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रामेश्वर सिंह कश्यप की भोजपुरी कहानी 'मछरी' का अवधेश प्रसाद सिंह द्वारा अनुवाद

रामेश्वर सिंह कश्यप की भोजपुरी कहानी 'मछरी' का अवधेश प्रसाद सिंह द्वारा अनुवाद

एक तरफ झींगुर की मनहूस आवाज़ वातावरण को बोझिल कर रही थी तो दूसरी तरफ नीम के फूलों की गंध से मत्त हवा जैसे गिरती-पड़ती चल रही थी। कुंती का बहुत मन था कि दिन भर के चूल्हे-चौके से तपती देह को तालाब के पानी की शीतलता से सराबोर कर ले।

कुंती बहुत देर से ताल के पानी में अपना पैर लटकाये बैठी थी। पानी की लहरें पैरों की उंगलियों में रेशम की डोर की तरह लिपटतीं तो कभी आपस में उलझतीं। पैरों के तलवों को स्पर्श करती ताल के पानी की कनकनी पूरे शरीर में गुदगुदी करती हड्डियों तक समा जाती। पानी में तैरती झींगा मछलियॉं जब एड़ी के नज़दीक अठखेलियाँ करती, उन्हें छूतीं तो समूचा शरीर सिहर उठता था। नज़दीकी घास में मेंढक अपनी टर्र-टर्र से वातावरण को सजीव बनाए हुए थे। कभी- कभी उनके पानी में छलांग लगाने से पानी में वर्तुल बनने लगते और पानी पर तारों की छाया आपस में गुत्थमगुत्था हो जातीं।

एक तरफ झींगुर की मनहूस आवाज़ वातावरण को बोझिल कर रही थी तो दूसरी तरफ नीम के फूलों की गंध से मत्त हवा जैसे गिरती-पड़ती चल रही थी। कुंती का बहुत मन था कि दिन भर के चूल्हे-चौके से तपती देह को तालाब के पानी की शीतलता से सराबोर कर ले। रसोई घर में चूल्हे में गीली लकड़ियों को मुँह से फूँक-फूँक कर आग सुलगाते, मन जैसे उजबुजा गया था, पसीने से तरबतर साड़ी शरीर से चिपक गई थी। किसी तरह मन मारकर, सबको भोजन करा, फजिरे (सुबह) में बर्तन धोने के लिए पानी लेने आई थी। रात के जूठे थाली, कटोरे और पतीले को अगर पानी में डालकर नहीं रखेगी तो सुबह तक सब खरकट (जूठन के सूखने पर बर्तन का खुरदुरापन) जाएँगे और उन्हें धोना और मुश्किल हो जाएगा। पर हिम्मत नहीं नहीं पड़ी और शरीर को निढाल छोड़, चुपचाप बैठ गई।

ताल के दाहिनी ओर उसके घर के दरवाज़े पर ढिबरी की मटमैली लाल रोशनी में अपनी पूंछ से मच्छरों को उड़ाने का असफल प्रयास करती उसकी भैंस दिख रही थी। धवरा बैल एक कोने में पगुरा रहा था। कुंती को लगा कि सोते हुए उसकी माँ की नाक बज रही होगी। पिताजी भी या तो सो गये होंगे या आँख बंद किए महटिआए (सोने का बहाना) हुए होंगे। दमे का दौरा पड़ा होगा और उनका सीना खौलते पानी की तरह हनर-हनर (गले की घरघराहट) कर रहा होगा। घर में एक ही खाट पर नई माँ के सभी बच्चे गुड़मुड़ा (एक-दूसरे से चिपके) सो रहे होंगे। किसी का सिर खाट के सिरहाने से नीचे लटक रहा होगा तो किसी का पैर ओरचन (खाट की बुनावट को कसा हुआ रखने के लिए पैताने से बंधी रस्सी) में फँसा होगा। इन सबको सीधा करुँगी तो सब केंकियायेंगे (कुनमुन करना)। माँ मुझे कोसेगी। कितने विषैल शब्द-बाण छोड़ेगी- ई कुलच्छनी लड़की इन लड़कों से जलती है। इन सबको बात-बेबात तंग करती है। इसका वश चले तो सबको तड़पा-तड़पाकर मार डालेगी। बाबूजी भी बेहाल होकर उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर अपनी बेबसी प्रकट करेंगे- अरे, क्यों रुला रही है बेचारों को! हमको जीने देगी कि नहीं? एक तो दमा तंग किए हुए है, खाँसते-खाँसते दम निकला जा रहा है, उस पर ये दिन रात की खटपट। माँ को और शह मिलेगी और मुझे मिलेगी और ज़हरीली गालियाँ- इसकी चाल-चलन देखकर मेरे तन-मन में आग लग जाती है। एकदम पत्थर दिल है! कोई मरे या जिये, इसे किसी की परवाह नहीं।

