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दामोदर माओजो की कोंकणी कहानी 'किसकी लाश' का प्रियंका गुप्ता द्वारा हिन्दी अनुवाद

दामोदर माओजो की कोंकणी कहानी 'किसकी लाश' का प्रियंका गुप्ता द्वारा हिन्दी अनुवाद

“वह किसकी लाश है?” पीछे से आ रहे आदमी ने तेज़ी से अपनी साइकिल को पैडल मारते हुए ज़ोर-ज़ोर से पूछा। खाली पेट, सूखा गला, सिर पर चिलचिलाती धूप, नीचे जलती हुई तारकोल की सड़क पर इन सबसे झुलसते हुए  भीवा के लगातार आगे बढ़तेक़दम धीमे हो गए। भीवा की बेजान आँखों में अपनी आँखें डालकर साइकिल चालक ने अपना हाथ अपने मास्क पर रखा और उसे नीचे खींचते हुए, उसने फिर से पूछा, "किसकी लाश है ये?"

“वह किसकी लाश है?” पीछे से आ रहे आदमी ने तेज़ी से अपनी साइकिल को पैडल मारते हुए ज़ोर-ज़ोर से पूछा। खाली पेट, सूखा गला, सिर पर चिलचिलाती धूप, नीचे जलती हुई तारकोल की सड़क पर इन सबसे झुलसते हुए  भीवा के लगातार आगे बढ़तेक़दम धीमे हो गए। भीवा की बेजान आँखों में अपनी आँखें डालकर साइकिल चालक ने अपना हाथ अपने मास्क पर रखा और उसे नीचे खींचते हुए, उसने फिर से पूछा, "किसकी लाश है ये?"

घबराए भीवा ने उसी से सवाल दोहरा दिया, "किसकी?"

“तुम मुझसे पूछने की जुर्रत कर रहे? वह पेड़ के नीचे किसकी लाश है?”

इस समय तक एक और साइकिल सवार मौके पर पहुँच चुका था। उसने भी मास्क पहन रखा था।

“इस आदमी का मास्क इसके गले में क्यों है? इसे ठीक से पहनो!” वह गुर्राया।  फिर उसने पहले साइकिल सवार से पूछा, "वह किसकी लाश है?"

“हमें कौन बताएगा? यह आदमी कहता है कि इसे नहीं पता।"

“बस भगवान ही जानता है कि उसकी मौत कब हुई। वो लोग तो लाश छोड़कर चले गये। कौन जाने किस रास्ते गए हैं?” उन दोनों ने अपनी आँखों पर ज़ोर डालकर दूर तक देखा। उन्हें कोई दिखा नहीं।

"पिछले लगभग एक हफ्ते से कोई न कोई अपना सामान सिर पर लादकर या पीठ पर बाँध कर इस रास्ते पर घिसटता हुआ चल ही रहा है।"

“मैं कल पूरी शाम निगरानी पर था। किसी ने देर रात के अँधेरे में या सुबह-सुबह तड़के ऐसा किया होगा।”

"किसी ने लाश लाकर यहाँ फेंक दी होगी या हो सकता है कि वह आदमी वहीं गिर गया हो और उसकी मौत हो गई हो।"

“अगर इसे वहाँ लाकर फेंका गया है तो आप पता लगा सकते हैं। सड़क से पेड़ तक की दूरी लगभग बीस फीट की है। इसे वहाँ कौन लाकर फेंकेगा?”

“आप कल रात पहरे पर थे, है ना? आपने अगले आदमी के आने तक का इंतज़ार क्यों नहीं किया? मुझे लगता  है कि गाँव में कोई नहीं आया होगा।” गाँव वाले अपने गाँव में किसी भी कोविड-प्रभावित व्यक्ति के प्रवेश से बचने के लिए निगरानी रखते थे। तो फिर ऐसा कैसे हुआ?

"नहीं, कोई नहीं आया है। लेकिन जिसने भी इस लाश को यहाँ छोड़ा है, वह ज्यादा दूर तक नहीं पहुँच पाया होगा। यह आदमी शायद कुछ जानता हो।”

“उसे देखकर बिल्कुल नहीं लगता कि वह कुछ जानता है। फिलहाल, हम ही देखते हैं कि हम उस लाश के बारे में क्या कर सकते हैं।''

"पुलिस को सूचित करें?"

