी की बातें मुझमें निराशा उत्पन्न कर रही थीं। मैं तकिये का सहारा लेकर बैठ गया था। मैं जानता हूँ कि पत्नी घर की बहुत-सी अनावश्यक बातें मुझसे नही बतातीं। मुझे तनाव न हो इसलिए छुपा ले जाती हैं। बहुत आवश्यक हुआ तभी कुछ बताती हैं।
"तुम चिन्ता क्यों करती हो? जीवन में यह सब तो लगा रहता है। हमारे जीवन में भी तो उतार चढ़ाव आये थे। हमारे पास तो किसी का सहारा भी नहीं था। हमने अपने रास्ते स्वयं बनाये कि नहीं? उसके पास माता-पिता का सहारा है। अतः फोन कर लेती है। बस्स इतनी-सी बात है।" मैंने पत्नी को समझाते हुए कहा।मधुमेह से पीड़ित पत्नी बेटी की बात को कहीं दिल से न लगा ले, इसीलिए इसके अतिरिक्त मैं उन्हें और क्या समझा सकता था।

पत्नी को मैंने समझा अवश्य दिया था किन्तु बेटी की चिन्ता मुझे भी होने लगी। क्या होगा इस लड़की का? जीवन के सभी निर्णय अपनी इच्छा से लेने के पश्चात् भी उसके जीवन में कुछ ठीक नही है। जीवन में आ रही कठिनाई से व्याकुल होकर माँ के पास फोन किया करती है।
"चलिए भोजन कर लीजिए। समय हो गया।" पत्नी ने कहा।
"अभी मन नहीं है। दस मिनट बाद चलता हूँ। तुम्हें भूख लग रही हो तो तुम खाकर आराम करो।" मैंने पत्नी से कहा।
"मैं क्यों खा लूँ! दस मिनट में क्या हो जायेगा?" पत्नी ने कहा। उनकी बात भी ठीक थी।
"चलो भोजन निकाल दो।" दो-चार मिनट के पश्चात् मैंने पत्नी से कहा। मन में चिन्ता रखकर इस प्रकार लेटे रहने से भी समस्या कहाँ हल होगी?
उठ कर किसी प्रकार मैंने भोजन किया। बेटी के फोन आने की बात सुनकर भूख यूँ भी खत्म हो चुकी थी। घर-दरवाजे बन्द कर अनावश्यक बत्तियों को बुझाकर मैं सोने के लिए कमरे में आ गया। शरीर और मन थक गया था। पत्नी रसोई समेट रही थीं। कुछ देर में वो भी आ गयीं।

इस घर में अब मैं और मेरी पत्नी ही रहते हैं। एक समय था, जब मेरे दोनों बच्चों से यह घर चहकता-महकता रहता था। आज दोनों विवाहित हैं। बेटा बाहर नौकरी करता है और अपने परिवार के साथ वहीं रहता है। बेटी भी अपनी ससुरल में है।
अब यह घर मुझे व मेरी पत्नी को ही खोलना और बन्द करना होता है। कुछ ही देर में पत्नी भी कक्ष में आ गयी थीं। मुझे नींद आ रही थी, मैं सो गया। सुबह घड़ी के अलार्म के साथ मेरी नींद खुली। पत्नी मुझसे पहले ही उठ गयी थीं। प्रातः के छः बजने वाले थे। मैं अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। इस बीच कामवाली आ गयी थी। उसकी सहायता से पत्नी ने मेरा नाश्ता व ऑफिस का टिफिन तैयार कर लिया था।

