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प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की बारहवीं कड़ी

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की बारहवीं कड़ी

शिखा की बातें सुनकर प्रखर उस रोज़ कितनी ज़ोर से हँसा था। उसकी निश्चल और मासूम हँसी को सुनकर शिखा में घबराहट व उत्सुकता एक साथ जाग्रत हो उठी थी।

यादों की लड़ियों ने उसे कॉलेज के प्रांगण में लाकर खड़ा कर दिया था। प्रखर से जब भी शिखा मिलती, साथ में गुज़रे अतीत में चुपचाप ही पहुँच जाती। समय-समय पर अतीत को ओढ़कर उसकी गर्माहट को महसूस करना, शिखा की बहुत पुरानी आदत थी। जिसे प्रेम में इतना कुछ मिला हो, वह इन सुखद एहसासों को क्यों छोड़ना चाहेगा?

उस रोज़ कॉलेज का पहला दिन था। जब प्रोफेसर गुप्ता ने तीन पीरियड लगातार एक साथ लिए थे। प्रखर का तीनों पीरियड में शिखा को लगातार दो घंटे तक देखते रहना, शिखा के भीतर आज भी कहीं ठहरा हुआ था। प्रखर के लगातार घूरने से शिखा कहीं बौखला रही थी पर प्रखर बहुत शांत-निश्चल बैठा, उसे लगातार देख रहा था। यही क्रम तीन दिन तक लगातार चला।

प्रखर के चेहरे पर कोई ग्लानि या अपराधबोध का भाव नहीं था। उसे तो बस शिखा को भरपूर निहारना था। जब शिखा से बर्दाश्त नहीं हुआ तो क्लास के बाद उसने प्रखर को रोककर उसकी क्लास लगाई थी-
"यह क्या बत्तमीजी है तुम्हारी। कौन हो तुम मुझे ऐसे घूरने वाले? तुम्हें शर्म नहीं आती! कोई भी मेरे या तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? तुम्हें अपनी इज़्ज़त का ख़याल नहीं पर मेरी इज़्जत का तो सोचो।"

"मैं कौन नहीं, प्रखर हूँ शिखा! तुम्हारा नाम मैंने तुम्हारी मित्रों से जाना। वो भी आज से नहीं, आज से चार साल पहले से। कौन क्या कहेगा, यह मुझे नहीं मालूम पर जैसे ही तुम्हें कॉलेज के गेट में घुसते हुए देखता हूँ, मेरी आँखें मेरा साथ छोड़कर तुम्हारे पीछे-पीछे घूमती हैं। पगली! मेरे बस में कुछ भी नहीं रहता। हर रोज़ इंतज़ार करने लगा हूँ, कॉलेज के गेट पर ही तुम्हारा। कब तुम आओ और कब हम साथ-साथ क्लास अटेंड करने पहुँचे। तुमसे दूर ही बैठता हूँ ताकि तुम्हें अच्छे से निहार सकूँ।"

"आज से नहीं, चार साल पहले से। इसके मायने क्या हैं? क्या कहना चाहते हो तुम प्रखर! तुम मुझे पहले से जानते हो, पागल तो नहीं हो गए हो?" प्रखर की बात सुनकर शिखा अचरज से घिर गई थी।
"हाँ! बहुत पहले से जानता हूँ। वो भी कैसे, यह भी बताऊँगा तुम्हें।"
"क्या कहना चाहते हो प्रखर? साफ-साफ बोलो। मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर कुछ पागलपन-सा लग रहा है। तुम सच में पागल तो नहीं हो प्रखर?"
शिखा की बातें सुनकर प्रखर उस रोज़ कितनी ज़ोर से हँसा था। उसकी निश्चल और मासूम हँसी को सुनकर शिखा में घबराहट व उत्सुकता एक साथ जाग्रत हो उठी थी।