"वे क्या करेंगे? वे रिपोर्ट लिखेंगे, ज़्यादा से ज़्यादा वे यह पता लगा सकते हैं कि मरने वाला कौन है...और आखिर में  वे हमसे ही शव को ठिकाने लगाने के लिए कहेंगे। आख़िरकार, यह हमारी ज़िम्मेदारी होगी…।”

"और तब तक लाश सड़ जायेगी...।"

"और अगर लाश कोरोना संक्रमित व्यक्ति की हुई तब तो यह पूरे गाँव के लिए बहुत बड़ी आपदा होगी...।"

"इसके बजाय हम इस आदमी का का ही फ़ायदा क्यों न ले लें?" दूसरे आदमी ने भीवा को ऊपर से नीचे तक देखकर उसका आकलन करते हुए कहा।

 "गज़ब का आइडिया है। उसके पास कोई सामान भी नहीं है। चलो उसे वहाँ वापस ले चलें।” उन्हें यकीन था कि गाँव का कोई भी व्यक्ति लाश को नहीं छुएगा।

वे भीवा के सामने बातें कर रहे थे। वह डरा हुआ था। लेकिन फिर पिछले तेरह या चौदह दिनों या शायद पन्द्रह या सोलह दिनों में उसे घबराहट के अलावा और क्या अनुभव हुआ ही था?

अब सूरज सिर पर पहुँचने से पहले, जितनी दूरी वह तय कर सकता था, उतनी तय करने के उद्देश्य से उसने अपने कदम आगे बढ़ाए। लेकिन उन्होंने उसे चेतावनी देते हुए रोक दिया, "वह लाश चाहे किसी की भी हो, लेकिन जब तक तुम उसे दफना नहीं दोगे, हम तुम्हें यहाँ से हिलने नहीं देंगे।"

भीवा के पैर काँपने लगे। जितना अधिक वह परेशानियों से बचने की कोशिश कर रहा था, उतना ही अधिक वे उसका पीछा करती दिख रही थी। उसकी हालत देखकर शायद उन्हें दया आ गई, "तुम्हें भूख लगी है क्या?"

उसे कोई भूख महसूस नहीं हो रही थी। उसका गला भी सूखा लग रहा था। असल में वह भूखा और प्यासा दोनों था।

"पानी..." भीवा के मुँह से निकला।

"मेरे पास कोई पैसे भी नहीं हैं।" भीवा ने कहा।

"तुम्हें सब कुछ मिलेगा।" उन्होंने अपनी साइकिलें मोड़ दीं। एक सब तैयारी करने के लिए आगे चला गया। दूसरा भीवा के पीछे-पीछे चलने लगा। वह भीवा को साइकिल पर ले जा सकता था, लेकिन वह उस पर कैसे भरोसा कर सकता था? किसी को अनुमान भी नहीं था कि गाँव कैसे संक्रमित हो सकता है!

भीवा को रास्ते में कई लोग मिले थे। जब से उसने गोवा छोड़ा था, तब से कुछ उससे आगे थे और कुछ पीछे। पर क्या वह उन्हें अपना साथी कह सकता है? हर किसी को अपने घर पहुँचने की जल्दी थी। इस बीच दो बार उसे ट्रक मिले। उन्होंने उसे आगे छोड़ने के लिए जो माँगा, भीवा वह देने को सहमत हो गया था, ताकि उसे पैदल कम चलना पड़े और वह जल्दी घर पहुँच सके। दस-बीस रुपये देकर सोलापुर, कोल्हापुर के करीब लगने लगा था। लेकिन अब उसके पैसे ख़त्म हो गए थे। एक ट्रक और रुका था और जिनके पास उसे देने के लिए पैसे थे, वह उन्हें लेकर चला गया। नांदेड़ अभी भी दूर था। जब तक वह नांदेड़ नहीं पहुँच जाता, तब तक वह कैसे माने कि वह घर पहुँच पाएगा।

लाश कम से कम आधा किलोमीटर दूर थी। अचानक उन्हें अपनी पीठ पर अपनी गृहस्थी का सामान बाँधे हुए चार लोगों का एक ग्रुप दिखा। भीवा अचकचा गया, कहीं कोई उसे पहचान न ले। अगर ऐसा हुआ तो उसे नहीं पता कि वह उनसे क्या कहेगा। भीवा उनकी नजरें बचाकर साइकिल सवार की आड़ में चलता हुआ आगे बढ़ गया।

घटनास्थल पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि पाँच या छह ग्रामीणों का एक समूह वहीं एक दूसरे पेड़ की छाया में इकट्ठा होकर इसी बात पर चर्चा कर रहा था, “आखिर यह किसकी लाश हो सकती है?”