आज कार्यालय जाते समय बार-बार मेरा मन उदिग्न हो रहा था। मुझे अपनी बेटी की याद आ रही थी। कार्यालय पहुँचकर मैं थका-हारा अपनी मेज पर बैठ गया। काम में मन नहीं लग रहा था। बार-बार विगत् दिनों की स्मृतियाँ मेरे समक्ष आ रही थीं।
जैसे अभी कल ही की बात है। हँसती-चहकती मेरी बेटी हमारे साथ रहती थी। दिनभर उसका नाम ले-लेकर उसे पुकारने वाले, उसकी पसन्द के बिना घर की चीजें न लाने वाले उसके माता-पिता के हाथों से उसका जीवन कब फिसलता गया, पता ही नहीं चला। जब पता चला तब तक उसके जीवन पर से नियंत्रण हमारे हाथों से फिसल गया था। आज हम इतने विवश हैं कि कुछ नहीं कर सकते।
"क्या हुआ सर्वेश भाई, आज कुछ ढीले लग रहे हो? तबियत तो ठीक है?" मेरे समीप की सीट पर बैठने वाले नरेन्द्र ने पूछा।
"हाँ, सब ठीक है। बस्स, ऐसे ही आज गर्मी कुछ अधिक है।
"हाँ, वो तो है।" नरेन्द्र ने कहा।
"अरे भाई, सर्वेश जी का तो सबसे अच्छा है। दो बच्चे हैं। दोनों को पढ़ा-लिखा कर शादी-ब्याह करके अपने उत्तरदायित्व से छुट्टी पा गये हैं।" पास खड़े राजेन्द्र ने, जो उनकी बातें सुन रहे थे, कहा।
"हाँ भाई, सही कहा। वो भी नौकरी में रहते हुए सब हो गया।" नरेन्द्र ने हँसते हुए कहा।
उनकी बातें सुनकर मैं बस मुस्करा कर रह गया। मेज पर रखी फाइलों को उलटने-पलटने लगा। काम में मन नहीं लग रहा था। बच्चों की चर्चा हुई तो बेटी की स्मृतियाँ पुनः मानसपटल पर दस्तक देने लगीं। यही कोई पाँच वर्ष पूर्व की बात है, देखते-देखते समय कितना आगे बढ़ गया और परिवर्तित हो गया।

उस वर्ष मेरी बेटी एम० कॉम के अन्तिम वर्ष में थी। देखने में खूब आकर्षक, पढ़ने में अच्छी, मेरे घर की रौनक मेरी बेटी। इसी शहर के एक अच्छे काॅलेज में पढ़ती थी। मैंने उसे स्कूटी दिला दी थी, जिसे बड़ी ही कुशलता से वो चलाती थी। फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलती। काॅलेज के अध्यापक भी उसकी बुद्धिमत्ता के प्रशंसक थे। न जाने किस सहेली के सम्पर्क सूत्र से उसकी जान-पहचान उस लड़के से हुई।

समय से घर आने वाली मेरी बेटी, जिससे हम सबको बहुत आशाएँ थीं, देर से घर आने लगी थी। माँ पूछती तो उसकी उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिलतीं। क्या हो गया कुछ देर बाहर रह लिया तो, एक मैं ही तो नहीं तमाम लड़कियाँ बाहर घूम रही हैं, उनके घर में इतनी पूछताछ नहीं होती! आप लोग तो वही पुराने जमाने में जी रहे हैं। उसकी उल्टी-सीधी बातों से घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता।

माँ के लाख समझाने पर उसमें कोई परिवर्तन न होता दिखाई देता। कभी वो समय पर घर आ जाती तो कभी पुनः वही चर्या। थक-हार कर उसकी माँ ने उससे कुछ भी कहना छोड़ दिया। उसकी माँ कहती, "न जाने इसे क्या हो गया है? अब पढ़ाई से अधिक बनाव-शृंगार पर ध्यान देने लगी है।"
"ये उम्र ही ऐसी होती है। इस उम्र में थोड़ा बनाव-शृंगार बच्चे करते ही हैं। इसका अर्थ ये थोड़े है कि वो अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान नहीं दे रही है।" मैं पत्नी को समझाता। मेरी बात सुनकर पत्नी आश्वस्त हो जाती।

"बेटा, छः माह में तुम्हारा एम० कॉम पूरा हो जाएगा। हम चाहते हैं कि समय से तुम्हारा विवाह हो जाए। किन्तु यदि तुम नौकरी करना चाहती हो तो उसके लिए हम तुम्हें समय देंगे। लड़कियों को आत्मनिर्भर होना चाहिए। उसके लिए यदि तुम कोचिंग करना चाहो तो वो भी कर सकती हो।" एक दिन मैंने उसे समझाते हुए कहा था।
"नहीं पापा, मैं अब कुछ नहीं करूँगी। पढ़ते-पढ़ते मेरा मन उब गया है।" कहकर वो अपने कक्ष में चली गयी।
मैंने उसके लिए लड़के देखना प्रारम्भ कर दिया। मेरी बेटी की अच्छी शिक्षा व उसको देखकर कई जगह बात बनने लगी थी।