"पहले बताओ सच क्या है?"
तब प्रखर ने कहा था- "पहले एक बार मेरे साथ कॉफी पीने के लिए चलने का वादा करो! सब सच-सच बताऊँगा। कहीं बाहर नहीं जाएँगे बस यहीं कॉलेज कैन्टीन में साथ बैठेंगे।" उस समय शिखा को सोच में डूबते हुए देखकर प्रखर ने कितनी मासूमियत के साथ कहा था।
"शिखा, इतना क्या सोच रही हो! बहुत लोग होते हैं वहाँ। मैं झूठ नहीं बोलता हूँ। तुम्हें हमेशा मेरे से बात करने के बाद मुझमें विश्वास ही बढ़ेगा।"

शिखा को तब याद आया, कैसे उसके सहमति में सिर हिलाते ही प्रखर के चेहरे पर मासूम-सी मुस्कान फैल गई थी। जब वो दोनों कैन्टीन में मिले, प्रखर ने ही बात शुरू की- "शिखा, आज मैं कितना ख़ुश हूँ। तुमने मेरी छोटी-सी पहली इच्छा को मान लिया। मैं अपनी कोई भी बात कहने से पहले यही कहूँगा कि मेरी हर बात पर प्लीज़ भरोसा करना। तुम्हें याद है शिखा, तुम्हारे स्कूल के सामने एक बॉयज़ स्कूल हुआ करता था। मेरे और तुम्हारे स्कूल की पूरी छुट्टी साथ-साथ हुआ करती थी।"

"हाँ, याद है अच्छे से। आगे बोलो प्रखर तुम। पर रुको, कहीं तुम वही तो नहीं हो, जिस लड़के ने मेरी साईकल दो बार रोकी थी और मुझसे बात करने की कोशिश की थी। एक बार तुमने मेरी साईकल के आगे अपनी साईकल अड़ा दी थी। और हाँ, तुमने बोला था कि मुझे तुम्हारा आज का एग्जाम पेपर देखना है।

"सही पहचाना शिखा तुमने और तुमने बोला था नहीं दिखाना मुझे। जाओ यहाँ से। उस दिन तो मैं चला गया पर अगले दिन मैं ख़ुद को फिर से तुमसे मिलने से नहीं रोक पाया। फिर पहुँच गया तुमसे मिलने। आज के जैसे ही कितनी प्यारी लगती थी तुम उन दिनों में भी शिखा। स्कूल कैबिनेट में थी न तुम! तुम्हारे सेश पर सेक्रेटरी लिखा हुआ था और बैच पर भी। स्कूल कैबिनेट में होने से तुम्हें रौब गाँठना ख़ूब आता था।"

उस दिन कुछ रुककर फिर से अपनी ग़लती सुधारते हुए प्रखर ने बोला था- "ओह! सॉरी भूल गया। शुरू में तुम सिर्फ़ बैच लगाती थी क्लास मॉनिटर का। ग्यारवी-बारहवीं में सेश था सेक्रेटरी का। सही बोल रहा हूँ न शिखा! लगातार चार साल छिपकर देखा है मैंने तुम्हें। अगर तुमने अपने भाई न भेजे होते तो..." बोलकर प्रखर चुप हो गया था।

उस रोज़ प्रखर की बातों ने उस पर भरोसा करवाया। वह कैन्टीन में पहली बार किसी लड़के के साथ कॉफी पीने गई थी। जब तक प्रखर के साथ रही, चुपके से बार-बार अगल-बगल झाँकती रही थी शिखा। कहीं कोई देख-सुन तो नहीं रहा। जब इत्मीनान हो जाता, बार-बार उसके चेहरे पर आई लाली को देखकर प्रखर अनायास मुस्कुरा जाता।

"याद आया तुम्हें शिखा! साइकिल रोकने के बाद तुमने अपने भाइयों को बोल दिया था। ख़ूब धमका कर गए थे वो मुझे। शिखा तुम्हें तो पता ही होगा, हॉकी लेकर आये थे तुम्हारे भाई पर मैं भी ढीठ था। छिप-छिप कर तुम्हें देखने आता था। मैं उस वक़्त इतना साहसी नहीं था कि उनका सामना करता।"
प्रखर की बातों में कहीं भी झूठ नहीं था। शिखा ने उससे कहा था- "हाँ याद आया प्रखर। मैं भी डर गई थी कि कहीं तुम मुझे वापस तंग न करो।"