घर की याद आते ही कुंती का मन उदास हो गया। जैसे हरी घास पर चलते हुए पाँव के नीचे कंकड़ आ गया हो। न चाहते हुए भी आंखों में पुरानी यादें तैरने लगीं। शायद नौ बरस की रही होगी, जब उसकी माँ गुज़र गई थी। बरबस ही उसकी आँखों के सामने माँ की मृत्यु का दृश्य सिनेमा के रील की तरह चल रहा था। माँ का शरीर सूखे बैंगन की तरह सिकुड़ गया था। बीमार थी पर इलाज के नाम पर गाँव के ही टहल-ओझा झाड़-फूँक करते रहे थे। फिर एक दिन माँ का सिर एक तरफ झूल गया। सभी बूढ़ी औरतें बुक्का फाड़कर रोने लगीं। मुझे तो जैसे काठ मार गया था। दादी हमको अपनी छाती से लगाकर ज़ोर-ज़ोर से रो रही थीं और माँ के गुणों का बखान कर रही थीं। रिवाज़ के मुताबिक काम-किरिया हुआ। मैं जब तक उस दुख से उबरती तब तक बाबूजी दूसरा ब्याह रचाकर नई दुल्हन ले आए। मालूम तो रहा ही होगा पर, आते ही मुझे देखकर मुँह बिचकाकर पूछा- "तू ही कुंती है? मेरी सौत की बेटी?"

मैंने हाँ मे सिर हिलाया। वो दिन था और आज, एक दिन क्या पल भर को भी मुझे चैन नहीं लेने दिया। दुश्मन क्या सताएगा किसी को जितना, उसने मुझे सताया! इन दस बरसों में नरक से भी बदतर ज़िंदगी रही है हमारी। हर बरस उनको बच्चा होता, एक-एक कर पाँच हुए पर बचे एक भी नहीं। दिन-रात मुझे कोसती, "यही हंड़साखिन सबको खा गई।"

उमर भी थी पर, रोज़ के क्लेश और बच्चों के जाने का दुख, बाबूजी को दमे ने अपनी चपेट में ले लिया। माँ रोज़ ही बीमारी का बहाना बना सोई रहतीं। घर के परिवार की छोड़िए, गाय- भैंस का गोबर-पानी भी मुझे ही करना पड़ता। माँ किसी काम को हाथ तक नहीं लगातीं। शरीर को तो जैसे चरखा बना दिया था। कोल्हू के बैल की तरह बिना रुके मुझे ही चलना था। बाबूजी की लाचारी और नयकी माँ का ज़ुल्म ऐसा बढ़ा कि चाचा जी अलग ही हो गए। सुबह से कब शाम होती, काम के चक्कर में पता ही नही चलता। अपना चेहरा भी नहीं देखा आइने में माँ के जाने के बाद। पुरानी बातें याद कर कुंती का सिर फटा जा रहा था। लगा, जैसे शरीर पर हज़ारों लाल चींटियाँ रेंग रही हों। शरीर पर कोई वश न रहा, अपनी देह अपनी नहीं लग रही थी। उफ्फ!