लेकिन इसका जवाब किसी को नहीं पता था। जिसके पास उत्तर था भी, वह तो मूर्ख बना हुआ कुछ बता ही नहीं रहा था।

खैर! चाहे जो भी हो, पर आख़िर लाश किसकी हो सकती है? जब वह जिंदा रही होगी, तो किसी की माँ, किसी की पत्नी रही होगी। लेकिन अब ये एक लावारिस लाश है, पर किसकी? अब अटकलें लगाने का क्या फ़ायदा? अगर लाश बोल पाती, तो शायद कहती… तीन दिन पहले मैंने उस बेटे को दफनाया, जिसे मैंने जन्म दिया था, भले ही मेरे पति मुझसे कहते रहे कि मैं उसे वहीं सड़क पर छोड़ दूँ...।

भीवा शव के पास पहुँचा, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि आगे करना क्या है, इसलिए सबसे नजरें चुराता वह बस इंतजार करता रहा।

आखिरकार साइकिल-सवार ने आगे बढ़कर गाँववालों से बात की। भीवा को सब सुनाई दे रहा था। वे मरने वाली औरत की धर्म और जाति के बारे में अटकलें लगा रहे थे। उसका अंतिम संस्कार किया जाना चाहिए या दफनाया जाना चाहिए? चूँकि दाह संस्कार महँगा पड़ता इसलिए उसे दफ़नाये जाने की बात पर सबकी सहमति बनी। पर कहाँ? गाँव में तो बिल्कुल नहीं! गांव की सीमा ज्यादा दूर नहीं थी, इसलिए तय हुआ कि उसे पास ही एक खंदक में दफना दिया जाए। लेकिन क्या कब्र खोदने वाले से मुफ्त में काम करवाना उचित था? इसलिए हर किसी से दस-दस रुपये का चंदा लेकर उनमें से किसी एक ने सौ रुपये तक इकट्ठा कर लिए। जो व्यक्ति गाँव में कुछ खाने-पीने का सामान लाने गया था, वह अभी तक नहीं लौटा था। उसका और अधिक इंतज़ार करने से बेहतर था कि काम जल्दी निपटा लिया जाए।  उन्होंने इशारे से भीवा को बुलाया तो लेकिन उसे दस फीट से अधिक पास नहीं आने दिया।

भीवा को खुद ही लाश को खींचना पड़ा। उसकी मदद करने का जोखिम उठाने का साहस किसी गाँव वाले ने नहीं दिखाया। भीवा को अपने पेट में मरोड़-सी महसूस हुई। उसने कितना भी तय किया कि वह लाश की ओर नहीं देखेगा, पर उसकी नज़र थी कि बार-बार उसकी ओर ही जा रही थी। वह असहज हो गया। नीचे झुक कर उसने अपनी बाँहें उसकी कांख में डाल दीं और उसे खींचने लगा। उसे लाश भारी लगी। जाने वह भारी थी भी या हो गई थी? किसी तरह वह सड़क तक पहुँच तो गया परन्तु उसका मन व्याकुल था। वैसे तो उसके पास बिल्कुल ताकत नहीं बची थी, फिर भी उसने अपना पूरा ज़ोर लगा डाला। अपनी बची-खुची शक्ति लगाकर उसने एक हाथ उस औरत की गर्दन के नीचे और दूसरा उसके घुटनों के नीचे डालकर उसे उठा लिया था। उसे लगा मानो उसके मन से कोई बोझ उतर गया हो। उसे उठाए हुए एक बार जब वह सीधा खड़ा हो गया तो जैसे सब आसान हो गया। लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि वह लड़खड़ाकर गिर जायेगा। लेकिन किसी तरह काँखते-कराहते हुए उस भारी बोझ को वह खंदक तक ले जाने में कामयाब हो ही गया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि गाँव वालों ने वहाँ पहले से ही एक कब्र खोद रखी थी। असल बात तो यह थी कि उन्हें डर था कि यदि वह कोविड से संक्रमित हुआ तो वे उसके हाथ से उसका छुआ फावड़ा वापस नहीं ले सकते थे।

"लाश को वहाँ फेंक दो!" उन्होंने दूर से निर्देश दिया।

लेकिन उसने उसे फेंका नहीं, बल्कि बड़ी सावधानी से उसे कब्र में डाल दिया। पिछली मौत ने उसकी आँखों के आँसू पहले ही सुखा दिए थे। शायद अगली मौत उसकी हो। उसका गला अजीब तरह से भारी और चटका हुआ  महसूस हो रहा था। लेकिन उसे तर करने के लिए वह लार कहाँ से लाएगा?

