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होली- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा

होली- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा

फिर से एक बार फागुन लौटा है, पलाश की मद्धम आँच में सुलगता ,आम्र मंजरियों की गंध से महकता वसंत अपने चरम पर पहुँचने को है। महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत का वर्णन करते समय लिखा वृक्ष फूलों से लद गये हैं, जल में कमल खिल गये हैं, स्त्रियों के मन में काम जाग उठा है, पवन सुगंध से भर गया है।

फिर से एक बार फागुन लौटा है, पलाश की मद्धम आँच में सुलगता ,आम्र मंजरियों की गंध से महकता वसंत अपने चरम पर पहुँचने को है। महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में वसंत का वर्णन करते समय लिखा वृक्ष फूलों से लद गये हैं, जल में कमल खिल गये हैं, स्त्रियों के मन में काम जाग उठा है, पवन सुगंध से भर गया है। संध्यायें सुखद होने लगी हैं दिन अच्छे लगने लगे हैं। प्रिये वसंत ऋतु में प्रत्येक वस्तु पहले से अधिक सुंदर हो गयी है। वसंत ने बावलियों के जल को, मणियों से निर्मित मेखलाओं को,चंद्रमा की चाँदनी को, प्रमदाओं को आम के वृक्षों को सौभाग्य प्रदान कर दिया है ......

ये पढें तो ये विचार किये बिना नहीं रहा जा सकता कि कवि ने एक ही स्वर में पवन कमल जल चाँदनी आम्रमंजरियों जैसे प्राकृतिक आलंबनो के साथ ही प्रमदा या स्त्री को रखा है। जैसे वो कवि के रसिक मन की अतृप्त कामनाओं का बिंब मात्र हो ! पर क्या सचमुच स्त्री एक बिंब, एक उपमान एक उद्दीपन भर है वसंत का। या वो अधिकार रखती है भोग का, आनन्द का, उत्सव का भी?

लगभग सभी पर्वों पर व्रत तपस्या पूजा की जिम्मेदारी तो स्त्री ही उठाती है पर होली शायद अकेला ऐसा त्योहार है जब स्त्री उत्सव की भागीदार भी होती है। एक तरफ ये पर्व नवान्न पर्व भी होता है तो कहीं न कहीं घर की अन्नपूर्णा और उसकी रसोई से जुड़ा है .कई दिनों पहले से ही गृहणी के हाथों से बरसते अमृत की खुशबू घर के बाहर तक छलकने लगती है। कहीं गलचौर के बीच पापड़ बड़ियाँ सूख रहे होते हैं तो कहीं बतकुच्चन के साथ शकरपारे, कचौड़ी मठरियाँ छन रही होती हैं। फिर गुझिया तो है ही होली के पकवानों की महारानी।

भारत की खासकर उत्तर भारत की महिलाओं के अंदर का कलाकार इन दिनों पूरे शबाब पर होता है। पाक कला ही नहीं घर की सफाई लिपाई पुताई से लेकर रंगोली भीतचित्र तक सज जाते हैं अपने बेहतरीन स्वरूप में। और हाँ गोबर से बने कंडे उपले बल्ले जो आज इंटरनेट पर भी अच्छी कीमत पर उपलब्ध हैं। मेरे बचपन तक गाँवों क्या शहरों में भी बल्ले कंडे दस दिन पहले से बनने शुरू हो जाते थे। जी हाँ उन घरों में भी जहाँ मिट्टी का चूल्हा प्राग्एतिहासिक हो चुका होता था।

जिन घरों में गाय नहीं होती थी, उनकी गृहणियाँ ग्वालों को भाई कह कह कर बुलाती नहीं थकती थीं और ग्वालों के नखरे बढते ही जाते। गोबर में भूसा मिलाकर तरह तरह के आकार के बल्ले बनाये जाते थे। चाँद सूरज सितारा पहाड़ नदी पेड़ पत्ती फूल साँप बिच्छू दिल एक अनोखी नूतन सृष्टि ही उकेर दी जाती थी। इन्हीं की मालायें बना कर जलाई जाती थीं फाल्गुन माह की पूर्णमासी को, फिर पुनर्जीवित होती थी होलिका और प्रह्लाद की कहानी।