मैं प्रारम्भ से ही उसके लिए सरकारी नौकरी वाले लड़के देख रहा था। मुझे ऐसे ही लड़के मिल भी गये। एक सरकारी सेवारत ऑफिसर लड़का मुझे पसन्द था। मेरी बेटी को भी वो पसन्द कर गया था। किन्तु मुझे अपनी बेटी से पूछना था। उसकी पसन्द को वरीयता देनी थी। हम इस रिश्ते से बहुत खुश थे। योग्य लड़का हमें मिल गया था।

"माँ, अभी मैं विवाह नही करूँगी।" एक दिन उसने अपनी माँ से कह दिया।
"घर में बैठकर क्या करोगी? न तो तुम कोचिंग जॉइन कर रही हो, न आगे कुछ करना चाहती हो? हमारे भी तो कुछ उत्तरदायित्व हैं, जिन्हें समय से पूरा करना है।" पत्नी ने कहा। इसे बातचीत कहें या वाद-विवाद, ऐसा घर में अब प्रायः होने लगा था।

एक दिन उस लड़के को लेकर हमारी बेटी घर आ गयी, जिससे वो प्रेम विवाह करना चाहती थी।
"क्या करता है?"
"प्राइवेट कम्पनी में जाॅब करता है पापा।"
"प्राइवेट कम्पनी में जाॅब की अनिश्चितता बनी रहती है।"
"ऐसा नहीं है पापा! आजकल तो सभी प्राइवेट कम्पनी में जाॅब के लिए इन्टरेस्टेड हैं।" मेरी बेटी मेरी सभी बातों का अकाट्य उत्तर दे रही थी।
"सैलरी कितनी है उसकी?"
"मुझे नहीं पता। किन्तु ठीक ही होगी।"
"बेटा, हमने तो तुम्हारे लिए सरकारी महकमे में काम करता हुआ ऑफिसर लड़का देख रखा है। वो तुम्हें पसन्द कर गया है।"
"नहीं पापा, मैं अभी विवाह करना ही नहीं चाहती।" मेरे समझाने के प्रयत्न को असफल करते हुए वह इस मुद्दे से ही हट गयी।

देखते-देखते पूरा वर्ष व्यतीत हो गया। मेरी बेटी दिनभर घर में रहती। शाम को बाहर घूमने जाती और दस-ग्यारह बजे रात को घर लौटती। मैं और उसकी माँ जानते थे कि वो उसी लड़के के साथ घूमती-फिरती है। आगे पढ़ने-लिखने और नौकरी के लिए प्रयत्न करने से उसका दूर-दूर तक कोई नाता न था, न कोई रूचि थी। बेटी को इस प्रकार देखकर कभी-कभी उसकी माँ कहती कि, "क्यों न हम उसकी पसन्द के लड़के से उसका विवाह कर दें। वो कहीं और विवाह करने वाली नहीं। उस लड़के के साथ कम से कम खुश तो रहेगी।"
पत्नी की बात मुझे उचित लगी। उधर उस ऑफिसर लड़के के घर से फोन आने लगे कि मिल बैठकर विवाह की तिथि तय कर लें। बेटी की इच्छा को देखते हुए मुझे उनसे क्षमा माँगकर मना करना पड़ा। एक अच्छा रिश्ता हाथ से निकल जाने का दुख बहुत दिनों तक मेरे हृदय को बेधता रहा। आने वाली लगन में मैंने अपनी बेटी का ब्याह उसकी पसन्द के लड़के से कर दिया।

खूब धूमधाम से दोनों पक्षों के मित्र-रिश्तेदारों को अपनी खुशियों में सम्मिलित करते हुए बेटी को ब्याह कर ससुराल विदा कर दिया। सबकुछ ठीक से सम्पन्न हो गया। चार दिनों के पश्चात पग फेरे की रस्म पूरी करने आयी मेरी बेटी पुनः ससुराल चली गयी। बेटी को विदा करने के पश्चात् घर में, मन में व्याप्त सूनेपन से हम जूझते रहे।

समय व्यतीत होता जा रहा था। शनै:-शनै: हमने अपने मन को समझा लिया कि बेटियाँ होती ही हैं पराया धन। बमुश्किल दो माह व्यतीत हुए होंगे कि पति के साथ उसके अनबन की ख़बरें आने लगीं। कभी वो फोनकर माँ को अपनी व्यथा बताती तो कभी फोन की घंटी बजाकर फोन काट देती। जब हम वापस फोन करते तो फोन नहीं उठाती।

