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प्रियंवद की कहानी- कैक्टस की नाव देह

प्रियंवद की कहानी-  कैक्टस की नाव देह

मैं चुपचाप बैठा उसे देख रहा था। वह हमेशा यही सपना देखा करती थी। इस सपने से उसकी आँखें हमेशा चमकने लगती थीं। वह पूजा करती थी इसलिए उसके पूरा होने के यक़ीन से भी। लेकिन मुझे वनि की चमकती नहीं, गीली आँखें अच्छी लगती थीं। बिलकुल वैसी ही गीली आँखें, जैसे बरसात में खिड़की का शीशा गीला हो। वनि यह जानती थी। 

मैं बूढ़ा हो गया हूँ। लोग कहते नहीं, लेकिन मुझे लगता है। आसपास की बहुत सारी चीजें मुझे बूढ़ी लगने लगी हैं। डायरी के पन्ने पीले हो गए हैं। उसके अंदर बंद, मरी हुई तितलियों को एक अरसा हो गया है। बस, केवल एक सवाल आज भी उसी तरह ताज़ा है। वनि की उदास आँखों से म्रदिमा की खिलखिलाती आँखों तक फैला हुआ सवाल।

‘और सुख?' बहुत पहले वनि ने पूछा था।
‘पहले इसे छोड़ो,’ मैंने उसकी उँगलियों के बीच फँसी तितली को छुड़ाना चाहा था।
‘नहीं. इसको मिलाकर सैंतालीस हो जाएँगी.'

वनि का चेहरा धूप से लाल हो गया था। वह हाँफ रही थी। माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आई थीं।आँखों के ऊपर बालों की लट थी। उँगलियों में तितली बंद थी। अपनी किताब के बीच उसने तितली को बंद कर दिया। कसकर दबाया फिर किताब खोली. तितली मर गई थी।

'ऐसा क्यों करती हो?'
'सुख।'

चर्च की वह दोपहर गुलमोहर में डूबी थी। चारों ओर ठहरा हुआ सन्नाटा था। बीच-बीच में वनि की सांसें सुनाई पड़तीं। अभी तक हाँफ रही थी वह। चेहरा चमक रहा था।

'पूजा करते हो तुम?' उसने पूछा.

'नहीं।'
'करनी चाहिए।'
'क्यों?'
'भगवान ख़ुश होते हैं,' उसने अपने बालों की लट को ऊपर किया और दीवार से सिर टेककर बैठ गई। दौड़ने से थक गई थी शायद।
'और तितली मारने से?'
'धत्,' हँस पड़ी वह। फिर चुप हो गई एकदम से 'जानते हो, कभी मेरा घर हुआ तो उसमें कैक्टस का पेड़ ज़रूर लगाऊँगी।'

मैं चुपचाप बैठा उसे देख रहा था। वह हमेशा यही सपना देखा करती थी। इस सपने से उसकी आँखें हमेशा चमकने लगती थीं। वह पूजा करती थी इसलिए उसके पूरा होने के यक़ीन से भी। लेकिन मुझे वनि की चमकती नहीं, गीली आँखें अच्छी लगती थीं। बिलकुल वैसी ही गीली आँखें, जैसे बरसात में खिड़की का शीशा गीला हो। वनि यह जानती थी। वह यह भी जानती थी कि जब उसकी आँखें गीली होती हैं तो उसके होंठ किसी चिड़िया के पंखों की तरह काँपने लगते हैं। उसके नीचे चिपका हुआ तिल थरथराने लगता है। मैं हमेशा उसके उस थरथराते हुए तिल पर उँगली रख देता हूँ, जैसे किसी तूफ़ान को रोक रहा होऊँ।