होलिका जो एक स्त्री है, एक बुआ जो अपने प्रिय भतीजे को गोद में लेकर बैठी है। ये उस भतीजे की मृत्यु का उद्यम है जिसमें बुआ कारण बनने को कर्तव्यनिष्ठ सी तत्पर है। ज़रा सोचते हैं इस स्त्री के विषय में, कितनी समर्थ कितनी मजबूत होगी वो स्त्री जिसे उसका सम्राट भाई अपने ही बेटे का वध करने के लिये या यूँ कहें अपने ही बेटे से हार कर मदद के लिये पुकारता है।

अग्नि भय नहीं था उसे, या उसने अग्नि को वश में किया हुआ था। इस सामर्थ्य को उसकी तपस्या का फल कहें तो भी नमन है और अगर ये सोचें कि उसने अग्नि से बचाव की कोई तकनीक विकसित की हुई थी तब भी वो आदर की पात्र है, अंतत:होलिका भस्म हुई प्रह्लाद भक्ति और विश्वास के प्रमाण के रूप में शेष रहा। पर क्या सचमुच इससे ये भी प्रमाणित हुआ कि होलिका हार गयी? किंवदंती तो यह भी है कि बुआ की ममता भतीजे के लिये अपार थी।

कहीं ये तो नहीं कि नागरिक के रूप में अपनी सामर्थ्य को राजहित में प्रयोग करने की कर्तव्यनिष्ठा ने एक बुआ को भतीजे की मृत्यु का आवाहन करने पर विवश तो कर दिया पर उन्ही पलों में ममता जीत गयी और अभय का दुशाला होलिका के कंधों से प्रह्लाद के सिर पर उढ गया?

नमन है होलिका मइया !

अब आते हैं असल उत्सव पर जो प्रथमा या परेवा को मनाया जाता है रंगोत्सव या धुलैंडी! ये है असल उत्सव ,मस्ती की पाठशाला ,मौज की तरंग, रंग! कुछ ढंग कुछ बेढंग! कहते हैं इस दिन खुल कर अपने मन की सभी कुठाओं, एक रसता, चिंता, व्यथा,अहंकार और शत्रुता भूल कर रंगो के सैलाब में डूब जाना चाहिये। रंगो के आवरण में कुछ पल को ही सही जीवन की सारी कालिख कटुता कठोरता छिप जाती है।

पर क्या ये स्त्रियों के लिये भी उतना ही सत्य है ? क्या सच में स्त्रियाँ भी कुछ पलों के लिये ही सही सभी वर्जनाओं को तोड़ कर केवल अपने शरीर या मन को भोग सकती हैं?? क्या कभी भी कोई पल ऐसा होता है जब स्त्री को तन के कपड़ो या मन के पर्दो का लिहाज़ रोकता टोकता न हो? हाँ होली एक ऐसा ही त्योहार है जब परंपरागत रूप से स्त्रियों को इस उन्मुक्तता, इस खुलेपन की छूट मिलती रही है। गाँवों में यह सहज खुलापन अपनी प्रकृति के प्रति यह सहज स्वीकार्य शहरों के मुकाबले अधिक रहा है।
लोक गीत इस बात की पुष्टि करते हैं कि किस तरह मन की तमाम ग्रंथियों को दरकिनार कर स्त्रियाँ आस्वादन करती हैं राग रंग का, फागुन के मद का और वर्जना रहित खुशियों का। सुना तो होगा, फागुन में बाबा देवर लगे !!

एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से देखें तो खुद को कभी यूँ खुला छोड़ देना मन की ग्रंथियों के लिये उपचार की तरह होता है। इसीलिये इन दिनों स्त्री उन्मुक्त हो उठती है। रंगीन रसपूर्ण हो जाती है। रंगती है स्वयं को और इसी बहाने समूची सृष्टि को। यहाँ तक कि ईश्वर भी कहाँ बचते हैं नारी के अपरिमित रंगों से भरी पिचकारी से, कृष्ण तो सखा हैं ही इन दिनों शिव आदि अन्य देवता भी रंग को प्रसाद समझ स्वीकार करते हैं। होली की ये बेबाकी, गर्मजोशी ये रंगो का उत्सव प्राणवायु दे जाता है बाकी बचे साल को।

