गोविन्द गुलशन की ग़ज़लें

मलते रहेंगे हाथ करेंगे मलाल सब
ख़ाली निकल के आएँगे पानी से जाल सब
ग़ज़ल- एक
बढ़ गया मरज़ तो मैं सोचता था क्या हुआ
तब मुझे पता चला ज़ेहर जब दवा हुआ
मिल गया दराज़ में उसका ख़त रखा हुआ
था कहीं लिखा हुआ था, कहीं धुला हुआ
उसका अक्स मुझमें था, रू-ब-रू था वो मेरे
मैं उसी में खो गया, आईना बना हुआ
क्यूँ निगाह फेरकर, दिल जला रहे हैं आप
हमको कुछ बताइए हमसे क्या बुरा हुआ
एक ही पयाम तो दे रहे हैं दो फ़क़ीर
दीप इक जला हुआ, फूल इक खिला हुआ
पहले क्या था सोचिए, बन गया जो आदमी
वक़्त गुज़रा और फिर आदमी ख़ुदा हुआ
मीरा प्रेम रंग में डूब कर उबर गयी
ज़ेहर पी लिया गया ये भी मोजिज़ा हुआ
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ग़ज़ल- दो
जब डूब कर न उभरे उम्मीद के सितारे
तस्वीर हो गये हम तस्वीर के सहारे
ख़ामोशियों की ज़द में आया हुआ हूँ लेकिन
कानों में चुभ रहे हैं आवाज़ के शरारे
जब डूबने लगा मैं महसूस हो रहा था
आवाज़ दे रहे हों नज़दीक से किनारे
हमने सफ़ेद काग़ज़ काले किए तो जाना
शामिल सियाहियों में रहते हैं माहपारे
हालाँकि झूठ को सच साबित किया है हमने
लेकिन नहीं उतारे थाली में चाँद-तारे
उनसे नज़र मिली तो मंज़िल नज़र में आयी
महदूद हो गये हैं सब रास्ते हमारे
पहले तो मेरे दिल ने मुझको बचा लिया था
अब दिल भी दे रहा है बिखराव के इशारे
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ग़ज़ल-तीन
जिसमें हो सिर्फ़ तू ही तू ऐसा मुझे ख़याल दे
मेरी निगाहे-शौक़ में अपना तू अक्स डाल दे
चारों तरफ़ हैं नूर की परतें तेरे इधर-उधर
थोड़ी-सी रौशनी उठा मेरी तरफ़ उछाल दे
तेरी अज़ीम ज़ात का, कोई नहीं मुक़ाबला
कोई अगर मिसाल दे, कैसे तेरी मिसाल दे
मैं ही अगर हूँ बेवफ़ा मुझसे तअल्लूक़ात क्यूँ
तुझसे जो हो सके तो अब दिल से मुझे निकाल दे
तुझको न मैं समझ सका मेरी कोई ख़ता नहीं
तुझको समझ सकूँ सो तू दर्द में अपने ढाल दे
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ग़ज़ल-चार
मालूम है सभी को मेरा हाल-चाल सब
रक्खे हुए हैं इसलिए मेरा ख़याल सब
मलते रहेंगे हाथ करेंगे मलाल सब
ख़ाली निकल के आएँगे पानी से जाल सब
तुम सबमें और मुझमें कोई फ़र्क ही नहीं
सबकी मिसाल मैं हूँ तो मेरी मिसाल सब
ख़ुशबू भरे गुलाब चमन में नहीं रहे
सूनी पड़ी हुई हैं मुहब्बत की डाल सब
दिन आ गये बहार के, चारों तरफ़ है शोर
होने को, हो ही जाएँगे जैसे निहाल सब
जितना भी ज़ेहर तुझमें भरा है उँडेल दे
जो कुछ है तेरे ज़ेहन में बाहर निकाल सब
मैं क्या करूँ दिमाग़ के डोरे बिखर गये
उलझे हुए हैं आज भी तेरे सवाल सब
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ग़ज़ल- पाँच
बात ऐसी है बेदयारों की
जैसी होती है चाँद-तारों की
उम्र भर सामने रहे न मिले
कैसी क़िस्मत है दो किनारों की
बात यूँ भी कही गयी खुलकर
बात समझे न तुम इशारों की
ज़िक्र शबनम का हो रहा था मगर
बात छिड़ ही गयी शरारों की
कोई भी तो मेरे क़रीब न था
जब ज़रूरत थी ग़मगुसारों की
क़ैद ख़ुद ही में हो गया हूँ मैं
मेहरबानी बहुत है यारों की
मुस्कुराने लगी ख़िज़ाँ गुलशन
बात क्या छेड़ दी बहारों की
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ईमेल :
निवास : ग़ाज़ियाबाद (उत्तरप्रदेश)
मूल नाम- गोविन्द कुमार सक्सैना
जन्मतिथि- 07 फ़रवरी, 1957
जन्मस्थान- अनूपशहर (उ०प्र०)
शिक्षा- स्नातक
सम्प्रति- पूर्व विकास अधिकारी एवं राजभाषा अधिकारी (सेवानिवृत्त) नेशनल इंश्योरेन्स कम्पनी
प्रकाशन/- जलता रहा चराग़ एवं हवा के टुकड़े (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित।
प्रसारण- देश के अनेक कवि सम्मलेनों और मुशायरों में निरंतर काव्य-पाठ।
दूरदर्शन और अन्य अनेक टी० वी० चैनलों से काव्य प्रसारण।
देश विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाओं का प्रकाशन।
सम्मान/पुरस्कार-
नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (उपक्रम), दिल्ली (राजभाषा विभाग. गृह मंत्रालय) द्वारा 'युग प्रतिनिधि सम्मान' सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित।
विशेष- भारत के अनेक शहरों में नई पीढ़ी के युवाओं को कविता/शायरी की शिक्षा प्रदान करना।
सम्पर्क- 'ग़ज़ल' 224, सैक्टर- 1, चिरंजीव विहार, ग़ाज़ियाबाद (उत्तरप्रदेश)- 201002
मोबाइल- 8826828708
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