“इसे मिट्टी से ढक दो! थोड़ी रेत भी डाल दो...'' गाँव वाले उसे निर्देश दे रहे थे। वह लाश को तब तक मिट्टी से ढँकता रहा, जब तक गाँव वालों ने उसे रुकने को नहीं कहा।

 "बस...बहुत हो गया। हम इस मुसीबत से छुटकारा पा चुके हैं।”

उन्होंने कुछ रोटियाँ कागज़ में लपेट दी और साथ में पानी की एक प्लास्टिक की बोतल भी, "ये सौ रुपये हैं" उन्होंने उसे दिखाते हुए कहा और सब कुछ किनारे पर रख दिया था। नोट कहीं हवा से उड़ न जाएँ, इस लिए उन्हें पत्थर से दबा भी दिया। काम अच्छे से निपट गया तो चेहरे पर आत्मसंतुष्टि का भाव लिए  उन्होंने अपने मास्क ठीक किये, अपने कपड़े झाड़कर सँवारे और गाँव वापस चल दिए।

भीवा वहीं किनारे पर उकड़ूँ बैठ गया। उसने बोतल से पानी के कुछ घूँट गटक लिए। ज़मीन पर लुढ़के पड़े पार्सल से कागज खोलकर देखा तो उसमें दो मोटी-मोटी रोटियाँ और कुछ चटनी मिलीं। लहसुन की सुगंध उसके नथुनों में भर गई। उसने रोटी का थोड़ा सा टुकड़ा तोड़कर मुँह में डाला, लेकिन उसे कोई भूख नहीं थी। रोटियाँ लपेट कर उसने उन्हें अपनी पैंट की जेब में डाल लिया और नोट गिनकर अपनी शर्ट की जेब में रख लिए।

जैसे ही उसकी नज़र मरी हुई औरत के ऊपर जमा कीचड़नुमा मिट्टी के ढूहे पर पड़ी, वह झट से उठ खड़ा हुआ। अगर मुझे भी इस तरह किसी अनजान जगह पर मौत आ गई, तो मेरी माँ और भाइयों को पता भी नहीं चलेगा कि इसी जगह सड़क किनारे उनका परिवार ख़त्म हो चुका है। अगर मौत आपके भाग्य में बदा ही है तो कम से कम वह आपके गाँव में, आपके घर में ही होनी चाहिए। पानी की बोतल झुलाते हुए वह सड़क पर आ गया। सूरज तप रहा था और उसकी ताब से उसका शरीर झुलस रहा था। भीवा चलता रहा... इस आशा के साथ कि कोई ट्रक वाला उसके सौ रुपये के बदले उसे घर ले जाएगा।

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रचनाकार परिचय

प्रियंका गुप्ता

ईमेल : priyanka.gupta.knpr@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्म- 31 अक्टूबर, 1978 (कानपुर)
शिक्षा- बी.काम
लेखन विधा- बचपन से लेखन आरम्भ करने के कारण मूलतः बालकथा बड़ी संख्या में लिखी-छपी, परन्तु बड़ी कहानियाँ लिखने के साथ साथ हाइकु, तांका, सेदोका, चोका, माहिया, कविता और ग़ज़लें आदि भी लिखी और प्रकाशित
प्रकाशन-
कृतियाँ -
1- नयन देश की राजकुमारी (बालकथा संग्रह)
2- सिर्फ़ एक गुलाब (बालकथा संग्रह)
3- फुलझड़ियाँ (बालकथा संग्रह)
4- नानी की कहानियाँ (लोककथा संग्रह)
5- ज़िन्दगी बाकी है (बड़ी कहानियों का एकल संग्रह)
6- बुरी लड़की (कहानी संग्रह)
इसके अलावा देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
पुरस्कार/ सम्मान-
1- ‘नयन देश की राजकुमारी’ उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "सूर अनुशंसा" पुरस्कार प्राप्त
2- "सिर्फ़ एक गुलाब" प्रियम्वदा दुबे स्मृति पुरस्कार-राजस्थान
3- कादम्बिनी साहित्य महोत्सव-94 में कहानी "घर" के लिए तत्कालीन राज्यपाल(उ.प्र.) श्री मोतीलाल वोहरा द्वारा अनुशंसा पुरस्कार प्राप्त
ब्लॉग- www.priyankakedastavez.blogspot.in
मोबाइल- 9919025046
संपर्क- ‘प्रेमांगन’
एम.आई.जी-292, कैलाश विहार,
आवास विकास योजना संख्या-एक,
कल्याणपुर, कानपुर-208017(उत्तर प्रदेश)