'क्या हुआ?' वनि ने मेरा कंधा हिलाया।
'तुम मेहंदी क्यों नहीं लगातीं?'
'उसके लिए उँगलियान लंबी होनी चाहिए।'
'तुम बड़ी-सी, गोल लाल बिंदी क्यों नहीं लगातीं ?'
'उसके लिए भौंहें आपस में जुड़ी होनी चाहिए।' 'तुम पायल क्यों नहीं पहनती?'
'उसके लिए खरगोश-से पाँव चाहिए... लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हो?' वनि अचानक गंभीर हो गई। ‘क्यों पूछा तुमने यह?' वह फिर फुसफुसायी।

मैं मुस्करा दिया। बिलकुल फीकी और बीमार मुस्कान, होंठों पर जमी पतली पपड़ी की तरह। वनि चुप हो गई। एक जमा हुआ ठंडा सन्नाटा हमारे बीच उतर आया। चर्च की वह दोपहर अचानक भारी हो उठी थी।

'तुमने देखा है कभी?' वह फुसफुसाई. उसके होंठ चिड़िया के पंखों की तरह काँपने लगे।
'क्या?'
'दुख! कोई ऐसा दुख जिसमें पूरा जीवन डूब जाए।'
'ऐसा कभी नहीं होता। सारे दुख जीवन के अंदर होते हैं।'
'और सुख?' वनि ने पूछा था.
'सारे सुख भी जीवन के अंदर होते हैं।'
'फिर?'
'केवल कोई सपना ही जीवन से ऊपर होता है। कभी वह सपना मर जाए तो जीवन भी नष्ट हो जाता है.' मैं बड़बड़ाया।
'अपना कोई सपना जीवन से ऊपर मत जाने देना। वह मर गया तो तुम्हारे अंदर सब कुछ मर जाएगा। तुम केवल एक खाली नाव रह जाओगी, कैक्टस की नाव, जो समय की नदी में यूँ ही निरुद्देश्य बहती रहेगी। ऐसा अक्सर होता है वनि। हमारी देह के अंदर कुछ नहीं रहता। एक नाव की तरह यह देह बस बहती रहती है।'
'तुम यह सब कैसे जानते हो?' उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। उसका हाथ काँप रहा था। 'बोलो, तुमने क्यों पूछा था वह ?'
'आओ चलें, ' मैंने वनि का हाथ पकड़कर उठा लिया। चर्च की लाल बजरीवाली सड़क पर पाँव रखते हुए हम आहिस्ता-आहिस्ता चले आए थे।

मैं बूढ़ा हो गया हूँ। लेकिन कुछ भी नहीं भूला हूँ। मैं जानता हूँ। आज मैं वनि को जो लिखूँगा उसे पढ़कर वह ज़रूर रोएगी। उसके होंठ चिड़िया के पंखों की तरह काँपेंगे और होंठ के नीचे का तिल वैसे ही थरथराएगा। वनि शीशे में उस तिल को थरथराता देखती रहेगी। सुख वनि नहीं पा सकी और म्रदिमा सुख ढूँढ़ रही है। ऐसा सुख जिसमें पूरा जीवन डूब जाए। मैं जानता हूँ, कोई भी सुख जीवन का कुछ हिस्सा ही ढक पाता है बस।

मैं जब भी ऐसी बात करता, वनि की आँखें उदासी के कुएँ में कूद पड़तीं। उसके होंठ काँपने लगते। चुप हो जाओ तुम।' वह फुसफुसाती। थोड़ी देर में फिर वही बात, ‘कभी अपना घर हुआ तो कैक्टस का पेड़ ज़रूर लगाऊंगी।' बस। यही एक बार, दो बार, हर बार....