शिखा ने उस रोज़ प्रखर को उस दूसरे लड़के के बारे में भी बताया था, जिसने उसे बहुत हैरान किया था। रोज़ सवेरे-सवेरे शिखा के स्कूल साइकिल पर रवाना होते ही वह भी अपनी साइकिल लेकर रवाना होता था। उस लड़के का स्कूल भी शायद शिखा के स्कूल के ही पास था। लड़के-लड़कियों के काफ़ी स्कूल शिखा के स्कूल के आस-पास थे। उन दिनों ट्रैफिक ज़्यादा नहीं होता था तो काफ़ी बच्चे साइकिल से ही स्कूल-कॉलेज जाया करते थे। वो लड़का पूरे रास्ते ख़ूब सारे प्रेम गीत गा-गाकर शिखा को सुनाया करता था।

उस रोज़ अपनी यह बात बताते-बताते अचानक शिखा खिलखिला पड़ी थी क्योंकि शिखा दिखने में बहुत सुंदर थी। एक ही एरिया में लड़के-लड़कियों के कई स्कूल होने के कारण ऐसी घटनाएँ होती रहती थीं।

शिखा ने कैसे शरमाते हुए प्रखर से सारी बात साझा की थी। आज भी उन बातों को वह महसूस करती थी। घर से निकलते समय उसे कैसे घबराहट होती थी! पंद्रह-बीस दिन गुज़रने पर भी जब वह रोज़ उसके पीछे आता रहा तो शिखा ने एक दिन अपने सभी चचेरे भाइयों को इस घटना के बारे में बताया। एक बड़े कॅम्पस में पापा के सभी भाई रहा करते थे और शाम में सभी भाई-बहन एक जगह इकट्ठे होकर ख़ूब गपियाते थे। सभी भाइयों ने उसे सलाह दी कि एक बार ख़ुद ज़ोर से डाँट लगा, फिर कोई नहीं आएगा। अगर फिर भी नहीं माना तो हम देख लेंगे।

प्रखर को अपनी यह बात बताते-बताते शिखा कितना हँसी थी। भाइयों के जोश ने कैसे उसका ख़ूब हौसला बढ़ाया। अगले ही दिन जैसे ही उसने गाना शुरू किया, उसने साइकिल से उतरकर उस लड़के को ख़ूब झाड़ा- "क्या बदतमीज़ी है यह! इतना ही गाने का शौक है तो घर पर सुर लगाओ। मेरे पीछे-पीछे आकर गाने की क्या ज़रूरत है? सुधर जाओं नहीं तो"....बोलकर वो चुप हो गई थी। उसके बाद वह उसके पीछे कभी नहीं आया।

उसने घर लौटकर जब भाइयों को सारा वाकया बताया तो यह भी बताया कि आज पहली बार किसी को सड़क पर खड़े होकर डाँटने में कैसे उसका एक पैर हिल रहा था और ऐसे में समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। प्रखर को उसने यह भी बताया कि उसके सारे भाई बहुत शैतान थे। उन्होंने उसकी हँसी उड़ाते हुए कहा था- "दूसरा पैर भी हिलाने लगती बुद्दू"। सबने ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँसकर न सिर्फ़ उसकी हँसी उड़ाई बल्कि बोले कि फिर वो तेरे पीछे-पीछे रोज़ आ जाता और एक दिन तेरा रिश्ता माँगने भी।

शिखा के इस किस्से को सुनकर कितना हँसा था प्रखर भी! और बोला था- "कितनी निश्चल और मासूम हो शिखा तुम। तभी तो हर जगह तुम्हें ही खोजता रहा हूँ।" प्रखर की बातें ऐसी ही होती थीं, जिनके साथ-साथ शिखा बहती जा रही थी।