अष्टमी का चंद्रमा सड़े तरबूजे की फाँक की शक्ल बनाए बांस की फुनगी पर जैसे फँस गया लगता था- फीका, कुछ उदास और सकुचाया हुआ। वातावरण में घुले धूल और धुएँ ने मिलकर आसमान का रंग सलेटी कर दिया था। देर तक ठंडे पानी में डुबाए रहने से कुंती के पैर जैसे जम गए थे, उनमें ऐंठन पड़ने लगी थी। उसने धीरे-से अपना पैर पानी से निकाला। मन हुआ कि घर जाए। रात भी बहुत हो चुकी थी पर शरीर ने साथ न दिया, पोर-पोर टूट रहा था। और कुछ न सुझा तो एक खपड़े के टुकड़े से रगड़कर अपनी एड़ियों का मैल छुड़ाने लगी।

मन में उठ रहे ख़यालों की कड़ी फिर जुड़ने लगी। पिछले तीन सालों से उसे अकेलेपन से डर लगने लगा था। भांति-भांति के विचार मन में उठने लगते पर सोचने से क्या फायदा! मन तनिक भी खाली होता तो बैताल की तरह फिर उसी डाल पर जा बैठता। मन फिर भटकने लगता। न जाने कैसे-कैसे उल्टे-सीधे ख़याल आते। "इनसे दूर रहने के लिए ही तो अपने को काम में खपाये रखती हूँ। मेरी हमउम्र सारी सहेलियों की शादी हो गई। कई तो बाल-बच्चों वाली भी हो गई हैं। वे सास-ससुर और अपने मरद की बातें करती रहती हैं। खोद-खोदकर एक-दूसरे की बात पूछतीं, अपनी कहतीं और मज़े लेतीं। मेरा मन इसमें बिलकुल नहीं लगता पर जब सामने बात हो रही हो तो भला कब तक मैं कान बंद किये रहती। झूठ नहीं बोलूँगी, जिस दिन ये बातें सुनती, उस दिन सो नहीं पाती, सारी रात करवट बदलती रहती। मैं भी मन ही मन अपने होने वाले सास-ससुर के बारे में सोचती। पता नहीं, कैसा स्वभाव हो उनका और पति भी कैसा मिले, किस स्वभाव का हो! अपनी-अपनी किस्मत। यहाँ नैहर में कौन सुख मिला है? दिन-रात सौतेली माँ की किच-किच से तो अच्छा ही होगा। माँ का कोई लक्षण नहीं उसमें। बोलती है तो लगता है, जैसे जलता अंगार डाल दिया हो पूरे शरीर पर। बाबूजी भी पूरी तरह उसके वश में हैं। उसकी इच्छा के खिलाफ एक कदम नहीं चल सकते। पिछले के पिछले साल बाबूजी एक जगह शादी ठीक भी कर दिए थे पर माँ को बिना मजूरी के मेरे जैसी हाड़-तोड़ कर काम करने वाली कहाँ मिलती! उन्होंने ज़िद ठान ली- नहीं, इस साल शादी न करके बैल ख़रीदा जाएगा, बटाई पर नहीं, अपने से खेती करेंगे। मैं सब समझती थी कि वह ये सब मेरी शादी टालने के लिए ही कर रही है पर क्या बोलते! मेरी शादी के लिए जोड़े गए रुपये से बैल ख़रीद लिए गए थे। तिलक कहाँ से दिया जाता। पिछले साल पिता जी ने फिर एक जगह बात चलाई। लड़का दुआह था। डाकिए का काम करता था। सब पक्का ही हो गया था। सखी-सहेली भी मनीआर्डर वाला तो कोई लिफाफ़े-पोस्टकार्ड वाला कहकर मज़ाक करतीं। मैं मन ही मन ख़ुश थी कि चलो, शादी होने पर इस कर्कशा सौतेली माँ से तो जान छूटेगी। लड़का दुआह है तो क्या हुआ। पर, वाह रे मेरी सौतेली माँ! उसने तो ऐसा नाटक किया कि मत पूछिए।

"हम कुंती की शादी दुआह लड़के से हरगिज़ नहीं होने देंगे। सब लोग ताना मारेंगे कि सौतेली बेटी थी, इसलिए उससे छुटकारा पाने के लिए दुआह लड़के के पल्ले बाँध दिया। ये जीवन भर का कलंक मैं अपने माथे पर नहीं ले सकती।" बाबूजी तो माँ के ख़िलाफ़ जा ही नहीं सकते थे और मैं, मैं तो सब समझती ही थी कि मेरी जैसी मुफ्त की नौकरानी को मेरी माँ खोना नहीं चाहती। मेरे जाने के बाद उनके बच्चों को पालता कौन!