एक दिन वनि चली गई। जाने से पहले उसने मुझे बुलाया था। उस रात उसकी आँखें चमक नहीं रही थीं। उसके हाथों में मेंहदी, पाँवों में पायल और माथे पर बड़ी-सी गोल लाल बिंदी थी। वह मेरे बिलकुल पास आई। धीरे से उसने अपने होंठ मेरे माथे पर रख दिए। उसकी आँखें भीग गईं।
'मैं तुम्हारी आँखें चूम लूँ?' मैंने मुश्किल से कहा।

उसने मेरा सिर झुका लिया। मैं उसकी दोनों आँखों को बारी-बारी से चूम कर चला आया। वनि की गीली आँखों का स्वाद कई दिन तक मेरे मुँह में रहा था।
कई दिन बाद मुझे वनि ने लिखा- 'शादी के छह दिन बाद उसने मुझे छुआ। मेरे मुँह से तुम्हारा नाम निकल गया। मुझे बहुत ख़राब लगा तब, लेकिन इसलिए नहीं कि तुम्हारा नाम निकला था।'
फिर कुछ दिन बाद वनि ने लिखा-
'खिड़की से पूरा चाँद मेरे कमरे में चला आता है। मेरी आँखें भीग जाती हैं। मैं तब पाँवों में पायल पहनती हूँ और माथे पर बड़ी-सी गोल लाल बिंदी लगा लेती हूँ।' मैं सोचता था कि वनि शायद लिखना भूल गई है कि उसने अपने घर में कैक्टस का पेड़ लगा लिया है। बहुत बड़ा घर और बहुत बड़े सुख उसकी हथेली पर थे। मैं तब कितनी ही देर उसके चेहरे पर चमकते सूरज के बारे में सोचता था। वनि ने अपनी आँखों से सारे सपने उतारकर कैक्टस के पेड़ पर टाँग लिए होंगे। मैंने एक बार सोचा भी कि उसको लिखकर पूछूँ कि उसने कैक्टस का पेड़ लगाया कि नहीं लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं जानता था कि वह आज भी पूजा करती है और कैक्टस का पेड़ उसके कमरे की खिड़की के बाहर लगा होगा।

फिर लिखा वनि ने-
'मैंने तुम्हारी आँखों में मरा हुआ सपना देखा था और तुम ज़िंदा हो। सपना मरने के बाद कैसे ज़िंदा रहा जाता है, मैं सीखना चाहती हूँ, मैं आ रही हूँ।'

वनि आई थी फिर। उसका चेहरा बिलकुल सूख गया था। होंठों पर पपड़ी-सी जम गई थी। शायद कई महीनों से वह हँसी नहीं थी। उसकी आँखों के चारों तरफ़ काले गड्ढे उतर आए थे। मैं चुपचाप उसे घूरता रहा। आगे बढ़कर वनि ने मेरे माथे पर अपने होंठ रख दिए। बिलकुल उसी तरह, उसी जगह, जहाँ एक सपना हमेशा टंका रहता था। उसके होंठ काँपे, बिलकुल वैसे ही, किसी चिड़िया के पंखों की तरह। उनके नीचे चिपका तिल वैसे ही थरथरा रहा था।

'तुम बिलकुल वैसे ही हो, जैसा मैंने सोचा था।'
‘कैसा?’
'एक मरा हुआ सपना। ऐसा क्यों होता है ? '
'क्या?'
'भगवान सपना क्यों जला देते हैं?'

वनि फूट-फूटकर रो पड़ी। मैंने उसका चेहरा अपनी हथेली में भर लिया।
वनि बताती रही कि वह एक सामंती परिवार में पहुँच गई है। उस घर में सिर्फ़ नाम बढ़ाने के लिए एक लड़का चाहिए। वनि वह लड़का देगी– बस। उसके पति और उसकी माँ ने उसे इस काम के लिए सब सुख दे रखे हैं। बड़ा घर, बड़े आराम. लेकिन वह वनि का 'अपना घर' नहीं है। वनि कैक्टस का पेड़ नहीं लगा पायी। वनि बहुत देर तक रोती रही।

