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'तोल्स्तोय की जीवनी' अनूदित पुस्तक- रामप्रसाद राजभर

'तोल्स्तोय की जीवनी' अनूदित पुस्तक- रामप्रसाद राजभर

दो वर्ष पूर्व हेनरी त्रोयत द्वारा लिखित तोल्स्तोय की जीवनी को पढ़ने का सौभाग्य मिला। लेकिन कैसे?  वह ऐसे कि लगभग पाँच वर्ष के दौरान कथाकार श्री रूपसिंह चन्देल साहब ने इस जीवनी का पुनर्सृजन किया देवनागरी में। छः सौ छप्पन (बावन और छप्पन की संख्या बदनाम हो चली है!) पृष्ठों का पुनर्सृजन करना वह भी स्वेच्छा से तथा अपने मौलिक लेखन के साथ-साथ! आश्चर्य चकित करता है मगर एक अनुशासित जीवनशैली के विकट अनुयायी के लिए यह सहज है।

राएगाँ जा रही है हर कोशिश
हम नहीं छोड़ते मगर कोशिश

अनवर शऊर साहब

कुछ लोगों का मानना है कि,’अनुवाद दोयम दर्ज़े का काम है।‘

मेरा मानना है कि अनुवाद यदि बोझिल नहीं है तो वह जिस भाषा में किया गया हो ‘पुनर्सृजन’ होता है।

मौलिक लेखन तो धड़ाधड़ किया जा सकता है क्योंकि इसमें सबकुछ अपने हिसाब से लिखना होता है। और ‘पुनर्सृजन’ में जो उपलब्ध है वह किसी और भाषा का है। यह भी होता है कि उपलब्ध साहित्य किसी और भाषा से ‘अंतरराष्ट्रीय-भाषा’ में हो। तब जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि इसे उस भाषा में श्रेष्ठ कैसे बनाया जाए जिस भाषा में पुनर्सृजित करना है। स्वतन्त्रता नहीं होती इस कार्य में। उस भाषा के कथन,शैली-शिल्प,देशकाल, भाषा और उसका लालित्य व अन्य आवश्यक बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है।

ख़ैर,यह तो हुई कुछ सम्बन्धित बात। मूल बात यह कि,’ दो वर्ष पूर्व हेनरी त्रोयत द्वारा लिखित तोल्स्तोय की जीवनी को पढ़ने का सौभाग्य मिला।लेकिन कैसे?

वह ऐसे कि लगभग पाँच वर्ष के दौरान कथाकार श्री रूपसिंह चन्देल साहब ने इस जीवनी का पुनर्सृजन किया देवनागरी में। छः सौ छप्पन (बावन और छप्पन की संख्या बदनाम हो चली है!) पृष्ठों का पुनर्सृजन करना वह भी स्वेच्छा से तथा अपने मौलिक लेखन के साथ-साथ! आश्चर्य चकित करता है मगर एक अनुशासित जीवनशैली के विकट अनुयायी के लिए यह सहज है।

इस जीवनी को जितने परिश्रम से त्रोयत साहब ने लिखा होगा उतने ही श्रम से चन्देल साहब ने हमलोगों को उपलब्ध कराया है इसे पुनर्सृजित कर। इसे पढ़ते हुए कहीं भी ऐसा न लगा कि यह हिन्दी की कृति नहीं है।

तोल्स्तोय पूरी दुनिया के कालजयी (यह शब्द भी विवादित हो चला है) और महान साहित्यकार हैं। आज भी वे खूब पढ़े जाते हैं। चर्चित और महान हैं इसलिए उनके जीवन से सम्बन्धित विशद-सामग्री उपलब्ध है। और हमलोग भी बचपन से छिटपुट में पढ़ते आए हैं।

• इस जीवनी को पढ़ने के पश्चात मेरी अपनी ही धारणा और दृढ़ हुई कि,’ लम्पटता महान होने की विशेषता है। सभी लम्पट महान हों आवश्यक नहीं है।मगर अधिकांश महान लोग लम्पट रहे हैं।‘

