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राम नगीना मौर्य की कहानी 'तो अंत नहीं'

राम नगीना मौर्य की कहानी 'तो अंत नहीं'

परिवार में शादी के सिलसिले में देवकान्त जी को गाँव जाना था। लगभग दस दिन की छुट्टियाँ बिताने के बाद जब वो ऑफिस आये तो सबसे पहले उनकी मुलाक़ात ऑफिस के डाक बाबू मोहसिन ख़ान से हुई। उसने उन्हें सुबह-सुबह वो सील-बंद लिफाफा रिसीव करवाते हुए उसे शीघ्र पढ़कर देखने को कहा था।
लिफाफा खोलते ही देवकान्त जी के होश उड़ गये।

"देवकान्त जी! आपका फोन आया था।"
"किसका फोन? कहाँ से आया था?" आफिस पहुँचते ही लगभग अकबकाए स्वर में चपरासी ने जब यह ख़बर देवकान्त जी को दी तो उसकी देहभाषा को देखते अपने मेज की ड्रार खोलते उन्होंने उत्सुकतावश पूछना चाहा।
"अधिष्ठान प्रकोष्ठ वाले रामजतन बाबू का फोन था। कह रहे थे कि देवकान्त जी जैसे ही आएँ, उन्हें अधिष्ठान में भेज दीजिएगा।" चपरासी ने पुनः उसी कौतुहलता से जवाब दिया।
"ठीक है, मैं देखता हूँ। काम शुरू करने से पहले अधिष्ठान में ही हो आता हूँ।" यह कहते देवकान्त जी ने अपने मेज की ड्रार को बंद करते हुए अधिष्ठान का रूख किया। पता नहीं क्या बात है? यूँ अचानक अधिष्ठान से बुलाहट की वजह से उनके मन-मस्तिष्क में तमाम तरह की शंकाएँ-आशंकाएँ सिर उठाने लगीं।

"आइए देवकान्त जी! आज आपको ऑफिस आने में देर कैसे हो गयी?" देवकान्त जी को देखते ही यह प्रश्न करते, रामजतन बाबू ने उत्साहपूर्वक उनका ऐसे स्वागत किया मानो वो उनकी प्रतीक्षा में ही थे।
"कुछ ख़ास नहीं, आज बस्स ऐसे ही देर हो गयी। शहर में जाम के तमामों झाम से तो आप भी अच्छी तरह वाकिफ हैं। उस पर आज एक नेता जी की चुनावी रैली भी थी, जिससे एक तरफ का तो पूरा रास्ता ही बंद हो गया था। ट्रैफिक-जाम में लगभग पौन घण्टे तक फँसा रह गया। बहरहाल आप बताइए! कैसे याद किया मुझ नाचीज़ को?" कहते हुए देवकान्त जी ने प्रकृतिस्थ होने का प्रयास किया।
"अरे! जनाब थोड़ा धीरज रखिये। ये लीजिए चाय भी आ गयी। पहले इत्मिनान से चाय पीजिए। आपको एक खास ख़बर देनी है बल्कि दिखानी है। देखेंगे तो उछल जाएँगे।" अपने बुलावे के कारणों को जानने के लिए अधिष्ठान प्रकोष्ठ में पहुँचने पर देवकान्त जी, रामजतन बाबू के सामने रखी कुर्सी पर अभी बैठे ही थे कि ऑफिस-कैण्टीन से चाय वाला, चाय की केतली और अपनी उंगलियों में फँसाए तीन-चार कप सहित उनकी टेबल के सामने हाज़िर हुआ।

"अरे भई! कैसी ख़बर है, जिसे आप सुनाने की बजाय दिखाने की बात कह रहे हैं? अब आप ये पहेलियाँ बुझाना छोड़िए। चाय तो पी ही लूँगा। अब जल्दी से मुझे वो ख़बर बताइए, नहीं-नहीं दिखाइए?" कहते हुए देवकान्त जी व्यग्र हो उठे।
"ये देखिए! आपकी पर्सनल-फाइल। आप लोगों की वार्षिक-प्रविष्टियाँ मुख्यालय भेजनी थी। उन्हीं फाइलों को ढूँढ़ते हुए आपकी यह वर्षों पुरानी फाइल भी मिली है।" अपने पीछे की रैक से एक पुराने कवर वाली मटमैली-सी फाइल निकालकर, जिसकी धूल रामजतन बाबू पहले ही झाड़ चुके थे, देवकान्त जी के सामने रख दी। देवकान्त जी ने उत्सुकतापूर्वक अपनी पर्सनल-फाइल के पन्ने पलटते हुए उसे ताबड़-तोड़ देखना शुरू कर दिया। लेकिन लगभग दस-बारह मिनट तक उस फाइल के पन्ने पलटते हुए उन्हें समझ में नहीं आया कि उसमें ख़ास क्या है? पर्सनल-फाइल में रखे सारे काग़ज़ात, दस्तावेज, अभिलेख आदि तो उनके जाने-पहचाने ही थे। उनमें से कुछेक की तो पृष्ठांकित प्रतियाँ भी उनके पास थीं।