'तुम लौट जाओ, ' मैंने कहा। वनि मेरे सीने में दुबक गई।
'मैंने पहले भी कहा था, कभी किसी सपने को अपने जीवन से ऊपर मत जाने देना।' मैंने कहा।
'तुम्हें कैसा लगता है?' वनि ने सिर उठाया।
'क्या?'
'बिना सपने के जीना। कोई जी सकता है? '
‘सब जीते हैं वनि। ज़्यादातर देह खाली नाव हैं बस जो समय की नदी पर बह रही हैं। उनके अंदर कुछ भी नहीं है, कोई सपना नहीं, कोई जिजीविषा नहीं, इच्छा नहीं. एक दूसरा सपना देखो वनि, अपने बच्चे का सपना। अपने सारे सुख इस सपने से जोड़ लो। इसी में सुख है तुम्हारा।'
'और तुम... ?'
मैं चुप हो गया। खिड़की के शीशे पर एक मरी हुई तितली चिपकी थी। 'चलो, छोड़ दूँ तुम्हें।'

वनि ने मेरा हाथ पकड़ लिया। उसका हाथ काँप रहा था। शायद वह मेरे लिए कुछ करना चाहती थी, कुछ कहना चाहती थी; कोई ऐसी बात, जिससे वह मुझे कुछ सुख दे सके। 'चलो', मैंने वनि का हाथ थपथपाया।

हम दोनों बाहर निकल आए थे। और उसके बाद मैं बूढ़ा होता रहा। कभी-कभी वनि के बारे में सोचता। पतझर की सूखी पीली पत्तियों पर चलते-चलते अचानक रुक जाता। यहीं, इसी क्षण अगर वनि होती ! ऐसे ही आँखें बंद किए पड़ा रहता, पलकों पर वनि की उदास आँखें लिए हुए।

कभी-कभी वनि लिखती। लेकिन पहले की तरह नहीं। शायद वह भी बूढ़ी हो रही थी। अब सपनों की या तितली की या कैक्टस के पेड़ की बात नहीं करती। बस दो-चार लाइनें-
‘अपनी लड़की को देखती हूँ तो लगता है, ख़ुद होंठों के नीचे का तिल मिटा कर पैदा हो गई हूँ।'
फिर कभी लिखती-
'तुम कहते हो कोई सपना जीवन से ऊपर नहीं होना चाहिए! और आस्था? आस्था का तो महत्व तभी है जब वह जीवन से ऊपर हो। मैं अक्सर सोचती हूँ, मेरी वह आस्था शायद तुम हो।'
मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगी थीं। मैं छड़ी के बग़ैर चलता तो पैर काँपते थे। वनि ने फिर लिखा-
'म्रदिमा की समर वेकेशंस हैं। उसे मैं तुम्हारे पास भेज रही हूँ। मैं बहुत अशांत हूँ। तुमने कहा था अपना सपना अपने बच्चे के साथ जोड़ना। मैंने वही किया। म्रदिमाको प्यार दोगे तो मुझे सुख मिलेगा।'

म्रदिमा को मैं स्टेशन पर लेने गया। वनि ने लिखा था ख़ुद जैसे वह अपने होंठ के नीचे का तिल मिटा कर पैदा हो गई है। मुझे यकीन था कि मैं पुरानी वनि को देखूँगा तो पहचान लूँगा।

हल्की कुनमुनी धूप में गाड़ी आकर रुकी। एक कोने में खड़ा मैं म्रदिमा को दूँढ़ रहा था। पीछे से किसी से मुझे जकड़ लिया। मैंने घूमकर देखा। गुलमोहर में डूबी दोपहर. तितली पकड़ती, हाँफती हुई वनि।

'वनि,' मेरे होंठ काँपे।
'वह तो माँ का नाम है, ' म्रदिमा खिलखिलाई, 'मैं जानती थी यही होगा।' हम बाहर निकल आए। रास्ते भर म्रदिमा बोलती रही, जैसे सालों पुरानी जान-पहचान हो-
'मेरे पास चिड़िया के पंख हैं। रंग-बिरंगे, ख़ूब सारे। एक दिन सबको जोड़कर बड़ा-सा पंख लगाकर उड़ जाऊँगी... उल्लू एक सौ तैंतीस तरह के होते हैं। ग्रेब के पंद्रह हज़ार सोलह पंख होते हैं... आप इतना चुप क्यों रहते हैं... मैं इतना चुप रहूँ तो मेरा पेट फट जाए-भड़ाम...'
मैं म्रदिमा को देख रहा था।
'आप नहीं बोलेंगे? ' म्रदिमा ने मुझे हिलाया।
मैं चौंक गया, 'मैं सोच रहा था...'
'क्या?'
'तुम हँसती हो तो लगता है जैसे किसी फूल की पंखुरी-पंखुरी नोच कर फेंक दी गई हो।' म्रदिमा खिलखिलाई, ‘रोती हूँ तो कैसी लगती हूँ बताऊँ?'
'हाँ।'
'आँखें ऐसे भीग जाती हैं जैसे बरसात में खिड़की का शीशा... माँ कहती है।'

