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इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। फ़रवरी 2025 के प्रेम विशेषांक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

सीमा विजयवर्गीय की ग़ज़लें

सीमा विजयवर्गीय की ग़ज़लें

जहाँ इक तड़प हो, समर्पण हो दिल में
वो रिश्ते निभाना, अगर हो सके तो

ग़ज़ल- 01

समझदारों की बस्ती में अकेला पड़ गया होगा
शराफ़त साथ लेकर वो भला कैसे चला होगा

कहाँ ज़िंदा रहा होगा वो जीकर मर गया होगा
कि बूढ़े बाप ने बेटे को जब काँधा दिया होगा

जनाज़ा देखकर जो कस रहा था फ़ब्तियाँ हँसकर
कोई शैतान उस इंसां के चेहरे में छिपा होगा

जहाँ ज़िंदा न हो जज़्बा, जहाँ पत्थर हुए हों दिल
कबीरा ऐसी बस्ती में तो तू पल-पल मरा होगा

बड़े अरमान से उसने किया है ब्याह बेटी का
मकां या खेत या गहना कहीं गिरवीं रखा होगा

बस इक विश्वास की ही डोर थी आपस के रिश्तों में
वही टूटी तो रिश्तों में भला फिर क्या बचा होगा

दिखाई दे रहा है आज जो खिलता हुआ चेहरा
न जाने कितने अरसे से गरल वो पी रहा होगा

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ग़ज़ल- 02

प्रेम के सुर बहुत ही अलग, ये तराना है बिल्कुल अलग
इसको सुनना अलग बात है, इसको गाना है बिल्कुल अलग

प्रेम में डूबकर प्रेम ने, बात जानी यही प्रेम की
इसका खोना अलग बात है, इसका पाना है बिल्कुल अलग

बात जो मैं तुम्हें कह रही, ग़ौर से तुम सुनो लड़कियो
दिल की मासूमियत है अलग और ज़माना है बिल्कुल अलग

राह चुनना बहुत सोचकर, तुम भटकना नहीं राह में
प्रेम की तो डगर ही अलग और ठिकाना है बिल्कुल अलग

छल-फ़रेबों के माहौल में, तुम समझ लेना इस बात को
प्यार करना अलग बात है पर निभाना है बिल्कुल अलग

मुस्कुराना अलग बात है, खिलखिलाना अलग बात है
रूह तक को जो झकझोर दे, वो फ़साना है बिल्कुल अलग

प्रेम रूहानी है जो बंधा, एक विश्वास की डोर से
कृष्ण-राधा ने जो भी जिया, वो ख़ज़ाना है बिल्कुल अलग

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ग़ज़ल- 03

वो अपनापन, वो भोलापन, वो व्यवहार बचा ही होगा
गाँवों में अब भी थोड़ा तो पिछला प्यार बचा ही होगा

काट दिए होंगे सब पीपल, पक्का होगा घर का आँगन
घर के पिछवाड़े में फिर भी वो कचनार बचा ही होगा

पहले की-सी हवा सुहानी बदल गई होगी गाँवों में
बूढ़े बरगद की छाया में पर वो प्यार बचा ही होगा

शहरों की दिनचर्या लेकर, गाँव बहुत बेचैन दिखे पर
कजली, चैती और ठुमरी का वो गुंजार बचा ही होगा

हँसी-ठिठोली करता घूमे, चाची-भाभी से जो रूठे
गाँवों की गलियों में अब भी वो किरदार बचा ही होगा

पनघट की वो अल्हड़ मस्ती कहीं खो गई गाँवों में पर
बासन्ती रुत का पहला-सा वो सिंगार बचा ही होगा

नई हवाएंँ उड़ा ले गईं गाँवों की थाती को लेकिन
हुक्के और अलावों में अब भी मनुहार बचा ही होगा

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ग़ज़ल- 04

वो मीठा तराना, अगर हो सके तो
मुझे फिर सुनाना, अगर हो सके तो

जो कबिरा की झोली में हैं ढाई आखर
उन्हें गुनगुनाना, अगर हो सके तो

जहाँ इक तड़प हो, समर्पण हो दिल में
वो रिश्ते निभाना, अगर हो सके तो

यहाँ मेरे पुरखों की यादें बसी हैं
ये घर मत ढहाना, अगर हो सके तो

जला तो रहे हो महल ख़्वाहिशों के
इन्हें फिर बनाना, अगर हो सके तो

कभी हसरतों ने जलाया था दीपक
वो दीपक बचाना, अगर हो सके तो

नहीं हल निकालो सुनो नफ़रतों से
दिलों को मिलाना, अगर हो सके तो

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ग़ज़ल- 05

मेरी आँख का वो ही तारा किधर है
मेरा लाडला वो दुलारा किधर है

जिगर का वो टुकड़ा रखे दूरियाँ अब
वो बचपन का प्यारा सितारा किधर है

उतरता नहीं था जो काँधे से मेरे
बताओ वही प्राण-प्यारा किधर है

थकी हड्डियाँ भी ये पूछे हैं मुझसे
बुढ़ापे का तेरा सहारा किधर है

बनाया था जो घर बहुत ही जतन से
वो ख़ुशियों से महका नज़ारा किधर है

जो दिखता था हमको जहां से निराला
वो ही लाल प्यारा हमारा किधर है

तुम्हीं तो उसे चाँद कहकर बुलातीं
बताओ वो चंदा तुम्हारा किधर है

भँवर में फँसी है ये कमज़ोर कश्ती
मेरी ख़्वाहिशों का किनारा किधर है

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वसंत जमशेदपुरी

08 April 2025

हर शेर पर वाह वाह और वाह वाह

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रचनाकार परिचय

सीमा विजयवर्गीय

ईमेल : seemavijay000@gimail.com

निवास : अलवर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 3 नवम्बर
जन्मस्थान- अलवर( राजस्थान)
लेखन विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, दोहा, गद्य आदि
शिक्षा- एम० ए०, बी० एड एवं पी-एच डी
सम्प्रति- हिंदी व्याख्याता
प्रकाशन- चार ग़ज़ल संग्रह 'ले चल अब उस पर कबीरा', 'रज़ा भी उसी की', 'तेरी ख़ुशबू मेरे अंदर' एवं 'बुद्ध होना चाहती हूँ' प्रकाशित
प्रसारण- दूरदर्शन एवं रेडियो पर ग़ज़लों का प्रसारण
पता- 2/84, स्कीम- 10 बी, अलवर (राजस्थान)
मोबाइल- 7073713013