"अरे देवकान्त जी! फाइल के पेज़ नम्बर तेइस की नोटिंग ज़रा गौर से तो देखिए।" कुछ ख़ास काग़ज़ात आदि न देखते उन्होंने जब उस फाइल के फीते बाँधते हुए रामजतन बाबू को लौटानी चाही तभी उन्होंने देवकान्त जी को टोकते हुए फाइल पुन: खोलते, उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
रामजतन बाबू के इस तरह ज़ोर देकर कहने पर प्याले में बची चाय को एक ही घूँट में ख़त्म करते हुए वे उस फाइल को पुन: पढ़ने लगे। फाइल के पहले पेज से तेइसवें पेज तक आते-आते देवकान्त जी के दिलो-दिमाग़ में मानो तूफान-सा मच चुका था। दिमाग़ में एक-एक शब्द हथौड़े की मानिन्द इस तरह लग रहा था कि यदि थोड़ी देर तक और वो फाइल पढ़ते रहे तो उनका माथा सुन्न हो जाएगा। उतनी देर वो जाने कैसे-कैसे झंझावात से गुज़रे होंगे। पूरी फाइल पढ़ने के बाद उनका खून खौल उठा। लेकिन तुरन्त किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाये। हाँ, इतना ज़रूर हुआ कि अगले ही पल उनके दिलो-दिमाग़ में यह विचार भी आया कि ज़िंदगी का जो तूफानी दौर गुज़र चुका है, उस पर इतने वर्षों बाद स्यापा करने से अब फायदा भी क्या? कुछ सोचते हुए उन्होंने उस फाइल के फीते को जस का तस बाँध उसे रामजतन बाबू की ओर वापस सरका दिया।

"देखा आपने, कितनी ज़्यादती हुई है आपके साथ? वर्षों पहले आपके विरूद्ध जो कार्यवाही की गयी थी, उस पर सक्षम स्तर से अनुमोदन ही नहीं लिया गया था। आपके विरूद्ध एकतरफा कार्यवाही करते हुए प्रतिकूल-प्रविष्टि का वो आदेश साजिशन निर्गत कर दिया गया था। ये तो पता नहीं कैसे, दूसरे कार्मिकों की पर्सनल-फाइल्स ढूँढ़ते समय रैक से यह फाइल अचानक फर्श पर गिर पड़ी। फाइल पर आपका नाम देख कौतुहलवश मैं इसके पन्ने पलटने लगा तो देखता हूँ कि आपकी प्रतिकूल-प्रविष्टि के आदेश पर जिस अधिकारी मनोहर लाल के हस्ताक्षर हैं, वो तो आज की तारीख में रिटायर हो चुके हैं। लेकिन प्रतिकूल-प्रविष्टि के इस आदेश पर उस महाभ्रष्ट अधिकारी मनोहर लाल के हस्ताक्षर देखकर मुझे जाने क्यों आपकी इस फाइल को पढ़ने की जिज्ञासा हुई।" यह सब बताते हुए रामजतन बाबू काफी तैश में थे।

"रामजतन जी, अब इन बीती बातों पर चर्चा करने से फायदा भी क्या? फिर मनोहर लाल जी भी तो रिटायर हो चुके हैं।" देवकान्त जी ने तनिक अन्यमनस्कता से उत्तर दिया।
"देवकान्त जी, याद होगा, आपने एक बार इस प्रतिकूल-प्रविष्टि के बारे में मुझसे जिक्र किया था। आपने यह भी बताया था कि मनोहर लाल की प्रतिकूल टिप्पणी की वजह से ही आपका ट्रांसफर दूर के किसी पठारी क्षेत्र में कर दिया गया था। बड़ी कोशिशों के बाद लगभग छः साल बाद आपका तबादला फिर से यहाँ मुख्यालय में हो पाया।"
"जी, अब क्या कहूँ? अतीत की बातें हैं। जितना कष्ट लिखा था, वो सब तो भुगत चुका हूँ। अब उन बीती बातों को याद करने से फायदा भी क्या? वो तनाव-हताशा-निराशा भरे दिन वापस तो नहीं आ सकते न! फिर उस घटना को बीते भी लगभग बाइस-तेइस साल हो गये। पिछले कुछ वर्षों से अब मैं यहाँ मेन-ब्रान्च में तैनात हूँ। बच्चे भी ठीक-ठाक पढ़ाई करते, उच्च-शिक्षा वास्ते दूसरे शहरों में चले गये। क्या करना है अब उन बीती बातों को याद करके?" देवकान्त जी ने पुनः निरूत्साहित से स्वर में कहा।