होली के मनोविज्ञान की बात करते हुये याद आ रही हैं धर्मवीर भारती जी के कालजयी उपन्यास गुनाहों के देवता की दो स्त्री चरित्र सुधा और बिनती .
सुधा भावों को मन की तलहटी में छिपा कर रखती है .उनसे घबराती नहीं पर अभिव्यक्ति की सुविधा नहीं है उसके पास। वहीं बिनती बेबाक है .उसके लिये अपनी भावनायें जरूरते उतनी ही सहज हैं जितने उसके जन्म परिवार से जुड़े संस्कार! ये बिनती के चरित्र जैसा ही है होली का भी सहज, स्वीकार्य फिर भी संस्कारित! एक दुखद पक्ष भी है होली का, कई बार स्त्रियों के बचपन या कैशोर्य से जुड़ी मनोवैज्ञानिक समस्या के सूत्र किसी होली से जा जुड़ते हैं, ऐसा तब होता है जब खुद को बंधनमुक्त करने का ये त्योहार ,अधैर्य का ये उत्सव ,स्त्री को सहज भागीदार नहीं समझता। उसे आम्र मंजरियों, कमल पवन रंग और भांग की तरह आनन्द उठाने की वस्तु मात्र समझा जाता है। स्वयं को सहज असंयत छोड़ना ठीक है पर स्वयं के अंदर के जानवर को दूसरे इंसान पर खुला छोड़ देना सही नहीं दुखद ये भी है कि आज भी देश के कई कोनों में विधवा स्त्री के सफेद वस्त्र पर रंग का एक छींटा भी उसके किरदार पर प्रश्नचिंह की तरह लग जाता है। ऐसा नहीं कह रही कि लड़कियाँ रंग नहीं खेलतीं। रंगो में सराबोर लड़कियाँ स्त्रियाँ मिल जाती हैं हर होली में, बेबाक और तेजतर्रार लड़कियाँ अब इतनी भी दुर्लभ नहीं रहीं खूब धमाचौकड़ी मचातीं हैं रँगती हैं रँगाती हैं। आसमान तक कहकहे जा पहुँचे हैं उनके ,बादलों को ईर्ष्या हो तो होती रहे।

पर क्या वो सचमुच कभी भी स्वयं को उतना स्वतन्त्र छोड़ पाती हैं जितना लड़के ? क्या कभी उनका ध्यान अपने कपड़ो या व्यवहार की तथाकथित अशोभनीयता से हट पाता है। अफसोस कि उन्मुक्तता आज भी लड़कियों के लिये उच्छृंखलता ही मानी जाती है रंगो का ये त्योहार सभी के लिये शुभ मंगल तभी बनेगा जब इसका सही अर्थ समझेगें हम लोग।
और समझेगें क्यों नहीं? समझते हैं भी।
बुरा न मानिये, दिल पर बोझ न लीजिये आखिर होली है!!

देखिये माँ ने, पत्नी ने, बहन ने कितने स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किये हैं! गुझिया का आनन्द लीजिये। विश्वास करें उनका मन और पेट तो आपको स्वाद लेते देख कर ही भर जायेगा।

और अगर व्यस्तता है भी कुछ घर की स्त्रियों को, तो जाइये बाजार ढेर सारी मिठाई और खुशियाँ ले आईये और फिर देखिये चेहरे पर खिलते गुलाब!

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रचनाकार परिचय

ज्योत्सना मिश्रा

ईमेल : docjyotsna1@gmail.com

निवास : नई दिल्ली

नाम- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा 
जन्मस्थान- कानपुर

शिक्षा- एम बी बी एस, डी जी ओ
सम्प्रति- स्त्री रोग विशेषज्ञ
विधा- कविता, कहानी, लेख एवं यात्रा-वृतांत
प्रकाशन- औरतें अजीब होती हैं (काव्य संग्रह)
देश के प्रतिष्ठित पत्र , पत्रिकाओं में लेख, कहानी एवं कविताओं आदि का प्राकाशन।
सम्पादन- साझा-स्वप्न 1 (साझा-काव्य संग्रह)
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित  
संपर्क- नई दिल्ली 
मोबाईल- 9312939295