म्रदिमा पाँच दिन तक रही थी मेरे पास। रोज़ सुबह हम निकल तीन सन्नाटे में प्रक्रिया किसी चिड़िया की तरह उड़ा करती। मैं किसी पेड़ के नीचे लेटा रहता। न जाने कितना कुछ मेरी हथेलियों से गुज़रता रहता। वनि, उसके माथे की सलवटें, उसकी छुअन, उसकी उदास आँखें और चिड़िया के पंखों की तरह काँपते होंठ। मेरे आसपास बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता– बड़ी सी गोल लाल बिंदी, मेरे माथे पर टँका सपना, फुसफुसाती हुई वनि, 'भगवान सपना जला देते हैं... कभी अपना घर तो...' मैं अपनी उँगलियों की पोरों पर इन सबको बुनता रहता। तभी म्रदिमा हुआ दौड़ती-हाँफती आती और मेरे सीने पर गिर जाती।

'आपको अच्छे लगते हैं?' न जाने कहाँ से शहतूत तोड़ लाती वह।

'नहीं।'
'लैला को अच्छे लगते थे। मजनूं उसे तोड़कर खिलाता था। '
'तुम्हें कैसे मालूम?' मैं उसके बालों में हाथ फेरता रहता।'
‘एक पठानी गीत है। तूतान पाखशू लैला मनशवा। (शहतूत पक गए और लैला मर गई।) मजलुन जंगल फजड़ाशू। (मजनूं जंगल में रो पड़ा।)' खिलखिलाकर हँस देती म्रदिमा। और तब मैं सोचता– एक वनि और दूसरी वनि... जीवन में कितना फ़र्क़ हो जाता है, कुछ मिल जाने और न मिल पाने से।- म्रदिमा जाने वाली थी। मैं खिड़की के पास बैठा था। चाँदनी का एक टुकड़ा मेरे पैरों के पास रेंग रहा था। कमरे में बहुत हल्का अँधेरा था। म्रदिमा न जाने कब आ गई. मेरे कंधे पर हाथ रखा उसने। मैंने सिर उठाकर देखा। आज वह चुप थी। बेहद चुप. ऐसा कभी नहीं हुआ था। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।

'क्या बात है?'
'सुबह चली जाऊँगी।'
'मन नहीं है?'
‘नहीं,' वह मुस्करायी। बीमार और पीली मुस्कान। एक किताब उसने मेरे हाथों में दे दी, ‘माँ ने कहा था आने से पहले आपको दूँ...' म्रदिमा मेरे पास ही बैठ गई. 'क्या है यह?'
‘सैंतालीस मरी हुई तितलियाँ,' म्रदिमा सीधे मेरी आँखों में देख रही थ।. चाँदनी का टुकड़ा मेरे पैरों में लिपट गया, किसी सफ़ेद साँप की तरह। किताब को खोलकर देखा मैंने अंदर वैसी ही मरी हुई तितलियाँ सूखे पंख लिए.। पन्नों पर कहीं- ख़ून के धब्बे... येलो पैंजी... रेड हेलन... पेरिस पीकॉक.... 'तुम ऐसा क्यों करती हो?' मैं पूछता था।
'सुख... ' वनि कहती थी।
मैंने किताब बंद कर दी।
'एक बात पूछूँ?' म्रदिमा ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। वह काफ़ी गंभीर लग रही थी। बिलकुल रोने के पहले जैसी उसकी आँखें गीली हो गई थीं।
'ऐसा क्यों हुआ? मैं आपकी बेटी क्यों नहीं बन पायी?' मेरा हाथ काँप गया। म्रदिमा ने मेरा हाथ और कसकर पकड़ लिया।
'यह क्यों पूछा तुमने?'
'माँ ने कहा था।'
'तुम्हारी माँ की उँगलियाँ लंबी नहीं थीं, पाँव भी खरगोश जैसे नहीं थे और भौंहें आपस में जुड़ी नहीं थीं।' मैं हँस पड़ा। मुझे लगा मैं अचानक हल्का हो गया हूँ। म्रदिमा ने मेरी हथेली अपने गालों से छुआ ली।