"सोचिए, समय कितनी तेज़ी से गुज़रता है? पर आपने जो तनाव-हताशा-निराशा उस दौरान झेला, महसूस किया, मैं तो उस एक-एक पल का साक्षी हूँ। किस तरह रज्जन कुमार और मनोहर लाल ने गहरी साजिश करते हुए मुआवजे की रकम में कमीशनबाज़ी के घपले में ख़ुद को बचाने के वास्ते आपकी अनुपस्थिति में सारी ग़लतियों के लिए आपको ज़िम्मेदार ठहराते हुए आपका स्थानान्तरण करवाते आपको प्रतिकूल-प्रविष्टि भी दिलवा दी थी और अपने चहेते अखिलेश्वर की पोस्टिंग आपकी जगह करवा दी थी? मुझे तो अच्छी तरह याद है कि उस दण्डादेश के अगले तीन-चार महीने बाद ही पदोन्नति समिति की बैठक होने वाली थी। वह प्रतिकूल-प्रविष्टि आपके प्रोमोशन में बाधक हो सकती थी, जिस कारण उसे एक्सपंज करवाने के वास्ते आपने किस-किस के दरवाज़े नहीं खटखटाए? किस-किस के आगे हाथ नहीं जोड़े? किस-किस से अपनी व्यथा कहते, उनके सामने नहीं गिडगिड़ाए? मुझे सबकुछ अच्छी तरह याद है।"

रामजतन बाबू ने इस बार देवकान्त जी से अति-आत्मीयता जताते सहानुभूतिपूर्वक कहना चाहा। चेहरे पर बिना कोई भाव लाये, सिर झुकाए देवकान्त जी रामजतन बाबू की ये सारी बातें सुनते रहे।
"हाँ पर, आप भी जानते हैं कि वाबजूद उन लोगों के तमाम प्रतिकूल प्रयासों के वो तो पदोन्नति समिति की सहृदयता थी कि उन्होंने मेरे प्रत्यावेदन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर नैसर्गिक-न्याय के दृष्टिगत मेरी पदोन्नति पर विचार किया, जिससे मेरी पदोन्नति अपने निर्धारित समय पर ही हुई थी।"
"यही तो आपकी ख़ूबी है। आप ऐसों के कुकृत्यों को माफ कर देना चाहते हैं। लेकिन ये क्यों भूलते हैं कि उन्होंने आपको परेशान करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। हालाँकि दोनों ख़ुद आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे रहे। एक जनाब तो रिटायर हो चुके हैं परन्तु दूसरे के ख़िलाफ़ अभी भी किसी मामले में इन्क्वायरी चल रही है।" रामजतन बाबू अभी भी अति-उत्तेजित थे।
"अच्छा भई, अब मुझे इजाज़त दीजिए। अभी काफी सारा काम पेण्डिंग पड़ा है। आपकी बुलाहट पर सारा काम छोड़ तुरन्त ही चला आया था। कभी फुर्सत में इस मसले पर तफ़सील से बातें करेंगे। चलता हूँ। नमस्कार।" देवकान्त जी ने वहाँ से जाने के लिए रामजतन बाबू से इजाज़त लेनी चाही।
"जी, अवश्य। नमस्कार।" रामजतन बाबू से इजाज़त लेकर देवकान्त जी अपने कक्ष में आ गये। कक्ष में आकर उनका मन काम में नहीं लग रहा था। चपरासी से एक कप काॅफी लाने के लिए बोल, वो अपनी सीट के बगल में रखी आराम कुर्सी पर आकर जम गये। काफी पीने के बाद सामने रखी फाइलों के पन्ने उलटते-पलटते, वो अतीत की उन कड़वी यादों में खो गये।