कुंती को लगा जैसे उसके गले में कुछ फँस गया हो। गले और सीने की हड्डी तक में पके घाव की तरह टभक (चुभता हुआ दर्द) उठ रहा था। पूरा शरीर जल रहा हो जैसे। दिमाग़ की नसें ताँत की तरह तनी थीं, लगता अब फटीं कि तब फटीं। साँस धौंकनी की तरह चल रही थी। गर्म साँस उसके होठों पर पसर गई थी। जवानी का गदराया हुआ शरीर, साँसों का उठता ज्वार जैसे समुद्र की लहरें बार-बार किनारे से टकरा रही हों, होंठ ऐसे कांप रहे थे, जैसे सुबह की शीतल बयार में बबूल के पत्ते कांपते हैं। दूर छोटी लाईन पर छुकछुक रेलगाड़ी ऐसे चल रही थी, जैसे मनियार (करैत) सांप। शुक्ल पक्ष की अंजोरिया धीरे-धीरे मद्धम पड़ती जा रही थीं, जैसे कोई बीमार आदमी साँस फूलने से थककर धीमे-धीमे चल रहा हो। कुंती ने एक लंबी साँस छोड़ी। जैसे गर्मी में लू के थपेड़े सहते-सहते बौर से लदे आम के वृक्ष मुरझा जाते हैं, वही हाल उसके शरीर का हो चला था। "पता नहीं कब तक ऐसे चलेगा! जवान शरीर, लगता जैसे सबकी नज़रें मुझे ही नाप रही हों। अब उस दिन की ही बात देख लीजिए, मैं अक्षयवट सिंह की छत पर गेहूं सुखाने गई थी तो उनका भांजा धीरे से नज़दीक आकर मेरा नाम पूछने लगा। सुनती हूँ, पटना रहकर पढ़ाई करता है। उस मुँहझौंसे को मन हुआ कि ख़ूब सुनावें- "तुमको मतलब क्या, हमारा नाम कुछ भी हो?" लेकिन अपने को रोक लिया। वह मेरे तमतमाए चेहरे को देख भाग खड़ा हुआ। बिरिछा काका के लड़के का वही हाल। नहाने के लिए ताल पर ही जाना पड़ता और वह किवाड़ कहने को तो बंद किये रहता पर उसके बीच से घंटों मुझे नहाते देखता रहता। मैं मउगा की चाल ख़ूब समझती थी। कभी-कभी तो मन करता कि कान के पीछे एक थप्पड़ मारें। देह सींक जैसी और चले हैं इश्क लड़ाने। सच कहती हूँ वह मेरा थप्पड़ खाकर खड़ा नहीं रह सकता। किसका-किसका नाम लें? ऊ बंसिया कौन कम है। सिल्क का कुर्ता झाड़ के दिन में कई बार मेरे घर का चक्कर लगाता है। इनकी नस-नस को पहचानती हूँ मैं। अपने को संभालती, इनसे बचकर रहती हूँ। पर कब तक? कब तक डर-डरकर दिन बिताऊं?"