म्रदिमा रो रही थी। उसकी आँखें सचमुच बिलकुल वैसे ही भीग गई थीं जैसे बरसात में खिड़की का शीशा।

सुबह मैं म्रदिमा को स्टेशन छोड़ने गया। सब कुछ फिर पहले की तरह. वैसे ही बोलती-चहचहाती म्रदिमा, ‘चिड़ा और चिड़िया घोंसला कैसे बनाते हैं, मालूम है...? गौरैया एक सेकंड में तेरह बार पंख फड़फड़ाती है... छह मीटर लंबी दुम का मुर्गा देखा है कभी...? लांग टेल्ड यॉकोहामा...'
वनि ने लिखा था, मेरा यह सपना मर गया तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी। नर्म कुनकुनाती धूप में खिलखिलाता सपना, पंखुरी-पंखुरी टूटकर गुलाब होता सपना, घाटियों में चिड़ियों की तरह पंख फैलाए उड़ता सपना।
म्रदिमा गाड़ी में बैठ चुकी थी। हरी बत्ती हो गई।

'फिर आओगी?'
'हाँ!' उसने मेरा हाथ पकड़ लिया।
गाड़ी ने सीटी दे दी।
'कुछ कहना चाहोगी?' मैंने पूछा।
'हाँ! बस एक सपना। माँ को नहीं मालूम,' म्रदिमा की आँखें चमकने लगीं।
बिलकुल वैसे ही, जैसे वनि की आँखें चमकती थीं, 'कभी अपना घर हुआ तो उसमें कैक्टस का पेड़ ज़रूर लगाऊँगी !' वह फुसफुसायी।
मेरा हाथ छोड़ दिया उसने. गाड़ी चल दी थी।

मैं बूढ़ा हो गया हूँ। और काँपते हाथों से वनि को लिख रहा हूँ- समय की नदी में बहुत- सी देह खाली नावों की तरह बह रही हैं। इस महासमंदर में शायद एक नाव और बढ़ेगी; और शायद एक पुरानी नाव, एक पुरानी देह इसमें डूब जाएगी।

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2 Total Review
S

Seema Singh

25 July 2024

ग़ज़ब लिखी गई कहानी है,ना सिर्फ़ पाठक के तौर पर प्रभावित करती है, बल्कि लेखक के रूप में भी बहुत कुछ कहती सिखाती है। वाक्य विन्यास शब्दों का चयन सब कुछ अप्रतिम! कभी न भूलने वाली कहानी है।

शशि श्रीवास्तव

11 July 2024

एक पठनीय व हृदयस्पर्शी प्रेम कहानी

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रचनाकार परिचय

प्रियंवद

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मस्थान- कानपुर (उत्तर प्रदेश)
जन्मतिथि- 22 दिसम्बर, 1952
शिक्षा- एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति)
प्रकाशित पुस्तकें- 'परछाईं नाच', 'वे वहाँ क़ैद हैं' (उपन्यास); 'एक अपवित्र पेड़', 'खरगोश', 'फाल्गुन की एक उपकथा' (कहानी-संग्रह)
सम्पादन- 'अकार' पत्रिका