मैंने यह जीवनी अपनी बेरोज़गारी के दिनों (दो हज़ार बाइस के मार्च माह)की रात में जाग कर मात्र तीन दिन में पढ़ी थी।

सोलह पृष्ठ की सारगर्भित भूमिका संकोच रूपी अतिथि को जबरन हमारे सामने प्रस्तुत करती है। और हम इस संकोच के सामने सोचते रह जाते हैं कि,’ और क्या लिखा जाए?’

आज सोचा कि जो मन में आए वह अवश्य लिखा जाए। कम से कम पाठकीय टिप्पणी तो कह ही सकते हैं।

प्रस्तुत जीवनी आठ भाग में है और एक परिशिष्ट भी। हर भाग में तीन-चार और पाँच उपभाग हैं। तोल्स्तोय के जीवनकाल के पहले से यह जीवनी आरम्भ होती है और अंत तक चलती जाती है, एक चलचित्र की भाँति।

तोल्स्तोय एक जमींदार के साथ-साथ युद्ध के लड़ाके भी रहे।जीवन को विविधतापूर्ण जिया उन्होने और रचा वही जो मानव के लिए श्रेयस्कर था और है।

उनके समकालीन में भी रूसी के महान रचनाकार हुए और सभी से उनका परिचय और पत्राचार था, मतभेद के बावज़ूद भी। अगर वे भारत में होते तो बाप रे बाप! यहाँ के स्व-कथित महान साहित्यकार लोग क्या-कुछ नहीं करते!

तोल्स्तोय को सम्पूर्ण रूप से समझने के लिए यह पुस्तक परम् आवश्यक है।यह जीवनी यशोगान नहीं है। तोल्स्तोय के जीवन के उन पक्षों को भी उद्घाटित करती है जो उनकी छवि को धूमिल करती है। साधारण मनुष्य की तरह ही लगते हैं। रचनात्मक स्तर पर जो उनकी उच्चता इस जीवनी के माध्यम से बनती है वह निष्पक्ष लेखन का अप्रतिम उदाहरण है। सबकुछ साफ़-साफ़।

यह एक जीवनी मात्र ही नहीं है अपितु यह उस कालखण्ड के रूस के सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिवेश का जीवंत दस्तावेज है। एक रचनाकार का जीवन कैसा भी रहा हो यदि उसने अपने आसपास के लोगो की व्यथा के निवारण हेतु कुछ न किया तो व्यर्थ!मनुष्य का जीवन सुखमय बन सके इसके लिए तोल्स्तोय ने कुछ ऐसे मुद्दों को ललकारा जो मौजूदा वक़्त के सत्ताधारी समाज के लिए असहनीय था। शायद यही वह कारण भी होगा जिसने चन्देल साहब को उकसाया होगा कि तोल्स्तोय का यह पक्ष हिन्दी के लोग अवश्य जानें।

एक महान लेखक का कर्तव्य और दायित्व होता है कि वह अपनी तरह के कर्मठ और प्रतिबद्ध लेखक तैयार करे।विरोध हो मगर रचना की उपयोगिता को उजागर करे।भारतीय सन्दर्भ में तो यह परम् आवश्यक है।एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट होती है जो उन्होने स्त्राखोव को दॉस्तोएवस्की के असमय निधन पर लिखा था—

‘मैं एक लेखक था और सभी लेखक तुच्छ व ईर्ष्यालू होते हैं अथवा कम से कम मैं था, लेकिन कभी मन में नहीं आया कि मैं उनका प्रतिद्वन्द्वी हूँ। मैने सदैव उन्हें मित्र ही माना और मुझे यह विश्वास था कि एक दिन हम अवश्य मिलेंगे---और अकस्मात---डिनर के दौरान----मैं विलम्ब से अकेले ही भोजन कर रहा था कि मेरा उत्साह बढ़ानेवाले स्तम्भों में से एक अचानक ढह गया।‘ पृष्ठ-396