परिवार में शादी के सिलसिले में देवकान्त जी को गाँव जाना था। लगभग दस दिन की छुट्टियाँ बिताने के बाद जब वो ऑफिस आये तो सबसे पहले उनकी मुलाक़ात ऑफिस के डाक बाबू मोहसिन ख़ान से हुई। उसने उन्हें सुबह-सुबह वो सील-बंद लिफाफा रिसीव करवाते हुए उसे शीघ्र पढ़कर देखने को कहा था।
लिफाफा खोलते ही देवकान्त जी के होश उड़ गये। प्रतिकूल-प्रविष्टि का आदेश था। पूरा आदेश पढ़ते-पढते उनका माथा चकराने लगा। आँखों के आगे घनघोर अँधेरा-सा छाने लगा। आर-पार कुछ भी नहीं सूझ रहा था मानो बिजली के नंगे तार को छू दिया हो। करण्ट-सा झटका लगा था। अपमानित करने वाला आदेश था। देवकान्त जी के मन-मस्तिष्क में ढेरों विपरीत विचार ऊभ-चूभ होने लगे थे।

उन्हें ऐसी अनियमितता के लिए दण्ड दिया गया था, जिसके लिए वो कत्तई दोषी नहीं थे। उन्हें अच्छी तरह पता था कि यह कारस्तानी किनकी है? मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने यह सारी कवायद सिर्फ देवकान्त जी को मुख्यालय से हटवाने के लिए की थी। देवकान्त जी के रहते उन लोगों की ऊपरी कमाई लगभग बंद हो गयी थी। कभी-कभी तो उन्हें फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं होती। ऐसे तो उनका बंटाधार हो जायेगा। देवकान्त जी उनके अनियमित कार्यों में रूकावट जो बनने लगे थे। देवकान्त को इस शाखा से हटवाने के लिए कुछ न कुछ उपाय करना ही होगा। यही सोचते हुए आपसी सांठ-गांठ कर, मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने उस दण्डादेश के साथ-साथ देवकान्त जी को मुख्यालय से भी स्थानान्तरित करा दिया था।

देवकान्त जी की मजबूरी ये भी थी कि वो ऐसे बेईमान, धूर्त, मक्कारों को सबक़ भी नहीं सिखा सकते थे। कारण कि उन लोगों ने ऊपर तक अपनी पैठ बना रखी थी। मुख्यालय से लेकर, ऊपर के बाॅस को भी येन-केन-प्रकारेण उपकृत करते साध रखा था।
दण्डादेश के साथ ही देवकान्त जी के लिए घोर अपमानित करने वाली बात यह भी थी कि वो उन लोगों की साजिशों का शिकार हो गये, जो ख़ुद महाभ्रष्ट थे। नैसर्गिक-न्याय के विपरीत, वह दण्डादेश उन लोगों ने देवकान्त जी की अनुपस्थिति में उन्हें स्पष्टीकरण का पर्याप्त मौका दिये बगैर अत्यन्त जल्दबाज़ी में निर्गत करा दिया था। उस दण्डादेश में जहाँ-तहाँ ढेरों ग़लतियाँ इस बात के स्पष्ट प्रमाण थे। और तो और तथ्यों का उल्लेख सकारण न होने के साथ-साथ मनमाने तरीके से मन-गढ़न्त बातों का भी समावेश कर दिया गया था।

देवकान्त जी को अच्छी तरह याद है, वो तत्काल वह दण्डादेश लेकर विरोध जताने तत्समय ऑफिस के बाॅस बलवन्त सर के केबिन में भी गये थे।
"सर मैंने कोई ग़लती नहीं की है। यह दण्डादेश वापस करवा दीजिए। आपको तो अच्छी तरह पता है, अगले कुछ महीनों में मेरा प्रमोशन होने वाला है। इस दण्डादेश के चलते मेरे प्रमोशन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मैं भारी कठिनाई में पड़ जाऊंगा। प्लीज़ सर, मेरी विनती स्वीकार कर लीजिए।" कहते हुए देवकान्त जी लगभग रुआँसे-से हो गये थे। लेकिन थोड़ी ही देर बाद उन्हें महसूस हुआ कि वो एक बुत के आगे गिड़गिड़ा रहे हैं। देवकान्त जी अपमान के कड़वे घूँट पीकर रह गये थे।

उन्हें अच्छी तरह याद था कि विगत वर्षों में वो कुछ प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाओं में असफल हो गये थे। माँ-बाप सहित उनके सपनों पर भी तुषारपात हो गया था। अब वर्तमान नौकरी में ही रहकर तरक्की का भरोसा था लेकिन ऐसा लग रहा था मानो दुर्भाग्य ने यहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय दिखने लगा था। पर क्या कर सकते थे? उन्होंने इसे नियति का खेल मानते हुए स्वीकार कर लिया।

