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गरिमा सक्सेना के गीत

गरिमा सक्सेना के गीत

साथ तुम्हारे पी थी जो वो
अदरक वाली चाय
चीनी नहीं, घुले थे उसमें
सब प्रेमिल पर्याय

एक- चेहरे का जयपुर बन जाना

प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल
दिल का हर पन्ना खोला था

दिल से दिल के संदेशे सब
होठों से तुमने लौटाये
प्रेम सिंधु में उठी लहर जो
कब तक रोके से रुक पाये

लेकिन मुझसे छिपा न पाये
रंग प्यार ने जो घोला था

उल्टी पुस्तक के पीछे से
खेली लुका-छिपी आँखों ने
पल में कई उड़ानें भर लीं
चंचल-सी मन की पाँखों ने

मैंने भी तुमको मन ही मन
अपनी आँखों से तोला था

नजरों के टकराने भर से
चेहरे का जयपुर बन जाना
बहुत क्यूट था सच कहती हूँ
जानबूझ मुझसे टकराना

कितना कुछ कहना था तुमको
लेकिन बस सॉरी बोला था

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दो- तुम्हारी याद

हाथों में फिर से कुल्हड़ है
और तुम्हारी याद

बारिश में रुककर टपरी पर
हम बैठे थे साथ
टकराये थे नैन, नैन से
और हाथ से हाथ

बिन बोले ही वहाँ हुए थे
मन के सब संवाद

साथ तुम्हारे पी थी जो वो
अदरक वाली चाय
चीनी नहीं, घुले थे उसमें
सब प्रेमिल पर्याय

नहीं दुबारा मिला चाय का
मुझको वैसा स्वाद

सबसे नजर बचा कर
कुल्हड़ की अदला-बदली
मगर होंठ की लाली ने भी
कर दी थी चुगली

और ताकना अगल-बगल
प्यारी चोरी के बाद

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तीन- माँ के घर जाकर आती हूँ

माँ के घर जाकर आती हूँ,
बहुत दिवस बीते
थोड़ा रखना ध्यान स्वयं का
जल्दी आऊँगी

घड़ी, चाभियाँ, मोजा, पर्स
रुमाल चिढ़ाएँगे
आँखमिचौली खेल-खेलकर
तुम्हें सताएँगे
कहीं नमक के धोखे में
चीनी ना पड़ जाये
यही सोचकर हर डिब्बे पर
लेबल चिपकाये
नहीं मिले सामान अगर
हैरान नहीं होना
मुझे लगाना कॉल प्रिये
मैं जानूँ हर कोना

मोबाइल पर मैं सारी
मुश्किल सुलझाऊँगी

तुलसी में जल और साँझ को
दीपक धर आना
शीशे पर चिपकी बिंदिया से
कुछ पल बतियाना
स्वर्णिम यादों की एल्बम
को यूँ ही दुहराना
‘दूरी लाती पास’ यही
तुम मन को समझाना
खिड़की, आँगन, दीवारें
होंगे गुमसुम सारे
बातों के मौसम लेकर
फिर आऊँगी प्यारे!

अधिक दिनों तक दूर नहीं
मैं भी रह पाऊँगी

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चार- बहुत हो चुका काम

छोड़ो भी लेपटॉप कि अब तो
बहुत हो चुका काम
आओ हम-तुम साथ बितायें
ये प्यारी-सी शाम

कंप्यूटर के ग्राफ छोड़
जी लो स्पंदन ग्राफ
मेरे चेहरे को भी पढ़ लो
मेरे बेटर हाफ

अपनी बोझिल-सी आँखों को
दो थोड़ा आराम

रिमझिम बारिश का मौसम है
साथ पकौड़े-चाय
मौसम भी रचने को आतुर
कुछ प्रेमिल पर्याय

कुछ पल जी लें आओ
बनकर हम-तुम राधा-श्याम
अगली-पिछली दुहरायेंगे
आओ मन की बात
इक-दूजे को सौंपेंगे
मुस्कानों की सौगात

वरना रेशा-रेशा जीवन
होता रोज तमाम

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पाँच- मीत तुम्हारे बिन

बिना नमक की सब्जी-सा
था फीका-फीका दिन
मीत तुम्हारे बिन

मन का मानसरोवर गुमसुम
चुप-चुप था ठहरा
लहरों की आवाजाही पर
नींदों का पहरा
नहीं चली पुरवाई कोई
पेड़ नहीं झूमा
बिना तुम्हारे मुस्कानों ने
ज्यों पारा चूमा
घड़ियों की भी चाल हुई थी
नव दुल्हन जैसी
बढ़ती सुइयाँ आगे हौले-हौले
पग गिन-गिन
मीत तुम्हारे बिन