उस समय अपनी बेटी की पीड़ा का अनुमान हम तो लगा लेते लेकिन हमारी पीड़ा का अनुमान कोई नहीं लगा सकता था। जीवन की धूप-छाँव व आपाधापी में दो वर्ष और व्यतीत हो गये। इस बीच एक प्रसन्नता ने मेरे नाती के रूप में दस्तक दी। नाती छः माह का होने वाला था। उसे देखने की इच्छा होती और हम बेटी की ससुराल चले जाते।

जब भी हम उससे मिलने जाते, बेटी का निराश व तेजहीन चेहरा देखकर तनावग्रस्त व दुखी होकर लौटते। कभी हाल पूछने के लिए फोन करते तो पति की कमियाँ, जो सचमुच उस लड़के में हमें भी दिखती थीं, बताती। जब हम उसे कुछ भी समझाने का प्रयत्न करते, फोन काट देती। फिर चाहे लाख फोन मिलाते रहो, उठाती नहीं। हम स्वयं को किसी अपराधी की भाँति कटघरे में खड़ा पाते। ये सब चीजें हम लोगों की चिन्ता को बढ़ातीं।

"पापा, इसने नौकरी छोड़ दी है। आप लोगों ने उससे विवाह करने से मुझे रोका नही।" एक दिन बेटी का फोन आया और हमारा रहा-सहा सुख चैन भी छिन गया। मेरी बेटी की रूलाई थम न रही थी। उसके पति का नौकरी छोड़ देना हमारे लिए किसी गहरे आघात से कम न था।

हमने दामाद को फोन किया तो उसने बताया कि कार्यालय में तनाव चल रहा था, इसलिए नौकरी छोड़ दी। अब दूसरे जाॅब की तलाश कर रहा हूँ। दामाद ने बड़े आराम से कहा। आजकल नौकरी शीघ्र मिलती कहाँ है? दो वर्ष हो गये। दामाद आज तक घर में बैठा है। जब भी पैसे की आवश्यकता होती है, दामाद हमसे पैसे माँग कर ले जाता है। आर्थिक तंगी में भी बेटी और नाती का मुँह देखकर हम कभी मना नहीं कर पाते। कहीं न कहीं से पैसों की व्यवस्था कर देते। अब प्रतिमाह एक निश्चित धनराशि हम सहायता के रूप में देते हैं। निश्चित रकम देने के बाद भी वो बहुधा अतिरिक्त पैसे ले जाता है।

पत्नी ने कई बार बेटी को समझाने का प्रयत्न किया कि बेटा, तुम्हें पढ़ा-लिखा कर अच्छी शिक्षा दी है। तुम्हें इस योग्य बना दिया है कि तुम अपने पैरों पर खड़ी हो सको। तुम कोचिंग जॉइन कर, नौकरी की तैयारी करो। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है।"
"मम्मी, आपको कोई परेशानी बताओ तो आप सिखाने लगती हैं।" बेटी की बात सुनकर पत्नी रूआँसी हो जातीं।
मैं समझ जाता कि मेरी बेटी कुछ भी सुनने व मानने को तैयार नही है। न अब तैयार है, न विवाह किया तब तैयार थी। कभी-कभी मैं सोचता कि बच्चे जब माता-पिता की बात नहीं मानते, उनके अनुभवों का लाभ उठाना नहीं चाहते तथा जीवन के प्रमुख निर्णय विवाह इत्यादि अपनी इच्छा से कर लेते हैं तो जीवन की दुश्वारियों को फेस क्यों नही कर पाते? असफल होने पर माता-पिता को दोष क्यों देते हैं?

अब स्थिति ये है कि जब भी हमारी बेटी का फोन आता है, हम सब पहले ही भयभीत हो जाते हैं, यह सोचकर कि न जाने अब कौनसी समस्या आने वाली है। कौन-से आरोप-प्रत्यारोप हम पर लगने वाले हैं? क्योंकि विवाह के पश्चात् आज तक कभी भी उसने अच्छी बात करने के लिए फोन नहीं किया है। कान तरस गये हैं, उसकी तरफ से कोई अच्छी बात सुनने के लिए।