देवकान्त जी अपने समय के दर्शन-शास्त्र विषय में यूनिवर्सिटी टाॅपर थे। पी० एचडी आदि करके किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने की उनकी बड़ी इच्छा थी। उन्होंने कितने छात्रों को तो दर्शन-शास्त्र पढ़ाया भी था। कुछ तो विभिन्न उच्च प्रशासनिक सेवाओं में चयनित भी हुए परन्तु दुर्भाग्य के मारे वही रहे। उन्हें तृतीय श्रेणी की मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ा, उसमें भी बहत्तरों अड़चनें दरपेश होती रहीं।

उन्हें याद है, उन्होंने एक अंतिम प्रयास भी किया था कि चलो मनोहर लाल, जो बाॅस का मुँह लगा था, से ही अनुरोध कर लिया जाए कि वो ख़ुद ही बलवन्त सर से कहकर दण्डादेश वापस करवा दे। काहे से कि उस दण्डादेश के रहते देवकान्त जी के प्रमोशन पर निश्चित ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ना था लेकिन उनका वह अन्तिम प्रयास भी बेकार ही गया। मनोहर लाल टस से मस नहीं हुआ। उस पर देवकान्त जी के कहने का कोई असर नहीं पड़ा। पीठ पीछे तो उन्होंने उसे यह भी कहते सुना कि 'ये देवकान्त तो अपने बैच का टेलेण्डर होगा जबकि मैं तो अपने बैच का टाॅपर हूँ। बड़ा आया मुझे रास्ता बताने वाला। देखता हूँ इसे कैसे प्रमोशन मिलता है।'

मनोहर लाल के मुँह से ऐसी बातें सुन उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगा था। उस वक्त मनोहर लाल के ये शब्द उनके सिर पर हथौड़े सरीखे लग रहे थे। उन शब्दों को वो जब भी याद करते, ज़ेहन में अपमान की कसक-सी उभर आती पर साथ ही पता नहीं किसकी प्रेरणा थी कि विपरीत परिस्थितियों में वो और भी मज़बूत होते गये। देवकान्त जी ने तय किया कि ऐसी विपरीत परिस्थिति का डटकर सामना करेंगे। उन्हें कत्तई हार नहीं मानना है। हिम्मत बनाए रखनी होगी। उन्होंने उस दण्डादेश के विरूद्ध प्रत्यावेदन देने का निर्णय लिया। पर यह क्या! उन्होंने देखा कि बलवन्त सर ने तो उनके प्रत्यावेदन को प्रस्तुत करने के लिए अब्दुल कादिर को निर्देश दिया था। अब्दुल कादिर तो महादुष्ट था। 'वो तो खड़े-खड़े हाथी निगल जाये और डकार भी न ले।' जैसे जुमले जब-तब उसके बारे में कहे-सुने जाते थे। वो कब उनका हित चाहेगा! वो ससुरा तो कार्यालय में सभी सहकर्मियों से दिन-भर माँग-माँग कर चाय-समोसा, पान मसाला आदि खाता रहता था। बिना अपनी फीस लिए वो उनके प्रत्यावेदन को प्रस्तुत करने से रहा। परन्तु उन्होंने भी ज़िद ठान रखी थी कि अपने सिद्धान्त पर कायम रहेंगे। बहरहाल वही हुआ, जिसका अंदेशा था। जानकारी करने पर पता चला कि उनकी फाइल ऊपर तक जाने ही नहीं दी गयी। देवकान्त जी को अच्छी तरह पता था कि उन्हें सुना-समझा नहीं जायेगा। उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती सदृश होकर रह जायेगी। उन्हें न्याय की रही-सही आशा भी धूमिल-सी दिखने लगी।

इन सब प्रतिकूल परिस्थितियों का मिला-जुला असर उनके जीवन पर यह पड़ा कि वो अब बात-बात पर गुस्सा हो जाते। बाजदफे वो अपना गुस्सा घर के लोगों पर या कभी-कभी ऑफिस सहकर्मियों पर भी उतारते। मनोहर लाल और रज्जन कुमार द्वारा किये गये अपमान और अपनी बेबसी पर वो तिलमिला कर रह जाते। वो अंदर ही अंदर सुलगते रहे।

सचमुच उनके लिए बहुत कठिन दिन थे। आश्चर्य तो तब होता, जब उनकी परेशानियाँ भांपते हुए उन्हें कुछ ऐसे लोग तरह-तरह के सुझाव देते, जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया बनाए रखने का परामर्श देते, जिन्हें एक समय पर आगे बढ़ने के लिए उन्होंने ही तन-मन-धन से मदद की थी। वर्तमान तो अंधकारमय लग ही रहा था, वो भविष्य के प्रति भी तमाम शंकाओं-आशंकाओं से घिरे रहते। उनके दिन घिसटते हुए बीत रहे थे। ज़िंदगी में उत्साह नाम की कोई चीज़ नहीं बची थी। मानो वो ख़ुद को ढो रहे हों। शाम को दफ्तर से थके-हारे घर लौटते। आधा-तिहा पेट भोजन करते, पत्नी की गोद में सिर रखकर सो जाते।