अमूमन मृत्यु के पश्चात ऐसा सभी लोग मृतक के प्रति कहते हैं मगर तोल्स्तोय ने यह दॉस्तोएवस्की के जीवनकाल में ही स्त्राखोव को लिख भेजा था जिसे स्त्राखोव ने दॉस्तोएवस्की को पढ़ सुनाया।

ऐसा नहीं है कि इस जीवनी में तोल्स्तोय के उस पक्ष को न उकेरा गया हो जिससे वह बदनाम होते। मगर यह स्वीकृति उन्हे और महान बनाती है। भारत में लोग छुपाकर महान बनना चाहते हैं। किन्तु खुलासा होता है और वे गर्त की अतल गहराई में समा जाते हैं।

कला और आस्था नामक उपभाग में उनके अपने लिए लिखित विचार को उद्धरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।देखिएगा—

‘मैंने युद्ध में लोगों को मारा।‘ उन्होने लिखा,’मैंने द्वंद्व युद्ध किए, जुआ खेला,  किसानों से उगाहे धन की फ़िज़ूलख़र्ची की और उन्हे क्रूरतापूर्ण दंडित किया।मैंने स्त्रियों के साथ व्यभिचार किया और उनके पतियों के साथ विश्वासघात।झूठ, चोरी, परस्त्रीगमन, नशेबाज़ी और हर तरह की अमानुषिकता की। मैंने हर तरह के शर्मनाक कार्य किए, कोई भी ऐसा अपराध नही जिससे मैं परिचित नही! एक अधम और अपराधी व्यक्ति,नराधम!!’ पृष्ठ 393

इस जीवनी को पढ़ने के पश्चात तोल्स्तोय की पाठकीय छवि भी अपने विराट रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है। हिन्दी के वर्तमान लेखकों को सीखना होगा कि पढ़वाना ही नहीं है, पढना भी है। पढ़कर उसपर अपनी सहमति-असहमति भी दर्ज़ करनी चाहिए जैसाकि तोल्स्तोय करते थे।

इस, और कई जीवनियों को पढ़ने के पश्चात पाता हूँ कि पाश्चात्य लेखक लेखन के बल पर एक बेहतर जीवन जीते थे। अपने यहां यह इसलिए भी सम्भव नही कि,’हमलोग खरीदकर नही पढ़ते।‘

साहित्य जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के पश्चात एक बेहतर कल की आशा की उजास की तरह होता है। इसलिए मै फिर से कहना चाहूँगा कि यह पुस्तक लगभग सभी पढ़ने वालों के पास होनी चाहिए।

साधुवाद चन्देल साहब को इस श्रमसाध्य उपलब्धि के लिए।

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तोल्स्तोय- हेनरी त्रोयत
अनुवाद- रूपसिंह चन्देल
प्रकाशक-संवाद प्रकाशन
मूल्य- रु. 600/

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रचनाकार परिचय

रामप्रसाद राजभर

ईमेल : ramprasadrajbhar@gmail.com

निवास : वेल्लियूर, तिरुवल्लूर

जन्मतिथि- 10 अगस्त 1975 
जन्मस्थान-आज़मगढ़
लेखन विधा- स्वतंत्र
शिक्षा- स्नातक,दिल्ली विश्वविद्यालय (पत्राचार)
सम्प्रति- तिरुवल्लूर के एक कारखाने में इन्चार्ज 
प्राकाशन- अभी तक कुछ समीक्षाएं इधर-उधर प्रकाशित(वीणा,सरस्वती,ट्रू मीडिया,कथाबिम्ब इत्यादि)
विशेष- कुछ नही
पता- ग्राम-पोस्ट-वेल्लियूर, तिरुवल्लूर-601103
मोबाइल- 9995455598