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कानपुर का नवजागरण (भाग चार)- पण्डित लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी  

कानपुर का नवजागरण (भाग चार)- पण्डित लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी  

16 अगस्त 1905 का दिन कानपुर ने बंगाल के एकीकरण के लिए विशेष रक्षाबंधन के रूप में बड़ी धूमधाम से मनाया। इस प्रकार जन आन्दोलन की पहली किरण कानपुर की भूमि में फूटी। 

प्रथम जन आन्दोलन 
 
बंगाल मे चल रहा स्वदेशी आन्दोलन सीमायें तोड़कर सारे भारत मे छा गया। बंग-भंग की प्रतिक्रिया स्वरूप कानपुर मे प्रथम जन आन्दोलन का श्री गणेश, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के प्रचारार्थ, प्रसिद्ध आर्यसमाजी कार्यकर्ता श्री सूर्य प्रसाद मिश्र के नेतृत्व मे हुआ।नगर में अनेक सभायें हुईं जिनमें नवयुवक नलिन कुमार मुकर्जी, नारायणप्रसाद अरोड़ा आदि ने अपने भाषणों से नवयुग का सन्देश नगरवासियों तक पहुँचाया। बहुतों ने "स्वदेशी" का व्रत ले लिया और जावा की सफेद शक्कर का परित्याग कर शुद्ध पीली देशी शक्कर अपनाई। राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' ने 'स्वदेशी कुण्डल' की रचना कर राष्ट्र प्रेम का प्रचार जन मानस में इन शब्दों में किया:--
" पानी पीना देश का खाना देशी अन्न,
निर्मल देशी रुधिर से नस-नस हो सम्पन्न। 
नस नस हो सम्पन्न तुम्हारी उसी रुधिर से,
ह्रदय, यकृत सर्वांग नसों तक लेकर शिर से।। 
यदि न देश हित किया कहेंगे सब अभिमानी, 
शुद्ध नहीं तव रक्त नहीं तुममें कुछ पानी।"
 
16 अगस्त 1905 का दिन कानपुर ने बंगाल के एकीकरण के लिए विशेष रक्षाबंधन के रूप में बड़ी धूमधाम से मनाया। इस प्रकार जन आन्दोलन की पहली किरण कानपुर की भूमि में फूटी।  
सन् 1905 में बनारस मे गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में कांग्रेस का इक्कीसवाँ  महाअधिवेशन हुआ, जिसमें पर्याप्त संख्या में कानपुर से डेलीगेट गए। इस अधिवेशन में पहली बार स्पष्ट रुप से दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं का नरम व गरम का रूप उभर कर सामने आया। नगर में डेलीगेट्स के लौटते ही कानपुर भी दो धाराओं मे बँट गया और गरम धारा के प्रमुख थे श्री नारायण प्रसाद अरोड़ा, जो तिलक के आजीवन अनुयायी रहे।  इसी वर्ष कानपुर के राय पुरुषोत्तमचन्द्र के लाटूश रोड स्थित थियेटर हाल में, चक साहब की अध्यक्षता में जब गोपालकृष्ण गोखले भाषण दे रहे थे, तो कुछ नवयुवकों ने उपद्रव मचाना चाहा, लेकिन चक जी की ने स्थिति सम्हाल ली। स्पष्ट है कि कानपुर में दो पीढ़ियों का द्वंद आरम्भ हो गया था। 27 जून 1907 को कानपुर में अफ़गानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला के आगमन से यहाँ स्वातंत्र्य आन्दोलन को बड़ा बल मिला। इसी वर्ष लाला लाजपतराय और सरदार अजीत सिंह को ब्रिटिश सरकार ने पकड़कर मांडले भेज दिया था, जिसकी कानपुर में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। यों तो कांग्रेस 1907 के सूरत अधिवेशन में दो भागों में विभक्त हो गई थी लेकिन देश में और नगर में कांग्रेस का नेतृत्व नरम दल वालों के हाथों में ही रहा। 
 
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क्रमश:

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रचनाकार परिचय

पण्डित लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

पण्डित अम्बिकाप्रसाद त्रिपाठी के पुत्र पण्डित लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी जी का जन्म 20 अक्टूबर 1898 को कुन्दौली, कानपुर में हुआ था। सन् 1918 में क्राइस्टचर्च कालेज कानपुर से बी.ए.करने के बाद लक्ष्मीकान्त जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. इतिहास विषय मे उत्तीर्ण कर अध्यापन कार्य मे संलग्न हो गये। कानपुर के क्राइस्टचर्च कालेज मे दीर्घअवधि तक अध्यापन व इतिहास विभाग के अध्यक्ष पद पर रहे और एक वर्ष कान्यकुब्ज कालेज के प्रधानाचार्य भी रहे। आपके शोध निबंध सरस्वती, प्रभा, सुधा, माधुरी, प्रताप ,वर्तमान और दैनिक जागरण मे प्रकाशित होते रहते थे। आपने पटकापुर मे अपना निवास बनाया और यहीं पर सन १९४६ ई० बाबू नारायणप्रसाद अरोड़ा व श्याम विजय पाण्डेय के साथ मिलकर कानपुर इतिहास समिति का गठन किया जिसके अध्यक्ष बाबू नारायण प्रसाद अरोड़ा व मंत्री आप बने। उसी वर्ष 1946 में आपने अपने भाई रमाकान्त त्रिपाठी के साथ मिलकर "कानपुर के कवि" और सन 1947 में कानपुर के प्रसिद्ध पुरुष  व 1948 में कानपुर के विद्रोही पुस्तक बाबू नारायण प्रसाद अरोड़ा व श्याम विजय पाण्डेय के साथ मिलकर लिखी व प्रकाशित कराई थी। सन 1950 में कानपुर का इतिहास भाग-1 व 1958 में कानपुर का इतिहास भाग-2  बाबू नारायण प्रसाद अरोड़ा के साथ मिलकर लिखी व प्रकाशित कराई थी। राय देवीप्रसाद पूर्ण की कविताओं का संकलन व सम्पादन "पूर्ण संग्रह" के नाम से किया जो गंगा पुस्तकमाला, लखनऊ से प्रकाशित हुआ था। 
    आपके दत्तक पुत्र डा.अनिल मिश्र (बब्बू)  डी. ए. वी. कालेज मे इतिहास के प्रोफेसर रहे। आपका निधन कठेरुआ मे वर्ष १९८१ मे हुआ। आप स्थानीय इतिहास के साथ साथ साहित्य संस्कृति राजनीति धर्म व समसामयिक विषयों पर निरन्तर लिखते रहते थे। आपका पटकापुर कानपुर का पाठागार बहुत ही समृद्ध था ।