आज उन्हें मुख्यालय में वरिष्ठ शाखा अधिकारी के पद पर काम करते हुए लगभग बारह-तेरह वर्ष होने को आये। प्रतिकूल-प्रविष्टि सम्बन्धी वो फाइल आज उनके सामने थी। उन्होंने फाइल के एक-एक पन्ने को उलटते-पलटते, हर्फ-दर-हर्फ, भली-भांति देखा-पढ़ा था। 'पर मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने बिना सक्षम स्तर के अप्रूवल के ही वो दण्डादेश क्यों निर्गत करा दिया था। उन लोगों ने ऐसा क्यों किया? क्या ज़रा-से स्वार्थ की वजह से कोई सीनियर, किसी युवाकर्मी के कैरियर को दाँव पर लगा सकता है? उन्हें क्या यह अहसास नहीं था कि ऐसा करके वो अनजाने में ही किसी युवा कार्मिक के जीवन में तरक्की के सारे रास्ते बंद कर रहा है। किसी भी युवाकर्मी के लिए यह कितना निराशाजनक हो सकता है? क्या उन्हें ज़रा भी इल्म नहीं था?' देवकान्त जी देर शाम तक अपनी सीट पर गुम-सुम बैठे, जाने क्या-क्या सोचते-गुनते रहे?

देवकान्त जी के जीवन के वो बहुमूल्य वर्ष बेहद त्रासद थे। बीते एक-एक पल के त्रासद अनुभव उनकी आंखों के सामने एक चलचित्र की भांति घूम गये। उन्हें लगा जैसे उनके जीवन से ये कुछ वर्ष कम हो गये, जिसकी भरपाई सम्भव नहीं थी और इसके उत्तरदायी सिर्फ और सिर्फ मनोहर लाल और रज्जन कुमार थे। वो उन्हें अवश्य कड़ा सबक सिखायेंगे। यही दृढ़-निश्चय करते वो उस दिन घर लौटे थे।

"क्या फायदा? अब आपके जीवन के वो बहुमूल्य वर्ष तो लौटने से रहे। तिस पर बदले की भावनावश कार्यवाही करने में ज़रूरी नहीं कि उन्हें दण्ड और आपको न्याय मिल ही जाये। आप ये क्यों नहीं सोचते कि जो दुःखद प्रसंग बीत चुके हैं, उन त्रासद पलों को याद करने से आपका दिल भी तो दुखेगा। फिर इन सबसे हासिल होगा भी क्या? उस घटना के सकारात्मक पक्षों के बारे में आप ये क्यों नहीं सोचते कि बावजूद मनोहर लाल और रज्जन कुमार के तमाम अड़चनें लगाने के, प्रमोशन तो आपको उसी समय मिला, जब मिलना था। कहा भी गया है कि जब-जब, जो-जो होना है, तब-तब सो-सो होता है। याद है! समय पर प्रमोशन आदेश मिलने पर आप कितने प्रफुल्लित थे? प्रमोशन आदेश के एक-एक शब्द को चबा-चबाकर पढ़ा था। उस दिन आपका मन बल्लियों उछल रहा था।" देवकान्त जी ने उस दिन घर आकर जब इस प्रसंग का ज़िक्र पत्नी से किया तो पत्नी ने कुछ इस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त की।
"लेकिन जो अनावश्यक तनाव-हताशा-निराशा आदि उन वर्षों में मैंने झेलीं, त्रासद अनुभवों से दो-चार हुआ, उनका क्या?" देवकान्त जी ने व्यथित स्वर में कहा।