बिना तुम्हारे मन-मरुथल में
उड़ती थी रेती
मुरझाईं खुशियाँ जैसे बिन
पानी के खेती
बिन पंछी के जैसे सूना-सूना
पड़ा गगन
बिना तितलियों के जैसे फूलों
वाला उपवन
चाहा काम करूँ कुछ लेकिन
मन ही नहीं लगा
चुभा रही थीं यादें भी रह-रह
कर मुझको पिन
मीत तुम्हारे बिन

कोई स्वाद नहीं था जैसे
कोई रंग नहीं
अँधियारे जंगल में जैसे
कोई संग नहीं
कुहरे वाले दिन में जैसी
होती हैं गलियाँ
जेठ महीने में जैसे
दुबलाती हैं नदियाँ
एक उदासी बादल बनकर
मेरे साथ रही
बिन काजल के बैठी थीं ये
आँखें बंजारिन
मीत तुम्हारे बिन

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छह- गीत हुई हैं साँसें

प्यारे लगते हो तुम जैसे
एक अवध की शाम
आँखें लगतीं भूलभुलैयाँ
बोल दशहरी आम

साथ तुम्हारे चलने से
रंगीन हुई परछाई
सभी दिशाओं में गुंजित अब
खुशियों की शहनाई

जबसे मिले मुझे तुम मुझ पर
रंग नवाबी छाया
सर्वनाम 'मैं', 'हम' में बदला
जब बदला उपनाम
फिल्मी बातें नहीं, जान लो
यह है एक हकीकत
मुझको तो इस जीवन से भी
ज्यादा इसकी कीमत

धड़कन में संगीत घुल गया
गीत हुई हैं साँसें
गाती रहतीं केवल तुमको
बनकर यह खय्याम

एक तुम्हारी कहलाने का
मुझे मिला शुभअवसर
मान संग अभिमान बढ़ा है
प्रियवर तुमको पाकर

हृदय तुम्हारा पावन मंदिर
दीप ज्योत जैसी मैं
आलोकित कर पाऊँ तुमको
चाहूँ आठों याम

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सात- याद तुम्हारा आना

चारों ओर भीड़ का पल में छू मंतर हो जाना
ऐसा ही होता है सच में 'याद तुम्हारा आना'

मन के नभ में यादों के पंछी कलरव करते हैं
तृषित चोंच में सुख रूपी ज्यों थोड़ा जल भरते हैं
लेकिन पल भर में लगता है सारा नभ वीराना
ऐसा ही होता है सच में याद तुम्हारा आना

लम्बी हो जाती हैं अक्सर सपनों वाली रातें
और स्वयं से होने लगतीं जाने कितनी बातें
बार-बार पगले मन को कितना पड़ता समझाना
ऐसा ही होता है सच में याद तुम्हारा आना

आँखें होतीं झील, अधर पर उत्सव सा मनता है
पल में माथे पर बल पड़ता फिर पल में हटता है
मन पर भारी बोझ देह का रुई-रुई हो जाना
ऐसा ही होता है सच में याद तुम्हारा आना

मुझमें तुम यूँ गहराते हो तुम ही तुम होते हो
मुझमें मैं तो सो जाती हूँ पर तुम कब सोते हो
अक्सर अपना होना ख़ुद को भी पड़ता जतलाना
ऐसा ही होता है सच में याद तुम्हारा आना

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रचनाकार परिचय

गरिमा सक्सेना

ईमेल : garimasaxena1990@gmail.com

निवास : बैंगलोर (कर्नाटक)

जन्मतिथि- 29 जनवरी, 1990
शिक्षा- बी० टेक (इलेक्ट्राॅनिक्स एंड इन्सट्रयूमेंटेशन)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन, कवर डिजायनिंग, चित्रकारी
लेखन विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, दोहा, कविता, लघुकथा आदि।
प्रकाशन- दिखते नहीं निशान एवं एक नयी शुरुआत (दोहा संग्रह), हरसिंगार झरे गीतों से (गीत संग्रह), है छिपा सूरज कहाँ पर, कोशिशों के पुल एवं चेहरे का जयपुर हो जाना (नवगीत संग्रह)। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाओं का प्रकाशन।
संपादन- दोहे के सौ रंग (सौ रचनाकारों का सम्मिलित दोहा संकलन) भाग-1एवं 2, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते।
संवदिया पत्रिका के दोहा विशेषांक का अतिथि संपादन
सम्मान/पुरस्कार- उ०प्र० हिंदी संस्थान द्वारा बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' पुरस्कार, हिन्दुस्तानी अकादमी इलाहाबाद द्वारा युवा लेखन कविता सम्मान, नवगीत साहित्य सम्मान (नवगीतकार रामानुज त्रिपाठी स्मृति) सहित दर्जनों संस्थाओं से सम्मानित।
स्थायी संपर्क- एफ- 652, राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तरप्रदेश)- 226017
वर्तमान संपर्क- मकान संख्या- 212, ए-ब्लाॅक, सेंचुरी सरस अपार्टमेंट, अनंतपुरा रोड, यलहंका, बैंगलोर (कर्नाटक)- 560064
मोबाइल- 7694928448