कुंती भी अपनी देह, अपने भीतर उठते तूफान से अपरिचित नहीं थी। जैसे सांप का जहर धीरे-धीरे उसके शरीर पर चढ़ रहा हो। गीली लकड़ी की आग की तरह, भले लपटें न उठ रही हों पर तपिश से त्रस्त वह भी है। उसके अंदर आग लगी है, धुएँ से दम घुटा जा रहा है, अंग-अंग पारे की तरह बिखर रहा है। गाँव के दक्खिन सिवान पर कुत्ते भौंक रहे हैं, खेतों मे सियार फेंकार मार रहे हैं। चरत्तर काका काली मंदिर में पाठ समाप्त कर घर लौट रहे हैं। उनकी खड़ाऊं की खटर-खटर की आवाज़ नज़दीक आती जा रही है। इस समय मुझे यहाँ देख न जाने क्या सोचें। झप्प से तालाब में घड़े को डुबाया, बुड़-बुड़ करता पानी भर गया। घड़े को कमर पर टिकाकर तेज़ क़दमों से घर की ओर चल पड़ी। घर के दरवाज़े से हटकर एक तरफ नेनुआं का लत्तर छप्पर पर चढ़ाया गया था। जैसे ही वह उसके नज़दीक पहुँची, उसे वहाँ किसी के होने की आहट मिली। रात के अंधेरे में किसी आदमी की छाया दिखाई पड़ी। थोड़ा डर लगा और कुछ घबरा भी गई। "कौन?"
बंशी डरे-डरे घिघियाने लगा- "तुम्हें मेरी क़सम, एक बार मेरी बात तो सुन लो।"
कुंती के तो हाथ-पैर कांपने लगे। किसी तरह घर के अंदर दाखिल हो, उसने दरवाज़ा बंद कर लिया। उसका सीना ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था, जिसे वह साफ-साफ सुन पा रही थी। माथे पर पसीने की बूँदें जमा हो गईं। घड़े को थवना (गाँव में पीने का पानी घड़े में भर कर जिस ऊंचे स्थान पर रखा जाता है- थवना, थान, स्थान) पर रख मन ही मन बंशी को ख़ूब गालियाँ दीं उसने।

वह तो अच्छा हुआ कि माँ आँगन में नहीं थी, वरना एक अलग बखेड़ा खड़ा हो जाता। सभी बच्चे सदा की भांति खाट पर पसरे सोये थे। बाबूजी के घर में से दिये की रोशनी बाहर आ रही थी। माँ-बाबू जी में कुछ खुसुर-फुसुर हो रही थी। अपना नाम सुनकर उत्सुकता बढ़ गई। दबे पाँव गयी और घर के दरवाज़े से कान लगाकर खड़ी हो गई। माँ बाबूजी को समझा रही थी, "इस साल तो कुंती के ब्याह की बात सोचिएगा भी नहीं। आपकी दमे की बीमारी फिर उखड़ गई है। आपको बनारस ले जाकर ईलाज कराऊँगी। मुझे भी अपनी जाँच करानी है।"
बाबूजी की आवाज़ सुनाई पड़ी, "सो तो ठीक है, पर, अब गाँव-घर के लोग भी ऊंगली उठाने लगे हैं। कब तक जवान-जहान बेटी को घर में बिठाए रहेंगे?"
माँ भड़क कर बोली, "वाह, ये कोई बात हुई? लोग कुएँ में कूदने को कहेंगे तो कुएँ में कूद जाएँगे? इस साल नहीं तो अगले साल कर देंगे। कोई मछरी है, जो सड़ जाएगी?"
बाबूजी माँ की हाँ में हाँ मिलाते हुए बोले- "ठीक ही कह रही हो, कोई मछरी थोड़े है जो सड़ जाएगी। इस साल न तो अगले साल सही।"

कुंती को लगा जैसे हज़ारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया हो। बेहोशी में अपनी खाट की तरफ भागी। आँगन मे रखी एक जूठी थाली पर पैर पड़ा और झन्न की आवाज़ हुई। माँ भीतर से ही चिल्लाई- "क्या हुआ रे कुंतिया?"

कुंती का मन कर रहा था कि जी भर के रोये। आज तक कभी खुलकर हँस नहीं पाई थी, कम से कम फफक-फफककर रो तो ले। मन हुआ कि लाज-शर्म छोड़ कर बाबूजी के सामने खड़ी होकर कह दे- "बेटी मछरी ही है बाबूजी, पानी से बाहर कब तक जियेगी? सड़ेगी नहीं तो बिलार उठाकर ले भागेगा।"
किसी तरह अपने को संभाला और कहा- "कुछ नहीं हुआ, माँ, बिलार था, भाग गया। बिल...बिल..भाग"।

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रचनाकार परिचय

अवधेश प्रसाद सिंह

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