"याद कीजिए। आपने बताया था कि आपके प्रत्यावेदन को अब्दुल कादिर ने फाइल में विस्तार से लिखते, ऐसे प्रस्तुत किया था मानो सारी ग़लती आपकी ही थी। ऐसी घटनाओं, अनुभवों से आपको कम अज कम इंसान को पहचानने, उसके नज़रिये को जानने, सीखने का मौका तो मिला। क्यों नहीं सोचते कि आप जैसे घोंचू व्यक्तित्व को होशियार बनाने में ऐसी घटनाओं का होना जीवन में कभी-कभी अभूतपूर्व परिवर्तनकारी भी होता है। अभी कल ही कहीं लिखी बात पढ़कर आप ज़िक्र कर रहे थे कि 'कभी-कभी हारना, जीत से ज़्यादा सुकूनदायक होता है।' याद कीजिए उन त्रासद जीवनानुभवों में आपने क्या-कुछ नहीं सीखा? आप कितने ही ऐसे लोगों से मिले, उनके दर तक गये, उनसे परामर्श लिया, जिनके बारे में जानते तक नहीं थे। न्याय के लिए हर सम्भावित दरवाज़े को खटखटाया। कैलकुलेटेड-रिस्क के मायने जाने। तमाम नियम-नियमावलियाँ आदि पढीं। आपके जीवन में ऐसी चुनौतियाँ नहीं आतीं तो शायद आप ढेरों बहुमूल्य सबक़ से भी तो वंचित रह जाते? जो कुछ होता है, अच्छे के लिए होता है। कहते भी हैं कि बेस्ट रिवेंज इज नो रिवेंज। हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ सभी को कभी-न-कभी एक-दूसरे के मदद की आवश्यकता पड़ती है। ये आप पर निर्भर है कि बदले की आग में घी डालिये या पानी।" पत्नी ने देवकान्त जी को होशियारीपूर्वक समझाने की कोशिश की।

"कितनी उम्मीदों से बस्ती वालों ने पत्र लिखा था। उचित कार्यवाही का इंतज़ार कर रहे थे कि ठेकेदार की काली करतूतों का खुलासा हो। उसे उचित दण्ड मिले और बस्ती वालों को उचित मुआवजा। लेकिन मेरे क्षेत्र का कार्य होने के कारण मनोहर लाल और रज्जन कुमार को कमीशन में बंदर-बांट करने का मौंका नहीं मिल पा रहा था। ऐसे में मनोहर लाल और रज्जन कुमार ने यह तरीका निकाला कि बाॅस से मिल-जुल कर उन्होंने मुझे दण्डित करा, उस क्षेत्र से मेरा ट्रांसफर करवा दिया और ऊपर वालों से मिल-बांट कर सारा मुआवजा चट कर गये। थोड़े लोगों को छोड़कर बस्ती वालों को लगभग सिफर मुआवजा ही मिला। कुछ तो बिना मुआवजा पाये, न्याय की आस लिये बीच में ही मर-खप गये। मैं उन्हें छोड़ूँगा नहीं।" देवकान्त जी अभी भी ज़िद पर अड़े थे।

"इतना तो आप भी जानते होंगे कि मनोहर लाल और रज्जन कुमार कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं? फिर यह भी मायने नहीं रखता कि वो कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं, मायने यह रखता है कि आप कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं। किसी को अपने अपमान के लिए दोषी बताकर उसका भाव ऊंचा करने की आवश्यकता नही। ऐसों को अवाॅयड करने की कोशिश होनी चाहिए। वैसे भी हम लोगों को बिना संघर्ष के आसानी से कुछ भी नहीं मिला। ये अलग बात है कि कड़े संघर्ष के बाद जब कुछ हासिल होता है तो उसका सुख, उसका स्वाद कुछ और ही होता है।" पत्नी ने इस बार गम्भीरता से समझाने का प्रयास किया।
"मतलब सबसे ज़्यादा सबक़ हमें जीवन में घटित विपरीत घटनाओं, परिस्थितियों से ही मिलते हैं?"
"जाहिर है। वैसे भी, जीवन के कुछ सबक़ हम अपने आसपास की घटनाओं से सीखते हैं तो कुछ अपनी ग़लतियों की वजह से। साथ ही यह भी तय करना होता है कि हमें ख़ुशियाँ किस चीज़ से मिलती हैं? बदले की भावना से या माफ कर देने से। ये ख़ूबसूरत पंक्तियाँ देखिये "कुछ इस तरह मैंने ज़िंदगी को आसान कर लिया, किसी से माफी माँग ली, किसी को माफ कर दिया।" देवकान्त जी की पत्नी ने उस दिन का अख़बार उनके सामने करते हुए अखबार में प्रकाशित एक लेख में आयी इन पंक्तियों की ओर इशारा कर, उसे पढ़ते हुए कहा।