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रचनाकार परिचय

प्रगति गुप्ता

ईमेल : pragatigupta.raj@gmail.com

निवास : जोधपुर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 23 सितंबर, 1966
जन्मस्थान- आगरा (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (समाजशास्त्र, गोल्ड मैडलिस्ट)
सम्प्रति- लेखन व सोशल-मेडिकल क्षेत्र में काउंसिलिंग
प्रकाशन- तुम कहते तो, शब्दों से परे एवं सहेजे हुए अहसास (काव्य-संग्रह), मिलना मुझसे (ई-काव्य संग्रह), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), माँ! तुम्हारे लिए (ई-लघु काव्य संग्रह), पूर्ण-विराम से पहले (उपन्यास), भेद (लघु उपन्यास), स्टेप्लड पर्चियाँ, कुछ यूँ हुआ उस रात (कहानी संग्रह), इन्द्रधनुष (बाल कथा संग्रह)
हंस, आजकल, वर्तमान साहित्य, भवंस नवनीत, वागर्थ, छत्तीसगढ़ मित्र, गगनांचल, मधुमती, साहित्य भारती, राजभाषा विस्तारिका, नई धारा, पाखी, अक्षरा, कथाबिम्ब, लमही, कथा-क्रम, निकट, अणुव्रत, समावर्तन, साहित्य-परिक्रमा, किस्सा, सरस्वती सुमन, राग भोपाली, हिन्दुस्तानी ज़ुबान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, दैनिक नवज्योति, पुरवाई, अभिनव इमरोज, हिन्दी जगत, पंकज, प्रेरणा, भारत दर्शन सहित देश-विदेश की लगभग 350 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन और अनुवाद।
कविता अनवरत, कविता अभिराम, शब्दों का कारवां, समकालीन सृजन, सूर्य नगरी की रश्मियाँ, स्वप्नों की सेल्फ़ी, कथा दर्पण रत्न, छाया प्रतिछाया, सतरंगी बूंदें, संधि के पटल पर आदि साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण-
जयपुर दूरदर्शन से चर्चा व आकाशवाणी से सृजन का नियमित प्रसारण
सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में कविता का स्थान विषय पर टी.वी. पर एकल साक्षात्कार
संपादन- अनुभूतियाँ प्रेम की (संपादित काव्य संकलन)
विशेष-
राजस्थान सिन्धी अकादमी द्वारा कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' का अनुवाद।
कहानियों और कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' पर शोध।
प्रतिष्ठित कथा प्रधान साहित्यिक पत्रिका 'कथाबिम्ब' के संपादक मण्डल में क्षेत्रवार संपादक
कहानियों व कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद
हस्ताक्षर वेब पत्रिका के लिए दो वर्ष तक नियमित 'ज़रा सोचिए' स्तंभ
सम्मान/पुरस्कार-
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (भोपाल) द्वारा 'तुम कहते तो' काव्य संग्रह पर 'श्री वासुदेव प्रसाद खरे स्मृति पुरस्कार' (2018)
'अदबी उड़ान काव्य साहित्य पुरस्कार' काव्य संग्रह तुम कहते तो और शब्दों से परे पुरस्कृत व सम्मानित (2018)
साहित्य समर्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय 'डॉ० कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता' श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (2019 और 2020)
विद्योत्तमा फाउंडेशन, नाशिक द्वारा 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' कहानी संग्रह 'विद्योत्तमा साहित्य सम्राट सम्मान' से पुरस्कृत (2021)
श्री कमल चंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार 2021
कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित 'माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान' 2021, विशेष सम्मान व पुरस्कार
लघु उपन्यास भेद पुरस्कृत मातृभारती 2020
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा 'साहित्य सारंग' से सम्मानित (2018)
अखिल भारतीय माथुर वैश्य महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 'समाज रत्न' से सम्मानित (2018)
डॉ० प्रतिमा अस्थाना साहित्य सम्मान, आगरा (2022)
कथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान 'रघुनंदन त्रिवेदी कथा सम्मान' स्टेपल्ड पर्चियांँ संग्रह को- 2023
पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा 'इंद्रधनुष' बाल कथा संग्रह को 'बाल साहित्य सृजक' सम्मान 2023 
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'कुछ यूँ हुआ उस रात' को विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान 2023
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