मेरा बेटा दूसरे शहर में रहता है। कभी-कभार किसी तीज-त्योहार में आ जाये तो यही हमारे लिए बहुत बड़ी बात हो जाती है। क्योंकि वो एक निजी कम्पनी में कार्यरत है। उसका परिवार है। उसका उत्तरदायित्व व अवकाश की समस्या उसे यहाँ आने के कम अवसर देती है। रिश्तेदार और ऑफिस वाले समझते हैं कि मेरे सभी उत्तरदायित्व समाप्त हो गये हैं, वो भी नौकरी में रहते हुए। मेरे जीवन में सबकुछ अच्छा है। किन्तु समस्याएँ उसी प्रकार सामने खड़ी हैं। उनका रूप अवश्य बदल गया है।

दिन व्यतीत होते जा रहे हैं। मेरा नाती अब चार वर्ष का हो गया है। उसकी पढ़ाई अभी तक प्रारम्भ नहीं हुई थी। मुझे उसकी भी फिक्र है। मेरे बेटी-दामाद अपनी बनायी हुई समस्याओं में उलझे थे। बच्चे की तरफ किसी का ध्यान नहीं था।
"सुनिए, आज सुम्मु (मेरी बेटी समृद्धि) का फोन आया था। ऐसी-ऐसी बातें करती है कि मन घबराने लगता है।" आज पुनः पत्नी ने कहा।
"हाँ....हूँ’’ पत्नी कहती जा रही थी और मैं बस हाँ हूँ करता जा रहा था।
"बिलख-बिलख कर रो रही थी। कह रही थी कि मम्मी मैं फँस चुकी हूँ। ये आदमी कुछ करना नहीं चाह रहा है। घर में बैठा है।" सुम्मु की बातें सुनकर दिल घबराता है। क्या करूँ?"

पत्नी की बात सुनकर अगले दिन मैंने बेटी के घर जाने का निर्णय किया। मैं अपनी लड़की के घर जाने से बचता हूँ। मेरा मानना है कि उसे अपने जीवन को अपने ढंग से सँवारने-बनाने का अवसर देना चाहिए। मुझे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए किन्तु अब पानी सिर के ऊपर से गुजरता प्रतीत हो रहा था और मुझे ऐसा लगा था कि हमें माता-पिता के उत्तरदायित्व का वहन अब भी करना चाहिए। उसकी समस्याओं के समाधान में उसकी सहायता करनी चाहिए।

मैं बेटी के घर पहुँचा। उसका हाल देखते ही मैं फक् रह गया। ये क्या हाल होता जा रहा है उसका? स्मार्ट, आकर्षक, नये-नये ब्राण्डेड कपड़े पहनने वाली, पढ़ने में मेधावी, एम० कॉम की हुई लड़की ने अपना क्या हाल कर लिया है? कमजोर शरीर, निस्तेज चेहरा, हमें देखते ही चेहरे पर फीकी हँसी। वह चुपचाप आकर हमारे सामने सोफे पर बैठ गयी। कुछ देर तक हमारे बीच खामोशी पसरी रही। कमरे में हम तीनों के अतिरिक्त कोई नहीं था।

"बेटा तुम नौकरी के लिए प्रयत्न करो।" मैंने बात प्रारम्भ करते हुए कहा।
"पढ़ाई छूटे हुए पाँच वर्ष हो गये हैं पापा!" उसने कहा।
"तो क्या हुआ...? तुम कोचिगं जॉइन करो। पैसे हम देंगे। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। सबकुछ नए सिरे से प्रारम्भ किया जा सकता है।" मैंने समझाते हुए कहा।
"आप दूसरी बार नाना बनने वाले हैं।" दामाद ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा। उसने हमारी बात सुन ली थी। मेरा नाती दामाद की उंगली पकड़े हुए था। वह छोटा-सा बच्चा मासूमियत से सबकी ओर देख रहा था। दामाद की बात सुनकर हमारे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। आगे हम कुछ और कह पाने की स्थिति में नही थे।