"सच कह रही हो। हमें जीवन की कड़वी सच्चाइयों को स्वीकार करने का हुनर आना ही चाहिए। इस नज़रिये से तो हमें विपरीत परिस्थितियों का स्वागत करना चाहिए हें-हें-हें।" देवकान्त जी अब कुछ हल्के मूड में लग रहे थे।
"हें-हें-हें। अरे हाँ, उसी दौरान आपने शास्त्रीय-संगीत सीखा। योग-प्राणायाम करना सीखा। याद होगा, काॅलेज और बेरोज़गारी के दिनों में तो आपने ख़ूब सारा घासलेटी साहित्य, जासूसी उपन्यास आदि पढ़ा था लेकिन ऐसी विपरीत परिस्थितियों में एक बार फिर आपका रूझान साहित्य की ओर हुआ। आपने गम्भीर साहित्य, विभिन्न विषयों पर ढ़ेर सारी किताबें पढ़ीं। शहर स्थित पुस्तकालय की सदस्यता भी ग्रहण की। महान लोगों की आत्मकथाएँ, व्यक्तित्व विकास आदि से जुड़ी किताबें पढ़ीं। इसी कवायद में आपके पास देशी-विदेशी साहित्य का अच्छा-खासा कलेक्शन भी हो गया था। इन किताबों का पढ़ना जहाँ एक तरफ सुकूनदायक रहा, वहीं दूसरी तरफ विपरीत परिस्थितियों का सामना करने, सकारात्मक सोचने के लिए मार्गदर्शन भी मिला। आपने फिर से लिखना-पढ़ना शुरू कर दिया। ये अलग बात है कि घर के हर कमरे की आलमारियों, रैक्स आदि में चहुंओर किताबें ही किताबें दिखने लगीं। हें-हें-हें।" पत्नी ने इस बार तनिक मज़ाहिया मूड में कहा।

"हें-हें-हें शायद, तुम ठीक कह रही हो।" देवकान्त जी अब लगभग तनाव-मुक्त दिख रहे थे।
"सोचिये, यह विपरीत परिस्थितियाँ आपके लिए कितनी महत्वपूर्ण साबित हुईं। वो कहते हैं न! अन्त में सब ठीक होता है। अगर ठीक नहीं तो अन्त नहीं। क्या पता, आपको जीवन में ऐसे कड़वे अनुभवों से दो-चार होना लिखा हो। आपको पता है कि जीवन में आयी ऐसी कठिनाइयों की वजह से ही आपने अपनी कमियों को स्वीकर करना सीखा। एक लापरवाह ज़िंदगी के बजाय अनुशासित रहने के महत्व को जाना। अपना ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाया। आपके अंदर के लेखक को जीवन मिला। क्या पता लिखने की वजह आपके जीवन में आयीं ये मुश्किल घटनाएँ, विपरीत देश-काल-स्थितियाँ-परिस्थितियाँ ही हों? खैर ये सब बातें छोड़िये ये अदरक-कालीमिर्च वाली अपनी पसंदीदा चाय पीजिए।" पत्नी ने अपने और उनके लिए दो कपों में चाय ढालते हुए कहा।

"हें-हें-हें शायद तुम ठीक कह रही हो। कहा जाता है कि हम जिस चीज़ के हक़दार हैं, अपने प्रयासों से भले न पा सकें लेकिन वक्त एक दिन उसे हमें अवश्य दिला देता है। बस्स ज़रूरत थोड़े धैर्य की होती है। वैसे भी अन्त में सब ठीक होता है। अगर ठीक नहीं तो अन्त नहीं।" कहते हुए देवकान्त जी इत्मिनान से बैठ कर चाय की चुस्कियाँ भरते, उदासी, निराशा और तनाव भरे उस दौर से बाहर निकलने के रोमांचक अनुभवों की स्मृतियों को और ये भी कि इससे सीखने को मिले सबक़ को कलमबद्ध करने की सोचने लगे ताकि भविष्य के लिए सनद रहे। आखिर ज़िंदगी की किताब का शिराजा बिखरने न पाये, इसके लिए जीवन के अलग-अलग पड़ावों के बिखरे सफ़हों को समेटना-सहेजना भी तो लिखने-पढ़ने की ही कवायद है।

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Arvind Kashyap

13 January 2025

मर्मस्पर्शी एवं प्रेरणादायक कहानी.......👌

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रचनाकार परिचय

रामनगीना मौर्य

ईमेल : ramnaginamaurya2011@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तरप्रदेश)

संप्रति- राजकीय सेवारत
प्रकाशन- आखिरी गेंद, आप कैमरे की निगाह में हैं, साॅफ्ट काॅर्नर, यात्रीगण कृपया ध्यान दें, मन बोहेमियन, आगे से फटा जूता, रामनगीना मौर्य की 23 चयनित कहानियाँ, ख़ूबसूरत मोड़ एवं ठलुआ चिन्तन (कहानी संग्रह) प्रकाशित।
देशभर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, व्यंग्य, समीक्षाएँ व निबंध प्रकाशित। कई साझा संकलनों में भी रचनाएँ प्रकाशित।
सम्पर्क- 5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ (उत्तरप्रदेश)- 226010
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