"कोई बात नहीं बेटा, इसके बावजूद भी तुम बहुत कुछ कर सकती हो। हम तुम्हारे साथ हैं। बस, तुम आगे बढ़ो।" कुछ क्षण रूककर मैंने अपना प्रयास जारी रखा। हमारी बातचीत के बीच पत्नी चुप थीं। उन्हें पता था कि यदि वो कुछ भी बोलेंगी तो बात बिगड़ने के अवसर बढ़ जाएँगे। मेरी बेटी अपनी माँ की बात न तो विवाह के पहले सुनती थी, न अब सुनने-मानने को तैयार रहती है।
"पापा इस स्थिति में जबकि मैं फँस चुकी हूँ।" उसने पुनः अपनी वही बात कही।
"तुम्हारे भीतर का हौसला शेष है तो सबकुछ शेष है बेटा।" मेरी बेटी मेरी बात सुन रही थी किन्तु उसके चेहरे पर वही निराशा के भाव थे।
"बेटा, कितने ही ऐसे उदाहरण हैं, जब बेटियों ने बच्चों की परवरिश करते हुए उच्च पदों पर नौकरियाँ प्राप्त की हैं। तुम इतनी पढ़ी-लिखी हो बेटा! तुम स्वयं आत्मनिर्भर बनकर दूसरों को सहारा दे सकती हो। रही बात बच्चों की तो काम के सिलसिले में तुम्हारे बाहर रहने पर उन्हें सम्हालने के लिए दामाद जी व हम लोग हैं।" मैं समझाता रहा किन्तु समृद्धि ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।

मैं और उसकी माँ निराश होकर घर चले आये। रास्ते भर पत्नी बार-बार रो पड़ती- कैसी अच्छी थी हमारी बेटी, लाखों में एक, अब कैसी हो गयी है। हम घर आ गये। किसी प्रकार शाम ढली। रात्रि ने अपने पाँव फैलाने शुरू किये। मैं अपने कमरे में अव्यवस्थित कुछ चीजें ठीक कर रहा था। मन कुछ उदिग्न था। पत्नी रसोई में शाम का भोजन बनाने में व्यस्त थीं। मुझे बार-बार पत्नी के कहे गये शब्द याद आ रहे थे। सही तो कह रही थीं, लाखों में एक थी मेरी बिटिया। सहसा फोन की घंटी से मेरी तंद्रा भंग हुई। फोन उठाकर देखा तो समृद्धि का फोन था।
"पापा मैं नौकरी के लिए तैयारी करना चाहती हूँ। आप पता करके फीस वगैरह जमा करा दीजिए। डिलीवरी के पश्चात् मैं नौकरी के फार्म भरना प्रारम्भ कर दूँगी। जितनी शीघ्र हो सके, मैं कोचिंग प्रारम्भ करना चाहती हूँ।" बेटी की बात मैं ध्यान से सुन रहा था। अच्छा लग रहा था। किन्तु मन की प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नही थे।
"पापा, मम्मी कहाँ हैं?"
"रसोई में हैं बेटा। मैं उनको फोन देता हूँ.....।" कहकर मैं रसोई की ओर बढ़ चला।

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रचनाकार परिचय

नीरजा हेमेन्द्र

ईमेल : neerjahemendra@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तरप्रदेश)

शिक्षा- एम०ए० (हिन्दी साहित्य), बी०एड
संप्रति- अध्यापन
प्रकाशन- कहानी संग्रह- 'बियाबानों के जंगल', 'धूप भरे दिन', 'मुट्ठी भर इच्छाएँ', 'माटी में उगते शब्द (ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ), 'जी हाँ, मैं लेखिका हूँ', 'अमलतास के फूल', 'पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें' (प्रेम कहानियाँ), '....और एक दिन'। आत्मकथा- 'पथरीली पगडंडियों का सफ़र'। उपन्यास- 'अपने-अपने इन्द्रधनुष ', 'उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए'। ललई भाई (एक राजनैतिक गाथा)। कविता संग्रह- 'मेघ, मानसून और मन', 'ढूँढ कर लाओं ज़िंदगी', 'बारिश और भूमि', 'स्वप्न'।
हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल सुलभ रचनाएँ एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनाएँ आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित। हिंदी समय, विश्व गद्य कोश, विश्व कविता कोश, मातृभारती, प्रतिलिपि, हस्ताक्षर, स्त्रीकाल, पुरवाई, साहित्य कुंज, रचनाकार, हिंदी काव्य संकलन, साहित्य हंट, न्यूज बताओ डॉट कॉम, हस्तक्षेप, नूतन कहानियाँ आदि वेब साईट्स एवं वेब पत्रिकाओं में भी रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान। फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार। सेवक साहित्यश्री सम्मान। हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान। कथा साहित्य विभूषण सम्मान। अनन्य हिंदी सहयोगी सम्मान आदि।
पता- 'नीरजालय', 510/75, न्यू हैदराबाद, लखनऊ (उत्तरप्रदेश)- 226007
मोबाइल- 9450362276